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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अबोषध्यौ देवते छन्दः - विराट् ब्राह्मी जगती, स्वरः - निषादः
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    एदम॑गन्म देव॒यज॑नं पृथि॒व्या यत्र॑ दे॒वासो॒ऽअजु॑षन्त॒ विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॑ स॒न्तर॑न्तो॒ यजु॑र्भी रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा म॑देम। इ॒माऽआपः॒ शमु॑ मे सन्तु दे॒वीरोष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳहिꣳसीः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। इ॒दम्। अ॒ग॒न्म॒। दे॒व॒यज॑न॒मिति॑ देव॒यज॑नम्। पृ॒थि॒व्याः। यत्र॑। दे॒वासः॑। अजु॑षन्त। विश्वे॑। ऋ॒क्सा॒माभ्या॒मित्यृ॑क्ऽसा॒माभ्या॑म्। स॒न्तर॑न्त॒ इति॑ स॒म्ऽतर॑न्तः। यजु॑र्भि॒रिति॒ यजुः॑ऽभिः। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। म॒दे॒म॒। इ॒माः। आपः॑। शम्। ऊँ॒ऽइ॒त्यूँ॑। मे॒। स॒न्तु॒। दे॒वीः। ओष॑धे। त्राय॑स्व। स्वधि॑त॒ इति॒ स्वऽधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एदमगन्म देवयजनम्पृथिव्या यत्र देवासो अजुषन्त विश्वे । ऋक्सामाभ्याँ सन्तरन्तो यजुर्भी रायस्पोषेण समिषा मदेम । इमा आपः शमु मे सन्तु देवीरोषधे त्रायस्व । स्वधिते मैनँ हिँसीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। इदम्। अगन्म। देवयजनमिति देवयजनम्। पृथिव्याः। यत्र। देवासः। अजुषन्त। विश्वे। ऋक्सामाभ्यामित्यृक्ऽसामाभ्याम्। सन्तरन्त इति सम्ऽतरन्तः। यजुर्भिरिति यजुःऽभिः। रायः। पोषेण। सम्। इषा। मदेम। इमाः। आपः। शम्। ऊँऽइत्यूँ। मे। सन्तु। देवीः। ओषधे। त्रायस्व। स्वधित इति स्वऽधिते। मा। एनम्। हिꣳसीः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (पृथिव्या) भूमि पर मनुष्यजन्म को प्राप्त होके जो (इदम्) यह (देवयजनम्) विद्वानों का यजन पूजन वा उन के लिये दान है, उस को प्राप्त होके (यत्र) जिस देश में (ऋक्सामाभ्याम्) ऋग्वेद, सामवेद तथा (यजुर्भिः) यजुर्वेद के मन्त्रों में कहे कर्म (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि (समिषा) उत्तम-उत्तम विद्या आदि की इच्छा वा अन्न आदि से दुःखों के (सन्तरन्तः) अन्त को प्राप्त होते हुये (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् हम लोग सुखों को (अगन्म) प्राप्त हों, (अजुषन्त) सब प्रकार से सेवन करें, (मदेम) सुखी रहें, (उ) और भी (मे) मेरे सुनियम, विद्या, उत्तम शिक्षा से सेवन किये हुए (इमाः) ये (देवीः) शुद्ध (आपः) जल सुख देने वाले होते हैं, वैसे वहाँ तू भी उन को प्राप्त हो (जुषस्व) सेवन और आनन्द कर। वे जल आदि पदार्थ भी तुझ को (शम्) सुख कराने वाले (सन्तु) होवें, जैसे (ओषधे) सोमलता आदि ओषधिगण सब रोगों से रक्षा करता है, वैसे तू भी हम लोगों की (त्रायस्व) रक्षा कर। (स्वधिते) रोगनाश करने में वज्र के समान होकर (एनम्) इस यजमान वा प्राणीमात्र को (मा हिꣳसीः) कभी मत मार॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग ब्रह्मचर्यपूर्वक अङ्ग और उपनिषद् सहित चारों वेदों को पढ़ कर, औरों को पढ़ा कर, विद्या को प्रकाशित कर और विद्वान् होके उत्तम कर्मों के अनुष्ठान से सब प्राणियों को सुखी करें, वैसे ही इन विद्वानों का सत्कार कर, इनसे वैदिक विद्या को प्राप्त होकर, श्रेष्ठ आचार तथा उत्तम औषधियों के सेवन से कष्टों का निवारण करके शरीर वा आत्मा की पुष्टि से धन का अत्यन्त सञ्चय करके सब मनुष्यों को आनन्दित होना चाहिये॥१॥

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