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यजुर्वेद अध्याय - 4

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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 14
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    180

    अग्ने॒ त्वꣳ सु जा॑गृहि व॒यꣳ सु म॑न्दिषीमहि। रक्षा॑ णो॒ऽअप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ नः॒ पुन॑स्कृधि॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। त्वम्। सु। जा॒गृ॒हि॒। व॒यम्। सु। म॒न्दि॒षी॒म॒हि॒। रक्ष॑। नः॒। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। प्र॒बुध॒ इति॑ प्र॒ऽबुधे॑। न॒। पु॒न॒रिति॒ पुनः॑। कृ॒धि॒ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वँ सु जागृहि वयँ सु मन्दिषीमहि । रक्षा णो अप्रयुच्छन्प्रबुधे नः पुनस्कृधि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। त्वम्। सु। जागृहि। वयम्। सु। मन्दिषीमहि। रक्ष। नः। अप्रयुच्छन्नित्यप्रऽयुच्छन्। प्रबुध इति प्रऽबुधे। न। पुनरिति पुनः। कृधि॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    अग्ने त्वं योऽग्निः प्रबुधे नोऽस्मान् सुजागृहि सुष्ठु जागरयति, येन वयं सुमन्दिषीमहि, योऽप्रयुच्छन्नोस्मान् रक्ष रक्षति, प्रयुच्छतश्च हिनस्ति, यो नोऽस्मान् पुनः पुनरेवं कृधि करोति, सोऽस्माभिर्युक्त्या सम्यक् सेवनीयः॥१४॥

    पदार्थः

    (अग्ने) अयमग्निः (त्वम्) यः (सु) श्रैष्ठ्ये (जागृहि) जागर्त्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (वयम्) कर्मानुष्ठातारो नित्यं जागरिताः (सु) शोभने (मन्दिषीमहि) शयीमहि (रक्ष) रक्षति। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः। [अष्टा॰६.३.१३५] इति दीर्घः (नः) अस्मान् (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (प्रबुधे) जागरिते (नः) अस्मान् (पुनः) (कृधि) करोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.२.२२) व्याख्यातः॥१४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्योऽग्निः शयनजागरणजीवनमरणहेतुरस्ति स युक्त्या संप्रयोक्तव्यः॥१४॥

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    विषयः

    पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते ।

    सपदार्थान्वयः

    अग्नेअयमग्निः त्वं=योऽग्निः प्रबुधे जागरिते नः=अस्मान् सुजागृहिसुष्ठु जागरयति जागर्ति। येन वयं कर्मानुष्ठातारो नित्यं जागरिताः सुमन्दिषीमहि शोभनं शयीमहि योऽअप्रयुच्छन् प्रमादमकुर्वन् नः=अस्मान् रक्ष=रक्षति, प्रयुच्छँश्च हिनस्ति यो नः=अस्मान् पुनः पुनरेवं कृधि=करोति सोऽस्माभिर्युक्त्या सम्यक्सेवनीयः ।। ४ । १४ ।। [अग्ने त्वं=योऽग्निः प्रबुधे नः=अस्मान् सुजागृहि=सुष्ठु जागरयति, येन वयं सुमन्दिषीमहि, योऽप्रयुच्छन् नः=अस्मान् रक्ष=रक्षति, प्रयुच्छँश्च हिनस्ति........सोऽस्माभिर्युक्त्वा सम्यक् सेवनीय:]

    पदार्थः

    (अग्ने) अयमग्निः (त्वम्) य: (सु) श्रैष्ठ्ये (जागृहि) जागर्ति । अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (वयम्) कर्मानुष्ठातारो नित्यं जागरिताः (सु) शोभने (मन्दिषीमहि) शयीमहि (रक्ष) रक्षति। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (नः) अस्मान् (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (प्रबुधे) जागरिते (नः) अस्मान् (पुनः) (कृधि) करोति । अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च ॥ अयं मन्त्रः शत० ३ ।२ ।२ ।२२ व्याख्यातः॥ १४ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्योऽग्निः शयन-जागरण-जीवन-मरण हेतुरस्ति, स युक्त्वा संप्रयोक्तव्यः ।। ४ । १४ ।।

    विशेषः

    अङ्गिरसः।अग्निः=भौतिकः। स्वराडार्ष्युष्णिक् ऋषभः ।।

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (अग्ने) जो अग्नि (प्रबुधे) जगने के समय (सुजागृहि) अच्छे प्रकार जगाता वा जिससे (वयम्) जगत् के कर्मानुष्ठान करने वाले हम लोग (सुमन्दिषीमहि) आनन्दपूर्वक सोते हैं, जो (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित होके (नः) प्रमादरहित हम लोगों की (रक्ष) रक्षा तथा प्रमादसहितों को नष्ट करता और जो (नः) हम लोगों के साथ (पुनः) बार-बार इसी प्रकार (कृधि) व्यवहार करता है, उसको युक्ति के साथ सब मनुष्यों को सेवन करना चाहिये॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जो अग्नि सोने, जागने, जीने तथा मरने का हेतु है, उसका युक्ति से सेवन करना चाहिये॥१४॥

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    विषय

    मैं सानन्द सोऊँ—प्रभु जागें

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में आङ्गिरस ने निश्चय किया कि ‘पृथिवीम् आविशत’ हे सोमकणो! तुम मेरे शरीर में ही व्याप्त होओ। दिन में तो यह आङ्गिरस अपने निश्चय को अपने संकल्पबल व प्रयत्न से कार्यरूप में ले-आता है। रात्रि में भी वह अपनी शक्ति की रक्षा कर सके, अतः वह प्रभु से प्रार्थना करता है कि २. हे ( अग्ने ) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( त्वं सुजागृहि ) = आप उत्तमता से खूब जागरित रहिए। ( वयम् ) = हम आपकी बनाई हुई इस शरीर की व्यवस्था के अनुसार, ( सुमन्दिषीमहि ) = दिनभर के श्रम के बाद आनन्दपूर्वक [ सु ] सोते हैं। हम जब इस रमयित्री रात्रि में निन्द्रा का आनन्द लें, उस समय आप जागरित हों, अर्थात् सोते समय भी मेरी प्रसुप्त चेतना में आपकी भावना जागरित रहे। हे प्रभो! ( अप्रयुच्छन् ) = सब प्रकार के प्रमाद से रहित होकर ( नः रक्ष ) = आप हमारी रक्षा कीजिए, अर्थात् हमारी निद्रा का भी कोई क्षण इस प्रकार के प्रमादवाला न हो जाए कि हम अपनी शक्ति को नष्ट कर बैठें। 

    ३. निद्रा की समाप्ति पर आप ( नः ) = हमें ( पुनः ) = फिर ( प्रबुधे ) = प्रकृष्ट ज्ञान के लिए ( कृधि ) = कीजिए। रात्रि में स्वप्न में भी हम आपका ही स्मरण व दर्शन करें और दिन तो हमारा ज्ञानवृद्धि में बीते ही।

    भावार्थ

    भावार्थ — रात्रि में हम प्रभु का स्मरण करनेवाले हों, स्वप्न में भी हमें प्रभु-दर्शन ही हो। हम दिन को ज्ञानप्राप्ति में विनियुक्त करें।

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    विषय

    राजा को सावधान होने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) शत्रुसंतापक अग्ने ! राजन् ! ( त्वं ) तू (सु) भली प्रकार ( जागृहि ) जाग, प्रमाद रहित रह कर पहरा दे । ( वयं ) हम (सु) अच्छी प्रकार निश्चिन्त होकर ( मन्दिषीमहि ) सोवें । ( नः ) हमारी ( अप्रयुच्छन् ) प्रमाद रहित होकर ( रक्तः ) रक्षा कर ( पुनः ) और फिर हमें (प्रबुधे ) जाग़ृत दशा में (कृधि) करदे, जगाये ॥ 
    ईश्वर पक्ष में - हे ईश्वर तू बराबर जागता है, हम अविद्या में सोते हैं । तू बेचूक हमारी रक्षा कर, हमें पुनः प्रबोध, सत्य ज्ञान के लिये चैतन्य कर । प्राण के पक्ष में- हम समस्त इन्द्रियाँ सोती हैं, प्राण जागता है वह हमारी रक्षा करता है, पुनः निद्रा के बाद हमें चैतन्य करता है ॥ शत० ३।२।२ । २२ ।। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निदेवता । स्वराडार्च्युष्णिक् । ऋषभः ॥

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    विषय

    फिर अग्नि के गुणों का उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    (अग्ने) ( त्वम् ) यह अग्नि (यः) जो (प्रबुधे) जागने के समय (नः ) हमें (सुजागृहि ) अच्छे प्रकार जगाता है जिससे (वयम्) कर्म करने वाले हम लोग प्रतिदिन जागकर (सुमन्दिषीमहि ) आनन्दपूर्वक सोते हैं और जो (अप्रयुच्छन्) प्रमाद न करता हुआ (नः) हमारी (रक्ष) रक्षा करता है तथा जो प्रमाद करता है उसे नष्ट करता है और जो (नः) हमें बार-बार ऐसा (कृषि) बनाता है उसका हम युक्ति से अच्छे प्रकार सेवन करें ।। ४ । १४ ।।

    भावार्थ

    जो अग्नि शयन, जागरण, जीवन और मरण का हेतु है उसका सब मनुष्य युक्ति से प्रयोग करें ॥ ४ । १४ ।।

    प्रमाणार्थ

    जागृहि) जागर्ति। यहाँ पुरुष व्यत्यय और लट् अर्थ में लोट् लकार है । (रक्षा) रक्ष। यहाँ द्व्यचोऽतस्तिङ:' [अ० ६ । ३ । १३३] सूत्र से दीर्घ है। (कृधि) करोति । यहाँ पुरुष-व्यत्यय है तथा लट् अर्थ में लोट् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । २ । २२) में की गई है ।। ४ । १४ ।।

    भाष्यसार

    अग्नि के गुण-- यह भौतिक अग्नि (सूर्य) जब जागने का समय होता है तब हमें जगा देता है। अग्नि के प्रताप से ही सब मनुष्य जाग कर कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, तथा कर्मानुष्ठान से श्रान्त होकर इस अग्नि की कृपा से सूर्यास्त के पश्चात् आनन्द से सो जाते हैं। जब मनुष्य प्रमादरहित होकर इसका युक्तिपूर्वक सेवन करते हैं तब यह अग्नि उनकी रक्षा करता है, जीवन का हेतु बनता है और जब प्रमादी होकर इसका उपयोग नहीं जानते तब यह हिंसा करता है, मृत्यु का हेतु बनता है। अतः सब मनुष्य इसका युक्तिपूर्वक प्रयोग करें ।। ४ । १४ ।।

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1158 
    ओ३म् अग्ने॒ त्वᳪ सु जा॑गृहि व॒यᳪ सु म॑न्दिषीमहि ।
    रक्षा॑ णो॒ अप्र॑युच्छन् प्र॒बुधे॑ न॒: पुन॑स्कृधि ।। १४ ।।
    यजुर्वेद 4/14

    रात्रि माँ बन सुलाये
    प्रातः काल जगाए
    उठते उठते जप करें तेरा
    नव सङ्कल्प जगायें
    रात्रि माँ बन सुलाये

    हे ज्ञान-प्रकाश! हे परमपिता!
    तू जाग के पहरा दे
    अद्वितीय रक्षण 
    प्रतिक्षण देकर 
    हमको निश्चिंत कराएँ 
    रात्रि माँ बन सुलाये
    प्रातः काल जगाए
    उठते उठते जप करें तेरा
    नव सङ्कल्प जगायें
    रात्रि माँ बन सुलाये

    ना चिन्ता करूँ 
    ना दु:खी रहूँ 
    जब गोद तेरी 
    पा जाऊँ 
    मूँद कर आँखें 
    वाणी मौन रहे
    इन्द्रियाँ सुखासन पाएँ 
    रात्रि माँ बन सुलाये
    प्रातः काल जगाए
    उठते उठते जप करें तेरा
    नव सङ्कल्प जगायें
    रात्रि माँ बन सुलाये

    परमेश्वर की
    सुख-गोद में
    जाते ही 
    सो जाऊँ 
    दु:ख दुर्भाग्य का
    ना है स्थान वहाँ 
    सुख-आनन्द
    जहाँ सुहाये
    रात्रि माँ बन सुलाये
    प्रातः काल जगाए
    उठते उठते जप करें तेरा
    नव सङ्कल्प जगायें
    रात्रि माँ बन सुलाये

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--  ९.१०.२०२१  १९.१५ सायं

    राग :- किरवानी
    गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, 
    यह राग कर्नाटक संगीत से लिया हुआ है
    ताल का कहरवा 8 मात्रा

    शीर्षक :- तू अच्छी तरह जाग 🎧 भजन 435 वां👏🏽
    *तर्ज :- *
    00142-742 

    सुखासन = सुख की मुद्रा का आसन
    सुहाये = अच्छा लगे (मन को)
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    प्राक्कथन        
    प्रिय श्रोताओ, परमात्मा के इस यजुर्वेद मन्त्र के भावों का आश्रय लेकर रात्रि को सोते समय इस तरह लगाकर सोएं कि यह मन्त्र बार-बार बजे, और इन भावों का अपने मन में ध्यान रखते हुए, सुनते रहें तो प्रगाढ़ नींद आ सकती है। आप आनन्द दायक परमेश्वर की गोद में रहें और आपको नींद ना आए,यह कैसे हो सकता है?
    एक और मन्त्र है, जिस मन्त्र- गीत का मनमोहक अनुवाद माननीय पं. सत्यकाम विद्यालंकार जी ने किया है।
    (रात्रि मातरुषसे न: परिदेही) "रात्रि मां ममतामयी आ"🙌

               तू अच्छी तरह जाग

    हे ज्ञान प्रकाश के अनुपम स्रोत परमपिता परमेश्वर! तू भली-भान्ति जाग और हमारा पहरा दे, हम तेरे अद्वितीय संरक्षण में निश्चिंत होकर भली-भान्ति आनन्द पूर्वक सोते हैं। हे परम रक्षक प्यारे प्रभु! तू प्रमाद -रहित होकर हम सबकी भली-भांति सब ओर से रक्षा कर। और जब प्रातः काल 4:00 का समय हो जाए तो हमारे संकल्प के अनुसार पुनः हमें प्रबोध में(यथार्थ ज्ञान में) ला, अर्थात् पुनः हमें जगा--पुनः हमें प्रबुद्ध कर(सचेत कर) पुन: हमें उद्बुद्ध(जगाया हुआ) कर।
    यह प्रार्थना करके मनुष्य बाहर- भीतर से अर्थात् वाणी और मन से मौन होकर, बाहर- भीतर से आंख मूंदकर, बाहर- भीतर से कान बन्द कर, बाहर भीतर से सब कर्मेंद्रियों के व्यापार बन्द करके सर्वथा निश्चिंत होकर यह विचार कर आनन्द पूर्वक शयन करे कि"मैं आनन्द के अनुपम धाम उस परमपिता परमेश्वर की गोद में जा रहा हूं, जहां किसी भी प्रकार का कोई दु:ख-दुर्भाग्य नहीं, किसी भी प्रकार का कोई कष्ट-क्लेष नहीं, किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति- विपत्ति नहीं, वहां तो बस सुख ही सुख है, आनन्द ही आनन्द है, तृप्ति ही तृप्ति है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो अग्नी झोपणे, जागणे, जगणे, मरणे यांचे कारण आहे त्याचे माणसांनी युक्तिपूर्वक सेवन केले पाहिजे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात अग्नीच्या गुणांचे कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (अग्ने) हा अग्नी (प्रबुधे) जागृत अवस्थेत श्रेष्ठ कर्म करण्यासाठी आम्हांना चांगल्या प्रकारे जागवतो (चैतन्यपूर्ण ठेवतो) व या अग्नीमुळेच (वयम्) सांसारिक नित्यकर्मादी करणारे आम्ही (सुमन्दिषीमहि) सुखपूर्वक निश्चिंतपणे झोपतो. हा अग्नी (अप्रयुच्छान्) स्वतः प्रमादरहित असल्यामुळे (नः) आम्ही उद्यमशील पुरूषार्थी जनांना प्रमादरहित ठेवतो, (कार्यासाठी उत्साह देतो)(नः) आमच्या बरोबर (पुनः) वारंवार असेच साहाय्यकारी व्यवहार करतो (नेहमी व निरंतर आम्हां उत्साह आणि रक्षण देतो) अशा या अग्नीचा सर्वांनी तंत्र, रीती व युक्तीने उपयोग करावा, हे सर्वांसाठी उचित आहे ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो अग्नी माणसाच्या निद्रा जागरण, जीवन, मरण या सर्वांचे कारण आहे, त्याचा योग्य रीतीने व विचारपूर्वक उपयोग घेतला पाहिजे ॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The fire, which keeps us active in our wakeful state, makes us take joy in most refreshing sleep. It protects us free from idleness and casts away the idlers. We should use this fire properly which deals with us again and again.

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    Meaning

    Agni is universal, ever awake. It is awake while we are awake. It is awake while we are asleep. Never relenting, it protects and preserves us. And after our sleep it wakes us up again.

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    Translation

    O adorable Lord, keep well awake so that we may have a pleasant sleep. Guard us without negligence. Prepare us for waking up again. (1)

    Notes

    Aprayucchan, without negligence, ever-alert.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরগ্নিগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
    পুনরায় অগ্নির গুণসকলের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (অগ্নে) যে অগ্নি (প্রবুধে) জাগিবার সময় (সুজাগৃহি) সম্যক্ প্রকার জাগ্রত করে বা যদ্দ্বারা (বয়ম্) জগতের কর্মানুষ্ঠানকারী আমরা (সুমন্দিষী মহি) আনন্দপূর্বক শয়ন করি । যাহা (অপ্রয়ুচ্ছন্) প্রমাদরহিত হইয়া (নঃ) প্রমাদ রহিত আমাদিগের (রক্ষ) রক্ষা তথা প্রমাদকারীদিগের ধ্বংস করে এবং যাহা (নঃ) আমাদিগের সহ (পুনঃ) বার বার এবম্বিধ (কৃধি) ব্যবহার করে, তাহার যুক্তি সহ সকল মনুষ্যকে সেবন করা উচিত ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের যে অগ্নি শয়ন করিবার, জাগৃত হইবার, বাঁচিবার তথা মরণের হেতু তাহা যুক্তি পূর্বক সেবন করা উচিত ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॒ ত্বꣳ সু জা॑গৃহি ব॒য়ꣳ সু ম॑ন্দিষীমহি ।
    রক্ষা॑ ণো॒ऽঅপ্র॑য়ুচ্ছন্ প্র॒বুধে॑ নঃ॒ পুন॑স্কৃধি ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নে ত্বমিত্যস্যাঙ্গিরস ঋষয়ঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাডার্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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