यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 17
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
142
ए॒षा ते॑ शुक्र त॒नूरे॒तद्वर्च॒स्तया॒ सम्भ॑व॒ भ्राज॑ङ्गच्छ। जूर॑सि धृ॒ता मन॑सा॒ जुष्टा॒ विष्ण॑वे॥१७॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा। ते॒। शु॒क्र॒। त॒नूः। एतत्। वर्चः॑। तया॑। सम्। भ॒व॒। भ्राज॑म्। ग॒च्छ॒। जूः। अ॒सि॒। धृ॒ता। मन॑सा। जुष्टा॑। विष्ण॑वे ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा ते शुक्र तनूरेतद्वर्चस्तया सम्भव भ्राजङ्गच्छ । जूरसि धृता मनसा जुष्टा विष्णवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषा। ते। शुक्र। तनूः। एतत्। वर्चः। तया। सम्। भव। भ्राजम्। गच्छ। जूः। असि। धृता। मनसा। जुष्टा। विष्णवे॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
एतान् सेवित्वा मनुष्येण कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे शुक्र विद्वंस्ते तव या विष्णवे तनूरस्ति, या त्वया धृता जुष्टा च तया जूः संस्त्वमेतद्वर्चः संभव सम्यग्भावय, भ्राजं गच्छ, मनसैतेन पुरुषार्थं गच्छ प्राप्नुहि॥१७॥
पदार्थः
(एषा) वक्ष्यमाणा (ते) तव (शुक्र) वीर्य्यवन् विद्वन्! (तनूः) शरीरम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (वर्चः) विज्ञानं तेजो वा (तया) तन्वा (सम्) सम्यगर्थे (भव) निष्पद्यस्व (भ्राजम्) प्रकाशम् (गच्छ) प्राप्नुहि (जूः) ज्ञानी वेगवान् वा (असि) भवसि (धृता) ध्रियते यया तया। अत्र कृतो बहुलम्। [अष्टा॰वा॰३.३.११३] इति क्विप् (मनसा) विज्ञानेन (जुष्टा) प्रीता सेविता वा (विष्णवे) परमेश्वराय यज्ञाय वा। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.४.९-११) व्याख्यातः॥१७॥
भावार्थः
मनुष्यैः परमेश्वराज्ञापालनेन विज्ञानयुक्तेन मनसा शरीरात्मारोग्यं वर्धित्वा यज्ञमनुष्ठाय विज्ञानयुक्तेन मनसा सुखयितव्यम्॥१७॥
विषयः
एतान्सेवित्वा मनुष्येण कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे शुक्र=विद्वन् ! वीर्यवन् विद्वन्! [एषा] वक्ष्यमाणा ते=तव या विष्णवे परमेश्वराय यज्ञाय वा तनूः शरीरम् [असि]=अस्ति (भवसि) या त्वया धृताध्रियते यया तयाजुष्टा प्रीता सेविता वा च तया तन्वा जूः ज्ञानी वेगवान् वा सँस्त्वमेतत् प्रत्यक्षंवर्चः विज्ञानं तेजो वा सम्भव=सम्यग्भावय सम्यक् निष्पद्यस्व, भ्राजं प्रकाशंगच्छ प्राप्नुहि, मनसा विज्ञानेन एतेनपुरुषार्थं गच्छ=प्राप्नुहि ।। ४ । १७ ।। [हे शुक्र=विद्वन्! [एषा] ते तव या विष्णवे तनूः[असि]=अस्ति.......तथा जूः संस्त्वमेतद्वर्चः सम्भव=सम्यग्भावय,........मनसैतेन पुरुषार्थं गच्छ=प्राप्नुहि]
पदार्थः
(एषा) वक्ष्यमाणा (ते) तव (शुक्र) वीर्य्यवन् विद्वन्! (तनूः) शरीरम् (एतत्) प्रत्यक्षम् (वर्च:) विज्ञानं तेजो वा (तथा) तन्वा (सम्) सम्यगर्थे (भव) निष्पद्यस्व (भ्राजम्) प्रकाशम् (गच्छ) प्राप्नुहि (जूः) ज्ञानी वेगवान् वा (असि) भवसि (धृता) ध्रियते यया तया। अत्र कृतो बहुलमिति क्विप् (मनसा) विज्ञानेन (जुष्टा) प्रीता सेविता वा (विष्णवे) परमेश्वराय यज्ञाय वा ॥ अयं मन्त्रः श० ३।२।४। ९-११ व्याख्यातः ।। १७ ।।
भावार्थः
मनुष्यैः परमेश्वराज्ञापालनेन विज्ञानयुक्तेन मनसा शरीरात्मारोग्यं वर्धित्वा, यज्ञमनुष्ठाय, विज्ञानयुक्तेन मनसा सुखयितव्यम् ।। ४ । १७ ।।
भावार्थ पदार्थः
विष्णवे=परमेश्वराज्ञापालनाय, यज्ञानुष्ठानाय वा । मनसा=विज्ञानयुक्तेन मनसा।
विशेषः
वत्सः। अग्नि:=ईश्वरः॥ आर्चीत्रिष्टुप् ।धैवतः।।
हिन्दी (4)
विषय
इनको सेवन करके मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (शुक्र) वीर्य्य पराक्रम वाले विद्वन् मनुष्य! (ते) तेरा जो (विष्णवे) परमेश्वर वा यज्ञ के लिये (तनूः) शरीर (असि) है, तैने जिसको (धृता) धारण किया और है (तया) उससे तू (जूः) ज्ञानी वा वेग वाला होके (एतत्) इस (वर्चः) विज्ञान और तेज को (सम्भव) अच्छे प्रकार सम्पन्न कर और उससे तू (भ्राजम्) प्रकाश को (गच्छ) प्राप्त हो और (मनसा) विज्ञान से पुरुषार्थ को प्राप्त हो॥१७॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर की आज्ञा का पालन करके विज्ञानयुक्त मन से शरीर वा आत्मा के आरोग्यपन को बढ़ा कर यज्ञ का अनुष्ठान करके सुखी रहें॥१७॥
विषय
शरीर क्यों ? प्रभु-प्राप्ति के लिए
पदार्थ
१. प्रभु वत्स को सम्बोधित करते हैं कि हे ( शुक्र ) = दीप्त ज्ञानवाले [ शुच् दीप्तौ ], शुचि मनवाले अथवा [ शुक् गतौ ] क्रियाशील जीव! ( एषा ) = यह ( ते ) = तेरे लिए ( तनूः ) = शरीर है [ तन् विस्तारे ] सब विस्तृत शक्तियों से सम्पन्न यह शरीर तुझे दिया गया है। इस शरीर में ( एतत् वर्चः ) = यह शक्ति है—‘सोम’—वीर्यशक्ति तुझे प्राप्त कराई गई है। ( तया ) = इस शक्ति से ( सम्भव ) = तुझे उत्तम सन्तान को जन्म देना है और ( भ्राजं गच्छ ) = ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करना है। सोमशक्ति के मुख्यरूप से दो ही प्रयोजन हैं—सन्तान-निर्माण तथा ज्ञानाङ्गिन का दीपन अथवा बुद्धि को तीव्र करना।
२. ( जूः असि ) = तू ‘जव’ = वेगवाला है। स्फूर्ति के साथ सब कार्यों को करनेवाला है। तूने उस-उस समय पर उस-उस कार्यभार के जुए [ yoke ] को ( मनसा धृता ) = मन से धारण किया है। तूने कर्त्तव्य समझकर उन सब कर्मों को किया है, तुझे ये बोझरूप नहीं लगे। तूने इस कार्यभार का ( विष्णवे जुष्टा ) = व्यापक उन्नति के लिए ही सेवन किया है। कर्त्तव्यबुद्धि से इन नियत श्रेष्ठतम कर्मों को करने से तेरा शरीर, मन व बुद्धि सभी उन्नत हुए हैं, सभी सबल बने हैं।
३. वस्तुतः शरीर में वर्चस् की रक्षा करने पर ये परिणाम स्वाभाविक हैं कि मनुष्य स्वस्थ शरीर हो, निर्मल मनवाला बने और तीव्र बुद्धिवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ — हम वीर्य की रक्षा के द्वारा विविध प्रकार की उन्नति करें और इस प्रकार व्यापक उन्नति करनेवाले ‘विष्णु’ बनें। विष्णु बनकर ही हम उस ‘विष्णु’ को प्राप्त करेंगे [ विष्णुर्भूत्वा भजेद् विष्णुम्। ]
विषय
मन और वाणी शक्ति से ईश्वरोपासना ।
भावार्थ
हे (शुक्र) शुचिमान्, ज्योतिष्मान्, वीर्यवान् पुरुष ! (एषा ते तनूः ) यह तेरा शरीर है । ( एतद् वर्चः ) यह तेज है । ( तया सम्भव ) इस देह से तू मिल कर एक होजा ( भ्राजं गच्छ ) प्रकाशमानू सोम परमेश्वर या प्राण, जीवन को प्राप्त हो। हे वाणी या चितिशक्ति ! तू. ( जू: असि ) 'जू' सबके सेवन करने योग्य, सबके प्रेम को उत्पन्न करने वाली है। तू ( मनसा) मन, मनन और विज्ञान से ( धृता ) धारण की गई उसके वशीभूत रह कर ( विष्णवे ) यज्ञ सम्पादन करने या व्यापक परमात्मा के भजने में ( जुष्टा ) लग जाती है। जूरित्येतद् ह वा अस्याः वाचः एकं नाम । मनसा वा इयं वाग्धृता मनो वा इदं पुरस्ताद्वाच: इत्थं वेद, मा एतदवादीः, इत्यलग्लमिव वै वाग् वेदद् यन्मनो न स्यात् ॥ शत० ३ । २ । ४ । ११ ॥ ' जू' यह वाणी का एक नाम है। मन इस वाणी को वश रखता है । वाणी बोलने के पूर्व मन विचार करता है। ऐसा बोल, ऐसा मत बोल । यदि मन न हो तो वाणी गढ़बढ बोल जाती है ॥
महर्षि दयानन्द के विचार से - हे शुक्र ! विद्वन् ! तेरी जो यह विष्णुः यज्ञ या परमेश्वर की उपासना के लिये जो यह तेरा शरीर है जो तू ने धारण किया और सेवन किया है उससे तू (जू ) वेगवान् होकर इस तेज को धारण कर प्रकाश या तेज को धारण कर और विज्ञान से पुरुषार्थ को प्राप्त कर ॥
टिप्पणी
१७- अग्निर्देवता । द० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यमाज्यं वाक् च, अग्निर्वा देवता । आर्ची त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥
विषय
इनको सेवन करके मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (शुक्र) वीर्य वाले विद्वान् ! [एषा] यह (ते) तेरा जो (विष्णवे) परमेश्वर प्राप्ति वा यज्ञानुष्ठान के लिए (तनूः) शरीर [असि] है, जिसे तू (धृता) धारण और (जुष्टा) प्रेमपूर्वक सेवन करता है (तया) उस शरीर से (जूः) ज्ञानी प्रौर वेगवाला होकर (एतत्) इस (वर्च:) विज्ञान वा तेज को (सम्भव) सिद्ध कर तथा (भ्राजम्) प्रकाश को (गच्छ) प्राप्त कर (मनसा) इस विज्ञान से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ को (गच्छ) प्राप्त कर ।। ४ । १७ ।।
भावार्थ
सब मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा का पालन करके विज्ञान युक्त मन के द्वारा शरीर और आत्मा के आरोग्य को बढ़ाकर, यज्ञानुष्ठान करके, विज्ञानयुक्त मन से सदा सुखी रहें ।। ४ । १७ ।।
प्रमाणार्थ
(धृता) यहाँ 'कृतो बहुलम्' [अ० ३ । ३ । १३] वार्त्तिक से 'क्विप्' प्रत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । ४ । ९-११) में की गई है ।। ४ । १७ ।।
भाष्यसार
अग्नि आदि का सेवन करके मनुष्य कैसे हों--सब मनुष्यों का शरीर परमेश्वर ने अपनी आज्ञा का पालन करने के लिये एवं यज्ञानुष्ठान के लिये बनाया है। विज्ञान-युक्त मन से शरीर और आत्मा के आरोग्य को बढ़ावें। इस शरीर को प्रीतिपूर्वक धारण करके, एवं इसका सेवन (सदुपयोग) करके ज्ञानी बनें, बलवान् बनें, विज्ञान और तेज को सिद्ध करें, विद्या-प्रकाश को प्राप्त करें, विज्ञान युक्त मन से पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप सुखों को प्राप्त करें।। ४ । १७ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करून विज्ञानयुक्त मनाने शरीर व आत्म्याचे आरोग्य वाढवावे आणि यज्ञाचे अनुष्ठान करून सुखी व्हावे.
विषय
missing
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (शुक्र) शौर्य-पराक्रमाने संपन्न अशा हे विद्वान महोदय (ते) तू (विष्णवे) परमेश्वराच्या उपासनेसाठी किंवा यज्ञासाठी ज्या शरीराला (धृता) धारण केले आहेस, त्या शरिराद्वारे (जूः) ज्ञानवान व वेगवान होऊन तू (एतत्) या (वर्चः) विज्ञान म्हणजे विशेष ज्ञान व तेज यांना (सम्भव) सिद्ध कर. हे (तनूः) शरीर या कारणासाठीच आहे. त्यामुळे तू या शरीराने (भ्राजम्) प्रकाश वा कीर्ती (गच्छ) प्राप्त कर आणि त्या (धृता) धारण केलेल्या मिळविलेल्या यशाला (मनसा) ज्ञान व पुरूषार्था द्वारे ठेव सुरक्षित ठेव (किर्तीला अक्षुण्ण राहू दे) ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करीत विज्ञानयुक्त मनाने शारीरिक व आत्मिक आरोग्य वाढवावे व यज्ञाचे अनुष्ठान करून सुखी व्हावे. मनुष्यांसाठी असे आचरणच औतिच्यपूर्ण आहे. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, this body thou hast got and reared is for the meditation of God and sacrifice. Through this body, being vigorous, gain splendour and lustre. Be active through knowledge.
Meaning
O man, virile and brave, this body is yours, borne with love and service and maintained for Vishnu, sustainer of the world, and for yajna, noble action. It is your honour and glory. Be with it, act with mind and soul and achieve the glory of life. You are fast in action and vibrant in spirit. Act fast with your mind and soul and achieve the brilliance of knowledge and wonder of success in enterprise.
Translation
O brilliant one, this is your embodiment. This is your lustre. Combine with it and glow with splendour. (1) You are the life upheld by mind and agreeable to sacrifice. (2)
Notes
Varcah, lustre. Bhrajam gaccha, glow bright. Jüh, जीवयति इति जू: , the life.
बंगाली (1)
विषय
এতান্ সেবিত্বা মনুষ্যেণ কথং ভবিতব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
ইহা সেবন করিয়া মনুষ্যদিগকে কেমন ব্যবহার করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (শুক্র) বীর্য্য পরাক্রম সম্পন্ন বিদ্বান্ পুরুষ । (তে) তোমার যে (বিষ্ণবে) পরমেশ্বর বা যজ্ঞ হেতু তুমি যাহাকে (ধৃতা) ধারণ করিয়াছ (তয়া) উহা দ্বারা তুমি (জুঃ) জ্ঞানী বা বেগযুক্ত হইয়া (এতৎ) এই (বর্চঃ) বিজ্ঞান ও তেজযুক্ত (সম্ভর) সম্পন্ন হইয়া সম্যক্ প্রকার বিজ্ঞান করিবার জন্য (তনুঃ) যে শরীর (অসি) আছে উহা দ্বারা তুমি (ভ্রাজস্) প্রকাশ (গচ্ছ) প্রাপ্ত ও (ধৃতা) ধারণ কৃত (মনসা) বিজ্ঞান দ্বারা পুরুষার্থ প্রাপ্ত হও ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, পরমেশ্বরের আজ্ঞা পালন করিয়া বিজ্ঞানযুক্ত মন দ্বারা শরীর বা আত্মার আরোগ্য বৃদ্ধি করিয়া যজ্ঞের অনুষ্ঠান করিয়া সুখী থাকে ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
এ॒ষা তে॑ শুক্র ত॒নূরে॒তদ্বর্চ॒স্তয়া॒ সং ভ॑ব॒ ভ্রাজং॑ গচ্ছ ।
জূর॑সি ধৃ॒তা মন॑সা॒ জুষ্টা॒ বিষ্ণ॑বে ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
এষা ত ইত্যস্য বৎস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্চী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃস্বরঃ ॥
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