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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता । आपो देवता । बृहस्पतिर्देवता । छन्दः - पङ्क्ति,आर्षी बृहती, स्वरः - पञ्चमः, मध्यमः
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    आकू॑त्यै प्र॒युजे॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ मे॒धायै॒ मन॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ दी॒क्षायै॒ तप॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै पू॒ष्णेऽग्नये॒ स्वाहा॑। आपो॑ देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो॒ द्यावा॑पृथिवी॒ऽउरो॑ऽन्तरिक्ष। बृह॒स्पत॑ये ह॒विषा॑ विधेम॒ स्वाहा॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आकू॑त्या॒ इत्याऽकू॑त्यै। प्र॒युज॒ इति॑ प्र॒ऽयुजे॑। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। मे॒धायै॑। मन॑से। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। दी॒क्षायै॑। तप॑से। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। पू॒ष्णे। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। आपः॑। दे॒वीः॒। बृ॒ह॒तीः॒। वि॒श्व॒शं॒भु॒व॒ इति॑ विश्वऽशंभुवः। द्यावा॑पृथिवी॒ऽइति द्यावा॑पृथिवी। उरो॒ऽइत्युरो॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒। बृह॒स्पत॑ये। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। स्वाहा॑ ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आकूत्यै प्रयुजे ग्नये स्वाहा मेधायै मनसे ग्नये स्वाहा दीक्षायै तपसेग्नये स्वाहा सरस्वत्यै पूष्णेग्नये स्वाहा । आपो देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो द्यावापृथिवी उरो अन्तरिक्ष । बृहस्पतये हविषा विधेम स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आकूत्या इत्याऽकूत्यै। प्रयुज इति प्रऽयुजे। अग्नये। स्वाहा। मेधायै। मनसे। अग्नये। स्वाहा। दीक्षायै। तपसे। अग्नये। स्वाहा। सरस्वत्यै। पूष्णे। अग्नये। स्वाहा। आपः। देवीः। बृहतीः। विश्वशंभुव इति विश्वऽशंभुवः। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। उरोऽइत्युरो। अन्तरिक्ष। बृहस्पतये। हविषा। विधेम। स्वाहा॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (आकूत्यै) उत्साह (प्रयुजे) उत्तम-उत्तम धर्मयुक्त क्रियाओं (अग्नये) अग्नि के प्रदीपन (स्वाहा) वेदवाणी के प्रचार (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी (पूष्णे) पुष्टि करने (बृहस्पतये) बड़े-बड़े अधिपतियों के होने (अग्नये) बिजुली की विद्या के ग्रहण (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने से विद्या (मेधायै) बुद्धि की उन्नति (मनसे) विज्ञान की वृद्धि (अग्नये) कारणरूप (स्वाहा) सत्यवाणी की प्रवृत्ति (दीक्षायै) धर्मनियम और आचरण की रीति (तपसे) प्रताप (अग्नये) जाठराग्नि के शोधन (स्वाहा) उत्तम स्तुतियुक्त वाणी से (बृहतीः) महागुण-सहित (विश्वशम्भुवः) सब के लिये सुख उत्पन्न कराने वाले (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्न (आपः) प्राण वा जल से (स्वाहा) सत्य भाषण (द्यावापृथिवी) भूमि और प्रकाश की शुद्धि के अर्थ (उरो) बहुत सुख सम्पादक (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष में रहने वाले पदार्थों को शुद्ध और जिस (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा वेदवाणी से यज्ञ सिद्ध होता है, उन सबों को (हविषा) सत्य और प्रेमभाव से (विधेम) सिद्ध करें, वैसे तुम भी किया करो॥७॥

    भावार्थ - यज्ञ के अनुष्ठान के विना उत्साह, बुद्धि, सत्यवाणी, धर्माचरण की रीति, तप, धर्म का अनुष्ठान और विद्या की पुष्टि का सम्भव नहीं होता और इनके विना कोई भी मनुष्य परमेश्वर की आराधना करने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान करके सब के लिये सब प्रकार आनन्द प्राप्त करना चाहिये॥७॥

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