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यजुर्वेद अध्याय - 4

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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता । आपो देवता । बृहस्पतिर्देवता । छन्दः - पङ्क्ति,आर्षी बृहती, स्वरः - पञ्चमः, मध्यमः
    145

    आकू॑त्यै प्र॒युजे॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ मे॒धायै॒ मन॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ दी॒क्षायै॒ तप॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै पू॒ष्णेऽग्नये॒ स्वाहा॑। आपो॑ देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो॒ द्यावा॑पृथिवी॒ऽउरो॑ऽन्तरिक्ष। बृह॒स्पत॑ये ह॒विषा॑ विधेम॒ स्वाहा॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आकू॑त्या॒ इत्याऽकू॑त्यै। प्र॒युज॒ इति॑ प्र॒ऽयुजे॑। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। मे॒धायै॑। मन॑से। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। दी॒क्षायै॑। तप॑से। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। पू॒ष्णे। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑। आपः॑। दे॒वीः॒। बृ॒ह॒तीः॒। वि॒श्व॒शं॒भु॒व॒ इति॑ विश्वऽशंभुवः। द्यावा॑पृथिवी॒ऽइति द्यावा॑पृथिवी। उरो॒ऽइत्युरो॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒। बृह॒स्पत॑ये। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। स्वाहा॑ ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आकूत्यै प्रयुजे ग्नये स्वाहा मेधायै मनसे ग्नये स्वाहा दीक्षायै तपसेग्नये स्वाहा सरस्वत्यै पूष्णेग्नये स्वाहा । आपो देवीर्बृहतीर्विश्वशम्भुवो द्यावापृथिवी उरो अन्तरिक्ष । बृहस्पतये हविषा विधेम स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आकूत्या इत्याऽकूत्यै। प्रयुज इति प्रऽयुजे। अग्नये। स्वाहा। मेधायै। मनसे। अग्नये। स्वाहा। दीक्षायै। तपसे। अग्नये। स्वाहा। सरस्वत्यै। पूष्णे। अग्नये। स्वाहा। आपः। देवीः। बृहतीः। विश्वशंभुव इति विश्वऽशंभुवः। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। उरोऽइत्युरो। अन्तरिक्ष। बृहस्पतये। हविषा। विधेम। स्वाहा॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    किमर्थः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यथा वयमाकूत्यै प्रयुजेऽग्नये स्वाहा, सरस्वत्यै पूष्णे बृहस्पतयेऽग्नये स्वाहा, मेधायै मनसेऽग्नये स्वाहा, दीक्षायै तपसेऽग्नये स्वाहा, या बृहत्यो विश्वशम्भुवो देव्य आपः स्वाहा, वाक् द्यावापृथिवी उरोऽन्तरिक्षस्थे च स्तस्ता अपि स्वाहा, क्रियया हविषा च शुद्धा विधेम, तथा यूयमपि विदधत॥७॥

    पदार्थः

    (आकूत्यै) उत्साहाय (प्रयुजे) या धर्मक्रिया प्रकृष्टैर्गुणैर्युनक्ति योजयति वा तस्यै (अग्नये) अग्निप्रदीपनाय (स्वाहा) वेदवाणीप्रचाराय (मेधायै) प्रज्ञोन्नतये (मनसे) विज्ञानवृद्धये (अग्नये) विद्युद्विद्याग्रहणाय (स्वाहा) परोपकारकारिकायै (दीक्षायै) धर्मनियमाचरणरीतये (तपसे) प्रतापाय (अग्नये) कारणरूपाय (स्वाहा) अध्ययनाध्यापनविद्यायै (सरस्वत्यै) विद्यासुशिक्षासहितायै वाचे (पूष्णे) पुष्टिकरणाय (अग्नये) जाठराग्निशोधनाय (स्वाहा) सत्यवाक् प्रवृत्तये (आपः) प्राणा जलानि वा (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्नाः। अत्र वा छन्दसि। [अष्टा॰६.१.१०६] इति जसः पूर्वसवर्णत्वम् (बृहतीः) महागुणविशिष्टाः (विश्वशम्भुवः) या विश्वस्मै शं सुखं भावयन्ति ताः (द्यावापृथिवी) भूमिप्रकाशौ (उरो) बहुसुखप्रतिपादकः (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्षस्थो यज्ञः (बृहस्पतये) बृहत्या वाचो बृहतामाकाशादीनां च पतिः स्वामी तस्मै जगदीश्वराय (हविषा) सामग्र्या सत्यप्रेमभावेन वा (विधेम) विधानं कुर्य्याम (स्वाहा) सङ्गतां प्रियां शोभनां स्तुतिप्रयुक्तां वाचम्। अयं मन्त्रः (शत॰३.१.४.६-१५) व्याख्यातः॥७॥

    भावार्थः

    नहि यज्ञानुष्ठानेन विनोत्साहो मेधा सत्यवाक् दीक्षा तपो धर्मानुष्ठानं विद्या पुष्टिश्च संभवति। न किलैतैर्विना कश्चिदपि परमेश्वरमाराद्धुं शक्नोतीति, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरेतत् सर्वमनुष्ठाय सर्वानन्दः प्राप्तव्यः॥७॥

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    विषयः

    किमर्थः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या ! यथा वयमाकूत्यै उत्साहाय प्रयुजे या धर्मक्रिया प्रकृष्टैर्गुणैर्युनक्ति-योजयति वा तस्यै, अग्नये अग्निप्रदीपनाय,स्वाहा वेदवाणीप्रचाराय, सरस्वत्यै विद्यासुशिक्षासहितायै वाचे, पूष्णे पुष्टिकरणाय,बृहस्पतये बृहत्या:=वाचो बृहतामाकाशादीनां च पतिः=स्वामी तस्मै जगदीश्वराय, अग्नये जाठराग्निशोधनाय,स्वाहा सत्यवाक्प्रवृत्तये, मेधायै प्रज्ञोन्नतये, मनसे विज्ञानवृद्धिये, अग्नये विद्युद्विद्या- ग्रहणाय,स्वाहा परोपकारकारिकायै, दीक्षायैधर्मनिगमाचरणरीतये, तपसे प्रतापाय, अग्नये कारणरूपाय, स्वाहा अध्ययनाध्यापनविद्यायै, या [बृहतीः] बृहत्य: महागुणविशिष्टाः विश्वशम्भुवः या विश्वस्मै शं=सुखं भावयन्ति ताः [देवीः] देव्यः दिव्यगुणसम्पन्ना: आपः प्राणा जलानि वा स्वाहा=वाक् ।द्यावापृथिवी भूमि प्रकाशौ उरो बहुसुखप्रतिपादक: [अन्तरिक्ष]=अन्तरिक्षस्थे अन्तरिक्षस्थो यज्ञः च स्तस्ता अपि स्वाहा सङ्गतां प्रियां शोभनां स्तुतिप्रयुक्तां वाचं क्रियया हविषा सामग्र्या सत्यप्रेमभावेन वा च शुद्धा विधेम विधानं कुर्याम तथा यूयमपि विदधत ॥ ४। ७ ।। [ हे मनुष्या! यथा व यमाकूत्यै, मेधायै, सरस्वत्यै, दीक्षायै, तपसे, अग्नये, पूष्णो...हविषा...विधेम तथा यूयमपि विदधत]

    पदार्थः

    (आकूत्यै) उत्साहाय (प्रयुजे) या धर्मक्रिया प्रकृष्टैर्गुणैर्युनक्ति योजयति वा तस्यै (अग्नये) अग्निप्रदीपनाय (स्वाहा) वेदवाणीप्रचाराय (मेधायै) प्रज्ञोन्नतये (मनसे) विज्ञानवृद्धये (अग्नये) विद्युद्विद्याग्रहणाय (स्वाहा) परोपकारकारिकायै ( दीक्षायै ) धर्मनिगमाचरणरीतये (तपसे) प्रतापाय (अग्नये) कारणरूपाय (स्वाहा) अध्ययनाध्यापनविद्यायै (सरस्वत्यै) विद्यासु शिक्षासहितायै वाचे (पूष्णे) पुष्टिकरणाय (अग्नये) जाठराग्निशोधनाय (स्वाहा) सत्यवाक् प्रवृत्तये (आपः) प्राणा जलानि वा (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्नाः । अत्र वा छन्दसीति जसः पूर्वसवर्णत्वम् (बृहतीः) महागुणविशिष्टाः (विश्वशम्भुवः) या विश्वस्मै शं=सुखं भावयन्ति ताः (द्यावापृथिवी) भूमिप्रकाशौ (उरो) बहुसुखप्रतिपादक: (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्षस्थो यज्ञः (बृहस्पतये) बृहत्या वाचो बृहतामाकाशादीनां च पतिः=स्वामी तस्मै जगदीश्वराय (हविषा) सामग्र्या सत्यप्रेमभावेन वा (विधेम) विधानं कुर्य्याम (स्वाहा) संगतां प्रियां शोभनां स्तुतिप्रयुक्तां वाचम्॥अयं मंत्रः श० ३ ।१ ।४ ।६-१५ व्याख्यातः ॥ ७॥

    भावार्थः

    नहि यज्ञानुष्ठानेन विनोत्साहो, मेधा, सत्यवाक्, दीक्षा, तपो, धर्मानुष्ठानम्, विद्या, पुष्टिश्च सम्भवति। न किलैतैर्विना कश्चिदपि परमेश्वरमाराद्धुं शक्नोतीति। [तात्पर्यमाह--] तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरेतत् सर्वमनुष्ठाये सर्वानन्दः प्राप्तव्यः ॥ ४। ७ ॥

    विशेषः

    प्रजापतिः । अग्न्यब्बृहस्पतयः=[अग्नि-जल-बृहस्पति] जगदीश्वराः। पूर्वार्धस्य पंक्तिः। पञ्चमः। आपो देवीरित्युत्तरस्यार्षी बृहतीः। मध्यमः ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    किसलिये उस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (आकूत्यै) उत्साह (प्रयुजे) उत्तम-उत्तम धर्मयुक्त क्रियाओं (अग्नये) अग्नि के प्रदीपन (स्वाहा) वेदवाणी के प्रचार (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी (पूष्णे) पुष्टि करने (बृहस्पतये) बड़े-बड़े अधिपतियों के होने (अग्नये) बिजुली की विद्या के ग्रहण (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने से विद्या (मेधायै) बुद्धि की उन्नति (मनसे) विज्ञान की वृद्धि (अग्नये) कारणरूप (स्वाहा) सत्यवाणी की प्रवृत्ति (दीक्षायै) धर्मनियम और आचरण की रीति (तपसे) प्रताप (अग्नये) जाठराग्नि के शोधन (स्वाहा) उत्तम स्तुतियुक्त वाणी से (बृहतीः) महागुण-सहित (विश्वशम्भुवः) सब के लिये सुख उत्पन्न कराने वाले (देवीः) दिव्यगुणसम्पन्न (आपः) प्राण वा जल से (स्वाहा) सत्य भाषण (द्यावापृथिवी) भूमि और प्रकाश की शुद्धि के अर्थ (उरो) बहुत सुख सम्पादक (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष में रहने वाले पदार्थों को शुद्ध और जिस (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा वेदवाणी से यज्ञ सिद्ध होता है, उन सबों को (हविषा) सत्य और प्रेमभाव से (विधेम) सिद्ध करें, वैसे तुम भी किया करो॥७॥

    भावार्थ

    यज्ञ के अनुष्ठान के विना उत्साह, बुद्धि, सत्यवाणी, धर्माचरण की रीति, तप, धर्म का अनुष्ठान और विद्या की पुष्टि का सम्भव नहीं होता और इनके विना कोई भी मनुष्य परमेश्वर की आराधना करने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को इस यज्ञ का अनुष्ठान करके सब के लिये सब प्रकार आनन्द प्राप्त करना चाहिये॥७॥

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    विषय

    स्वाहा

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    यज्ञशाला में अग्नि और समिधा, दोनों समन्वय रहता है जब शब्दों का उद्गीत गाने वाला वेदमन्त्रों की ऋचा को उद्गीत रूप में गात है और स्वाहा कह करके यज्ञमान की वाणी के शब्दों को ले करके, उसको एक सूत्रित कर बना करके, माला बना देता है तो इसीलिए प्रत्येक वेद मन्त्र भी माला के सदृश कहलाता है। हे देवी! वही माला रूप मुझे दृष्टिपात आता रहता है हे देवी! जब तुम वैज्ञानिक युगों में प्रवेश करोगी तो तुम्हें माला ही माला दृष्टिपात आयेगी। हे देवी! यहाँ प्रत्येक मानव माला में पिरोया हुआ है और यह संसार माला के सदृश दृष्टिपात आता रहता है।

    जब भी यज्ञमान स्वाहा उच्चारण करता है, यज्ञमान सपत्नी प्रीति से विराजमान हो करके वह अपने सौभाग्य को अखण्डवत में स्वीकार करते हुए जब वह आहुति देते हैं, याग करते हैं, होता जन विराजमान हैं, उनका जो स्वाहा शब्द है वह अग्नि के ऊपर विश्राम करके उसका व्यापक स्वरूप बन जाता है। इस सम्बन्ध में आदि ऋषियों ने ऐसा विचार दिया है कि वह जो वेदमन्त्र ब्राह्मण का हृदयग्राही है और यज्ञमान का, श्रोताओं का जो स्वाहा है, उनकी जो विचारधारा है वह वायु में तरंगित हो जाती है। जब वह वायु में तरंगित हो जाती है तो वायु उस वेद को ऊर्ध्व गति में ले जाता है। मेरे प्यारे! वह जो स्वाहा है अग्नि के ऊपर विराजमान हो करके, पत्नी की शुभ भावना, होताओं का जो सङ्कल्प है वह उस अग्नि के ऊपर विश्राम करता हुआ, अग्नि को वाहन बनाता हुआ वह अशुद्ध परमाणुओं को समाप्त करता चला जाता है और शुद्ध परमाणुओं की स्थापना करता चला जाता है।

    ज्ञानेन्द्रियों का जो विषय है वह जो पांचिक साकल्य बन गया है यह ज्ञान रूपी अपने विचारों में अन्तरात्मा में हूत कर रहा है।

    अन्तरात्मा में कैसे? शान्त मुद्रा में विराजमान है। उसके पश्चात जब उसकी तरंगें, उसकी आभाएं उसका जो विषय है वह उस विषय को अन्तरात्मा में ध्यानास्थित होता है उस विषय को ले करके। वह जो ज्ञान रूपी अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है उसमें वह हूत कर रहा है, उसमें स्वाहा दे रहा है, वह बाह्य संसार को समाप्त करके, आन्तरिक जगत को दृष्टिपात कर रहा है। उसको पांचिक याग माना है।

    इसी प्रकार यह हृदय रूपी जो यज्ञशाला है इस यज्ञशाला में नाना सामग्री लाते हैं। इस हृदय रूपी यज्ञशाला में वह इसका स्वाहा कर देते हैं। वह उसमें स्वाहा हो जाता है। जैसे एक मानव सुन्दर सुन्दर रूपों को दृष्टिपात कर रहा है।

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    विषय

    उन्नति के अष्टस्तम्भ

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में ‘यज्ञात्मक उत्तम इच्छा’ का वर्णन हुआ था। प्रस्तुत मन्त्र में उन्हीं उत्तम इच्छाओं के करनेवाले प्रगतिशील [ अग्नि ] जीव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि— १. ( आकूत्यै ) = सङ्कल्पात्मा ( प्रयुजे ) = सङ्कल्पों को क्रियारूप में परिणित करनेवाले ( अग्नये ) =  प्रगतिशील जीव के लिए ( स्वाहा ) = [ सु+आह ] हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। प्रशंसनीय जीवन उसी का है जिसका जीवन सङ्कल्पमय है। ‘यज्ञाः सङ्कल्पसम्भवाः’ सब उत्तम कर्म सङ्कल्पों का ही परिणाम हैं, परन्तु उन सङ्कल्पों को क्रियारूप में परिणत करनेवाला ‘प्रयुक्’ ही प्रशस्त है। ‘सङ्कल्प करना और उसे क्रियान्वित करना’ ही प्रशंसनीय है। 

    ३. ( मेधायै ) = धारणावती बुद्धि के पुञ्जभूत [ embodiment ] ( मनसे ) = मननशील ( अग्नये ) = प्रगतिशील जीव के लिए ( स्वाहा ) = हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। प्रशंसनीय वही है जो धारणावती बुद्धिवाला है और इस धारणावती बुद्धि के विकास के लिए मननशील बनता है। ‘मनन’ मेधा का जनक है। 

    ३. ( दीक्षायै ) = व्रत-संग्रह के लिए और ( तपसे ) = तप के लिए, दीक्षा और तप के द्वारा ( अग्नये ) = आगे बढ़नेवाले के लिए ( स्वाहा ) = प्रशंसा के शब्द कहे जाते हैं। जो व्यक्ति उन्नत होना चाहता है उसे दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। व्रती जीवन ही जीवन है। व्रतपूर्ति के लिए तप की आवश्यकता है। तप की न्यूनता हमारे व्रतों के भङ्ग का कारण बनती है और व्रतभङ्ग का अभिप्राय है उन्नति का न होना। 

    ४. ( सरस्वत्यै ) = ज्ञान के अधिदेवता के लिए और साथ ही ( पूष्णे ) = पोषण के देवता के लिए और इस प्रकार ज्ञान और पोषण की देवताओं का आराधन करके ( अग्नये ) = आगे बढ़नेवाले के लिए ( स्वाहा ) = प्रशंसा के शब्द प्रस्तुत होते हैं। उत्तम जीवन वही है जिसमें ज्ञान और शरीर की दृढ़ता व शक्ति का समन्वय हुआ है। 

    ५. एवं, ( अग्नि ) = प्रगतिशील जीव में आठ बातें हैं जोकि दो-दो ग्रुप में होकर ऊपर चार वाक्यों में कही गई हैं। [ क ] सङ्कल्प तथा सङ्कल्प को क्रियान्वित करना, [ ख ] धारणावती बुद्धि का सम्पादन और उसके लिए मनन, [ ग ] व्रतग्रहण और व्रतपूर्ति के लिए तप [ घ ] विद्या व शक्ति का समन्वय। इन आठ बातों के होने पर ही व्यक्ति ‘अग्नि’ बन पाता है।

    ६. यह अग्नि [ जीव ] कहता है कि ( आपः ) = जल ( देवीः ) = दिव्य गुणोंवाले हैं ( बृहतीः ) =  हमारी वृद्धि के कारणभूत हैं ( विश्वशंभुवः ) = सब रोगों को शान्त करनेवाले हैं और इन जलों के अतिरिक्त ( द्यावापृथिवी ) = द्युलोक और पृथिवीलोक, ( उरो अन्तरिक्ष ) = विशाल अन्तरिक्षलोक के अधिष्ठाता ( बृहस्पतये ) = [ बृहतामाकाशदीनां पतिः ] बृहस्पति नाम से प्रसिद्ध प्रभु के लिए हम ( हविषा ) = हवि के द्वारा ( विधेम ) = पूजा करते हैं। ( स्वाहा ) = यह अत्यन्त सुन्दर वेदवाणी है। सब लोकों की पवित्रता के लिए अग्निहोत्रादि यज्ञों में विविध हविर्द्रव्यों का प्रक्षेप होता है। प्रभु की पूजा भी हवि से ही होती है—[ हु दानादनयोः ] ‘दानपूर्वक अदन’ यही प्रभु का आदेश है त्यक्तेन भुज्जीथाः, इस आदेश का पालन ही प्रभु-पूजन हो जाता है। यह औरों के हित के द्वारा प्रभु-पूजन करनेवाला ही सच्चा ‘प्रजापति’ है। यही प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है।

    भावार्थ

    भावार्थ — उन्नति के लिए हम सङ्कल्पादि आठों साधनों की साधना करें। हवि द्वारा सब लोकों को पवित्र करें और प्रभु के प्रिय बनें।

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    विषय

    अध्यात्म यज्ञ और आधिभौतिक यज्ञपतिक्र षिः ।

    भावार्थ

     अध्यात्म यज्ञ और आधिभौतिक यज्ञ का वर्णन करते हैं । ( आकूत्यै ) अपने संकल्पों या अभिप्राय को प्रकट करने वाले, ( प्रयुजे ) इन्द्रियों को अपने ग्राह्यविषयों में और अभिनय को प्रकट करने के लिये मन द्वारा विवेचन पूर्वक वाणी और अन्य कार्यों में शरीर के अन्य अगों को प्रयुक्त करने वाले ( अग्नये ) ज्ञानमय चेतन अग्नि अर्थात् चेतन आत्मा को ( स्वाहा ) अपने 'स्व' आत्मा रूप से कहो । ( मेधायै ) मेघा=- 'मेघा' अर्थात् मुझ आत्मा की धारणावती बुद्धि रूप और | मनसे) ज्ञान करने की शक्ति या संकल्प विकल्प करने वाली शक्ति रूप ( अग्नेय ) पूर्वोत्क इन्द्रियों के नायक रूप ( स्वाहा ) आत्मा का ज्ञान करो । ( दीक्षाये तपसे अग्नये स्वाहा ) दीक्षा व्रत धारण करने और 'तप' अर्थात् तपस्या करने वाली शक्ति रूप ( अग्ने) अग्नि का अपने आत्मा की शक्ति रूप से ज्ञानकरो । ( सरस्वत्यै पूष्णे अग्नये स्वाहा ) सरस्वती, वाणी अर्थात् शब्दोच्चारण करने चाली शक्ति और पूषन्- शरीर को निरन्त पुष्ट करने वाली शक्ति रूप अग्नि, 'चेतन शक्ति को 'स्व' अपनी आत्मा जानो । अर्थात् आत्मा की ही ये निज शक्तियां हैं । आकूति प्रयोग, मेधा मनस, दीक्षा॑, तप, सरस्वती और पुष्टि। इनके रूप में प्रकट होने वाले अग्नि को तुम ( स्वाहा ) स्वयं अपने आत्मा जानो और ( देवी: ) दिव्य शक्तियों से युक्त ( आपः ) आप- जल, जो ( विश्वशम्भुवः ) समस्त जगत् की शान्ति को उत्पन्न करती हैं और ( द्यावापृथिवी ) द्यौ और पृथिवी, सूर्य और भूमि, ( अन्तरिक्ष ) और अन्तरिक्ष अर्थात् वायु जिस प्रकार इन सबमें विद्यमान ( बृहस्पतये) उस महान् शक्ति के परिपालक परमेश्वर के लिये हम ( हविषा ) अग्नि में जिस प्रकार इन पञ्चभूतों की शुद्धि के लिये ओषधि आदि चरु को आहुति देते हैं, उसी प्रकार हविः - सत्य ज्ञान और प्रेम भाव से ( विधेम ) उपासना करें ( स्वाहा ) यह भी एक महान् यज्ञ है । अथवा ( हविषा स्वाहा विधेम ) हवि अर्थात् सत्य प्रेमभाव से स्वाहा- उत्तम स्तुति, वाणी का ( विधेम ) प्रयोग करें। ईश्वर की उत्तम स्तुति करें | शत० ३।१।४।५--१७ ।। 

    टिप्पणी

    -७ ° पृथिवी उर्वन्तरिक्ष। इति काण्व ० । १ आकूत्यै। २ आपो देवी।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     प्रजापतिःऋषिः। अग्न्यब्द्यावापृथिव्यन्तरिक्षबृहस्पतयो देवताः । ( १ ) पंक्तिः
    पञ्चमः (२) आर्ची बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    किसलिए उस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए, यह उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम (आकूत्यै) उत्साह प्रप्ति के लिए (प्रयुजे) उत्तम-गुणों से युक्त करने वाले धर्माचरण के लिये (अग्नये) अग्नि को प्रदीप्त करने के लिए, (स्वाहा) वेदवाणी के प्रचार के लिए, (सरस्वत्यै) विद्या और उत्तम-शिक्षा से युक्त वाणी के लिए, (पूष्णे) पुष्टि प्राप्त करने के लिए, (बृहस्पतये) वाणी और आकाश आदि के स्वामी जगदीश्वर के लिए, (अग्नये) जाठराग्नि को शुद्ध करने के लिए, (स्वाहा) सच्ची वाणी बोलने के लिए, (मेधायै) बुद्धि को बढ़ाने के लिए, (मनसे) विज्ञान वृद्धि के लिए (अग्नये) विद्युत् विद्या को ग्रहण करने के लिए, (स्वाहा) परोपकार करने वाली क्रिया के लिए, (दीक्षाय) धर्म-शास्त्र के अनुसार आचरण की रीति के लिए, (तपसे) प्रताप प्राप्ति के लिए, (अग्नये) कारणरूपता के लिए, (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने की विद्या के लिए जो [बृहतीः] महान् गुणों से युक्त (विश्वशम्भुवः) सब को सुख शान्ति देने वाला [देवी:] दिव्य गुणों से सम्पन्न [आपः] प्राण व जलों की प्राप्ति के लिए (स्वाहा) सत्यभाषण युक्त वाणी से यज्ञ करना चाहिए। और जो (द्यावापृथिवी) भूमि और प्रकाश (उरो) बहुत सुख देने वाले (अन्तरिक्ष) आकाश में स्थित यज्ञ है उसको तथा (स्वाहा) संगत, प्यारी, सुन्दर स्तुति युक्त वाणी को भी क्रिया से तथा (हविषा) यज्ञ सामग्री एवं सत्य के प्रति प्रेम भावना से शुद्ध (विधेम) करते हैं, वैसे तुम भी किया करो ॥ ४।७।

    भावार्थ

    यज्ञ के अनुष्ठान के बिना उत्साह, मेधा, सत्य वाणी, दीक्षा, तप, धर्माचरण, विद्या और पुष्टि की सिद्धि सम्भव नहीं है। और निश्चय है कि इनके बिना कोई भी परमेश्वर की आराधना नहीं कर सकता। इसलिए सब मनुष्य यज्ञ के अनुष्ठान से सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त करें ।। ४ । ७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (देवीः) यहाँ 'वा छन्दसि' [अ० ६। १। १०२] सूत्र से 'जस्' प्रत्यय को पूर्व सवर्ण दीर्घ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । १ । ४ । ६-१५) में की गई है ॥ ४ । ७ ॥

    भाष्यसार

    १. यज्ञानुष्ठान का प्रयोजन--यज्ञ के अनुष्ठान से मनुष्य को उत्साह, उत्तम गुणों से संयुक्त करने वाला धर्माचरण, अग्निविद्या, वेदवाणी का प्रचार, विद्या-सुशिक्षा से युक्त वाणी, पुष्टि व परमेश्वर की प्राप्ति, जाठराग्नि की शुद्धि, सत्यभाषण में प्रवृत्ति, बुद्धि की वृद्धि, विज्ञान की वृद्धि, विद्युत् विद्या की प्राप्ति, परोपकार में प्रवृत्ति, तप का सामर्थ्य, अध्ययन-अध्यापन की विद्या, महान् दिव्य गुणों से युक्त सब के लिए सुखदायक प्राण व जलों की प्राप्ति, तथा सङ्गत, प्रिय, उत्तम वाणी की प्राप्ति होती है। इन्हीं गुणों से मनुष्य परमेश्वर की आराधना करने में समर्थ होता है ।। २. स्वाहा शब्द के अर्थ-- १. वेदवाणी का प्रचार । २. सत्य भाषण में प्रवृत्ति । ३. परोपकार करना । ४. अध्ययन- अध्यापन की विद्या । ५. वाणी । ६. सङ्गत, प्रिय, सुन्दर, ईश्वर की स्तुति करने वाली वाणी ॥ ४ ।। ७ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    यज्ञाच्या अनुष्ठानाखेरीज उत्साह, बुद्धी सत्यवाणी, धर्माचरण, तप व विद्येची वृद्धी होऊ शकत नाही. त्याशिवाय कोणताही माणूस परमेश्वराची उपासना करू शकत नाही. यासाठी सर्व माणसांनी यज्ञाचे अनुष्ठान करून सर्वांसाठी आनंद प्राप्त केला पाहिजे.

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    विषय

    यज्ञाचे अनुष्ठान का करावे, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, आम्ही (याज्ञिकजन) (आकूत्यै) उत्साह प्राप्तीकरता (प्रगुजे) उत्तम धर्ममय क्रिया करण्याकरिता (अग्नये) अग्नीचे प्रदीपन करतो (स्वाहा) वेदवाणीच्या प्रचारासाठी (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणीसाठी (बृहस्पतये) महान् अधिपती होण्यासाठी (अग्नेय) विद्युतविद्येचे ग्रहण करतो. तसेच (स्वाहा) पठन-पाठनाद्वारे विद्येच्या प्राप्तीसाठी (मे धायै) बुद्धीच्या वृद्धीसाठी (मनसे) विज्ञानाच्या वृद्धीसाठी (दीक्षायै) धर्म-धार्मिक नियम आणि व्यवहाराची रीती शिकण्यासाठी (तपसे) आपल्या प्रतापाचा विस्तार करण्यासाठी (अग्नेय) जाठराग्नीच्या शोधनासाठी (स्वाहा) उत्तम स्तुतिमुक्त व प्रिय संभाषणाचा उपयोग करतो (बृहतीः) महागुणसंपपन्न (विश्‍वशंभुवः) सर्वांसाठी सुख उत्पन्न करणा (देवीः) दिव्यगुणसंपन्न अशा (आपः) प्राणशक्तीचा अधवा जलाचा उपयोग करतो (स्वाहा) सत्यभाषण (द्यावापृथिवी) भूमी व प्रकाशाच्या शुद्धीकरिता (उरो) अतिसुखदायक (अन्तरिक्ष) अंतरिक्षात राहणार्‍या पदार्थांना शुद्ध करतो (स्वाहा) तसेच ज्या उत्तम क्रियाविधी द्वारे व वेदवाणीद्वारे जो यज्ञ संपन्न होतो, त्या सर्व विधीप्रमाणे व वेदवाणीप्रमाणे (हविषा) सत्य श्रद्धेने व प्रेमाने (विधेम) आम्ही यज्ञ करतो, त्याप्रमाणे तुम्ही सर्व जण देखील करीत जा ॥7॥

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञाशिवाय जीवनात उत्साह, बुद्धी, सत्यवाणी, धर्माचरणाची रीती, तप, धर्मानुष्ठान आणि विद्येची वृद्धी या सर्व गोष्टींची प्राप्ती कदापी संभवत नाही. या सर्वांच्या प्राप्ती व अनुष्ठानाशिवाय कोणीही मनुष्य परमेश्‍वराची आराधना करण्यात समर्थ होऊ शकत नाही. म्हणून सर्व मनुष्यांनी यज्ञाचे अनुष्ठान करून स्वत:साठी सर्वांसाठी आनंद निर्माण केला पाहिजे ॥7॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We perform the yajna for resolution for good religious acts, for kindling fire, for the propagation of the Vedas, for the development of wisdom, for the enhancement of knowledge, for utilizing lightning for philanthropy, for following the laws of Dharma, for austerity, for digestive faculty, for learning and teaching, for eloquent and weighty speech, for worshipping rightly God, for purifying gastric juice, and for practising Truth. Ye, meritorious, all-beneficial divine waters, Ye Heaven and Earth and spacious air between them, we serve with Oblation.

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    Meaning

    This oblation is for lighting of the fire for the resolution and dedication of the mind to virtue and the voice of the Veda. This is for the development of intelligence and the study of science and electricity for the general good in the language of common understanding. This is for commitment to Dharma and the teaching and learning of solar energy and the original universal heat in the language of universal understanding. This is for knowledge and education and the study of nourishment and vital heat of the body with scientific language for all. We study the heavenly waters of great and universal good and peace, earth and heaven and the vast middle regions of the sky. And we study all these with oblations of appropriate samagri materials with the chants of the divine revelations of the Vedas.

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    Translation

    For having firm determination I dedicate to the fire of activity. (1) For having wisdom I dedicate to the fire of mental power. (2) For having consecration I dedicate to the fire of austerity. (3) For having speech I dedicate to the nourishing fire. (4) О divine, vast waters, beneficial to all, О heaven and earth, and extensive midspace, we offer our oblations to the Lord Supreme. Svaha. (5)

    Notes

    These formulas, with the oblatiuds which they accompany, are specially called audgrabhana, i. e. арув: because they raise the sacrifider to heavenz Akütyal, for firm determination. Vi$vnsambhuvah, beneficial to all. Brhaspataye, to the Lord Supreme.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কিমর্থঃ স য়জ্ঞোऽনুষ্ঠাতব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    কীজন্য সেই যজ্ঞের অনুষ্ঠান করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ । যেমন আমরা (আকূত্যৈ) উৎসাহ (প্রয়ুজে) উত্তম উত্তম ধর্মযুক্ত ক্রিয়াগুলি (অগ্নয়ে) অগ্নির প্রদীপন (স্বাহা) বেদবাণীর প্রচার (সরস্বত্যৈ) বিজ্ঞানযুক্তবাণী (পূষ্ণে) পুষ্টি করিতে, (বৃহস্পতয়ে) বৃহৎ অধিপতিসকল হইতে (অগ্নয়ে) বিদ্যুৎ বিদ্যার গ্রহণ (স্বাহা) পঠন-পাঠন দ্বারা বিদ্যা (মেধায়ৈ) বুদ্ধির উন্নতি (মনসে) বিজ্ঞানের বৃদ্ধি (অগ্নয়ে) কারণরূপ (স্বাহা) সত্যবাণীর প্রবৃত্তি (দীক্ষায়ৈ) ধর্মনিয়ম ও আচরণের রীতি (তপসে) প্রতাপ (অগ্নয়ে) জঠরাগ্নির শোধন (স্বাহা) উত্তম স্তুতিযুক্ত বাণী দ্বারা (বৃহতীঃ) মহাগুণ সহিত (বিশ্বশম্ভুবঃ) সকলের জন্য সুখ উৎপন্নকারী (দেবীঃ) দিব্য গুণসম্পন্ন (আপঃ) প্রাণ বা জল দ্বারা (স্বাহা) সত্য ভাষণ (দ্যাবাপৃথিবী) ভূমি ও প্রকাশের শুদ্ধির অর্থ (উরো) বহু সুখ সম্পাদক (অন্তরিক্ষ) অন্তরিক্ষে স্থিত পদার্থগুলিকে শুদ্ধ এবং যে (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া বা বেদবাণী দ্বারা যজ্ঞ সিদ্ধ হয় সেই সকলকে (হবিষা) সত্য ও প্রেমভাব দ্বারা (বিধেম) সিদ্ধ করি, সেইরূপ তোমরাও কর ॥ ৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যজ্ঞানুষ্ঠান বিনা উৎসাহ, বুদ্ধি, সত্যবাণী, ধর্মাচরণের রীতি, তপ, ধর্মের অনুষ্ঠান এবং বিদ্যার পুষ্টি সম্ভব হয় না এবং ইহা ব্যতীত কোনও মনুষ্য পরমেশ্বরের আরাধনা করিতেও সক্ষম হইতে পারে না । এই জন্য সকল মনুষ্যকে এই যজ্ঞের অনুষ্ঠান করিয়া সকলের জন্য সর্ব প্রকার আনন্দ প্রাপ্ত করা উচিত ॥ ৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আকূ॑ত্যৈ প্র॒য়ুজে॒ऽগ্নয়ে॒ স্বাহা॑ মে॒ধায়ৈ॒ মন॑সে॒ऽগ্নয়ে॒ স্বাহা॑ দী॒ক্ষায়ৈ॒ তপ॑সে॒ऽগ্নয়ে॒ স্বাহা॒ সর॑স্বত্যৈ পূ॒ষ্ণে᳕ऽগ্নয়ে॒ স্বাহা॑ । আপো॑ দেবীবৃর্হতীর্বিশ্বশংভুবো॒ দ্যাবা॑পৃথিবী॒ऽউরো॑ऽন্তরিক্ষ । বৃহ॒স্পত॑য়ে হ॒বিষা॑ বিধেম॒ স্বাহা॑ ॥ ৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আকূত্যৈ প্রভুজ ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । অগ্ন্যব্বৃহস্পতয়ো দেবতাঃ । পূর্বার্ধস্য পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । আপো দেবীরিত্যুত্তরস্যার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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