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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    11

    त्वम॑ग्ने व्रत॒पाऽअ॑सि दे॒वऽआ मर्त्ये॒ष्वा। त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑। रास्वेय॑त्सो॒मा भूयो॑ भर दे॒वो नः॑ सवि॒ता वसो॑र्दा॒ता वस्व॑दात्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ग्ने॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रत॒ऽपाः। अ॒सि॒। दे॒वः। आ। मर्त्त्ये॑षु। आ। त्वम्। य॒ज्ञेषु॑। ईड्यः॑। रास्व॑। इय॑त्। सो॒म। आ। भूयः॑। भ॒र॒। दे॒वः। नः॒। स॒वि॒ता। वसोः॑। दा॒ता। वसु॑। अ॒दा॒त् ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने व्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा । त्वँयज्ञेष्वीड्यः । रास्वेयत्सोमा भूयो भर देवो नः सविता वसोर्दाता वस्वदात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। व्रतपा इति व्रतऽपाः। असि। देवः। आ। मर्त्त्येषु। आ। त्वम्। यज्ञेषु। ईड्यः। रास्व। इयत्। सोम। आ। भूयः। भर। देवः। नः। सविता। वसोः। दाता। वसु। अदात्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 16
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    पदार्थ -
    हे (सोम) ऐश्वर्य्य के देने वाले (अग्ने) जगदीश्वर! जो (त्वम्) आप (मर्त्त्येषु) मनुष्यों में (व्रतपाः) सत्य धर्माचरण की रक्षा (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करने (यज्ञेषु) सत्कार वा उपासना आदि में (ईड्यः) स्तुति के योग्य (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन के (दाता) दान करने वाले (वसु) धन को (अदात्) देते हैं, सो (इयत्) प्राप्त करते हुए आप (भूयः) बारंबार अत्यन्त धन (आरास्व) दीजिये (आभर) सब सुखों से पोषण कीजिये॥१॥१६॥ (त्वम्) जो (अग्ने) अग्नि (मर्त्त्येषु) मरण धर्म वाले मनुष्यों के कार्यों में (व्रतपाः) नियमाचरण का पालन (देवः) प्रकाश करने (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादि यज्ञों में (ईड्यः) खोजने योग्य (सोमः) ऐश्वर्य को देने (सविता) जगत् को प्रेरणा करने (देवः) प्रकाशमान अग्नि है, वह (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन को (दाता) प्राप्त (इयत्) कराता हुआ (भूयः) अत्यन्त (वसु) धन को (अदात्) देता और (आरास्व) धन को देने का निमित्त होके (आभर) सब प्रकार के सुखों को धारण करता है॥२॥१६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को उचित है कि जैसे सत्यस्वरूप सब जगत् को उत्पन्न करने और सकल सुखों के देने वाले जगदीश्वर ही की उपासना को करके सुखी रहें। इसी प्रकार कार्यसिद्धि के लिये अग्नि को संप्रयुक्त करके सब सुखों को प्राप्त करें॥१६॥

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