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यजुर्वेद अध्याय - 4

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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - मेघो देवता छन्दः - स्वराट् अनुष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    म॒हीनां॒ पयो॑ऽसि वर्चो॒दाऽअ॑सि॒ वर्चो॑ मे देहि। वृ॒त्रस्या॑सि क॒नीन॑कश्चक्षु॒र्दाऽअ॑सि॒ चक्षु॑र्मे देहि॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हीनाम्। पयः॑। अ॒सि॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। अ॒सि॒। वर्चः॑। मे॒। दे॒हि॒। वृ॒त्रस्य॑। अ॒सि॒। क॒नीन॑कः। च॒क्षु॒र्दा इति॑ चक्षुः॒दाः। अ॒सि॒। चक्षुः॑। मे॒। दे॒हि॒ ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महीनांम्पयोसि वर्चादा असि वर्चा मे देहि वृत्रस्यासि कनीनकश्चक्षुर्दा असि चक्षुर्मे देहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महीनाम्। पयः। असि। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। असि। वर्चः। मे। देहि। वृत्रस्य। असि। कनीनकः। चक्षुर्दा इति चक्षुःदाः। असि। चक्षुः। मे। देहि॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरस्य जलसमूहजन्यस्य मेघस्य किं निमित्तमस्तीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यो महीनां पयोऽ(स्य)स्ति, वर्चोदा अ(स्य)स्ति, यो मे मह्यं वर्चोदा ददाति, वृत्रस्य कनीनकोऽस्ति, चक्षुर्दा अस्ति, स सूर्य्यो मे मह्यं चक्षुर्ददाति॥३॥

    पदार्थः

    (महीनाम्) पृथिवीनाम्, महीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰१.१) (पयः) रसनिमित्तम् (असि) अस्ति, अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (वर्चोदाः) दीप्तिं ददातीति (असि) अस्ति (वर्चः) प्रकाशम् (मे) मह्यम् (देहि) ददाति (वृत्रस्य) मेघस्य (असि) अस्ति (कनीनकः) यः कनति दीपयतीति स एव कनीनकः, अत्र कनीधातोर्बाहुलकादौणादिक ईनप्रत्ययस्ततः स्वार्थे कन् (चक्षुर्दाः) चष्टेऽनेन तद्ददातीति (असि) अस्ति (चक्षुः) नेत्रव्यवहारम् (मे) मह्यम् (देहि) ददाति। अयं मन्त्रः (शत॰ (३.१.३.९-१५) व्याख्यातः॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्नहि सूर्य्यस्य प्रकाशेन विना वृष्ट्युत्पत्तिश्चक्षुर्व्यवहारश्च सिध्यति। येनायं सूर्य्यो निर्मितस्तस्मा ईश्वराय कोटिशो धन्यवादा देया इति वेद्यम्॥३॥

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    सपदार्थान्वयः

    यो महीनां पृथिवीनां पयः रसनिमित्तम् असि=अस्ति, वर्चोदा:दीप्तिं ददातीति, असि=अस्ति, यो मे=मह्यं वर्चः प्रकाशं [देहि]=ददाति, वृत्रस्य मेघस्य कनीनकः यः कनति=दीपयति इति स एव कनीनक: [असि]=अस्ति, चक्षुर्दा: चष्टेऽनेन तद् ददातीति, [असि]=अस्ति स सूर्यो मे=मह्यं चक्षुः नेत्रव्यवहारं[देहि]=ददाति॥ ४ । ३॥ [यो.......वृत्रस्य कनीनकः [असि]=अस्ति, चक्षुर्दा: [असि]=अस्ति, स सूर्यो मे=मह्यं चक्षुः [देहि ]=ददाति]

    पदार्थः

    (महीनाम्) पृथिवीनाम् । महीति पृथिवीनामसु पठितम् ॥ निघं० १ ।१ ॥ (पयः) रसनिमित्तम् (असि) अस्ति । अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (वर्चोदाः) दीप्तिं ददातीति (असि) अस्ति (वर्चः) प्रकाशम् (मे) मह्यम् (देहि) ददाति (वृत्रस्य) मेघस्य (असि) अस्ति (कनीनकः) यः कनति=दीपयतीति स एव कनीनकः। अत्र कनीधातोर्बाहुलकादौणादिक ईनप्रत्ययस्ततः स्वार्थे कन् (चक्षुर्दा:) चष्टेऽनेन तद्ददातीति (असि) अस्ति (चक्षुः) नेत्रव्यवहारम् (मे) मह्यम् ( देहि) ददाति ॥ अयं मंत्र श० ३ ।१ ।३। ९-१५ व्याख्यातः॥ ३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः--नहि सूर्यस्य प्रकाशेन विना वृष्ट्युत्पत्तिश्चक्षुर्व्यवहारश्च सिध्यति, येनायं सूर्यो निर्मितस्तस्मा ईश्वराय कोटिशो धन्यवादादेया इति वेद्यम् ॥ ४ । ३ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    वृत्रस्य कनीनकः=वृष्ट्युत्पादकः। चक्षुर्दाः=चक्षुर्व्यवहारसाधकः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इस जलसमूह से उत्पन्न हुए मेघ का क्या निमित्त है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो यह (महीनाम्) पृथिवी आदि के (पयः) जल रस का निमित्त (असि) है, (वर्चोदाः) दीप्ति का देने वाला (असि) है, जो (मे) मेरे लिये (वर्चः) प्रकाश को (देहि) देता है, जो (वृत्रस्य) मेघ का (कनीनकः) प्रकाश करने वाला (असि) है, वा (चक्षुर्दाः) नेत्र के व्यवहार को सिद्ध करने वाला (असि) है, वह सूर्य्य (मे) मेरे लिये (चक्षुः) नेत्रों के व्यवहार को (देहि) देता है॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जानना उचित है कि जिस सूर्य्य के प्रकाश के विना वर्षा की उत्पत्ति वा नेत्रों का व्यवहार सिद्ध कभी नहीं होता, जिसने इस सूर्य्यलोक को रचा है, उस परमेश्वर को कोटि असंख्यात धन्यवाद देते रहें॥३॥

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    विषय

    मेघ = मेघस्थ जल

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में जल का वर्णन था। प्रस्तुत मन्त्र में सर्वोत्तम जल अर्थात् मेघस्थ जल का उल्लेख करते हैं। यह मेघ क्या है। ( महीनाम् ) = इन पृथिवियों का [ पृथिवी-भागों का ] ( पयः असि ) = जल है। यह पृथिवीस्थ जल ही सूर्य किरणों व अन्य भौतिक कारणों से वाष्पीभूत होकर ऊपर चला गया है। एवं, यह distilled water ही है। अत्यन्त शुद्ध व अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद। इसे देवताओं के मद्य के रूप में कहा गया है—‘पिबेदमरवारुणीम्’। यह जल क्या है ? यह तो ( महीनां पयः असि ) = गौवों का दूध है। इसमें इतनी शक्ति है जितनी गोदुग्ध में। ( वर्चोदा ) = यह वर्चस् को देनेवाला है। ( वर्चो मे देहि ) = हे मेघजल! तू मुझे वर्चस् दे। ‘वर्चस्’ वह शक्ति है जो रोगों का मुकाबला करती है। रोगकृमियों के नाश के द्वारा यह मनुष्य को स्वस्थ बनाती है। 

    २. ‘वृत्र’ शब्द आवरण का वाचक है। मेघ भी वृत्र है, क्योंकि सूर्य पर एक आवरण के रूप में आ जाता है। काम भी वृत्र है, क्योंकि वह ज्ञान का आवरक बनता है। इसी प्रकार आँख पर परदे के रूप में आ जानेवाला ‘मोतियाबिन्द’ [ Catarect ] भी वृत्र कहलाता है। ये मेघजल इस ( वृत्रस्य ) = आँख पर अँधेरे के रूप में आ जानेवाले मोतियाबिन्द को ( कनीनकः असि ) = फिर से चमका देनेवाला है [ कन् to shine ]। ‘मेघजल का प्रयोग किस प्रकार कैटेरेक्ट को दूर करता है ?’  यह प्रश्न वैद्य से सम्मति लेकर सुलझाना चाहिए, परन्तु यह बात निश्चित है कि पीने के लिए मेघजल का ही प्रयोग करने पर इस रोग की आशंका ही न रहेगी। 

    ३. हे मेघ ! तू मोतियाबिन्द को हटाकर ( मे ) = मुझे ( चक्षुः ) = फिर से दृष्टिशक्ति ( देहि ) = दे।

    भावार्थ

    भावार्थ — मेघजल या distilled water के प्रयोग से निम्न लाभ होते हैं— १. यह गोदुग्ध के समान शक्ति को देनेवाला है। २. मोतियाबिन्द को नहीं होने देता। ३. दृष्टिशक्ति को बढ़ानेवाला है।

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    विषय

    घृत और आदित्य के दृष्टान्त से राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    मेघ या नवनीत, घृत या आदित्य के दृष्टान्त से राजा के कर्त्तव्य का वर्णन करते हैं । ( महीनाम् पयः असिः ) हे सूर्य तू ! ( महीनां ) पृथिवियों पर ( पय: ) जल बरसने का कारण है । अथवा, हे मेघ ! तू पृथिवी पर जल बरसाता है । हे नवनीत तू गौओं के दूध से उत्पन्न है । हे राजन् ! तू. (महीनां ) पृथिवीवासिनी प्रजाओं का ( पयः असि ) पुष्टिकारक सार भाग है ! हे राजन् ! तू ( वर्चोदा: असि ) वर्चः, तेज का प्रदान करने हारा है( मे वर्चः देहि ) मुझे वर्चस् ,  तेजोबल प्रदान कर ! तू ( वृत्रस्य ) राष्ट्र को घेरने वाले शत्रु को भी (कनीनकः ) आंख में पुतली के समान देखने वाला है। तू ( चक्षुर्दाः असि ) चक्षु अर्थात् आंख का देने वाला है । ( मे चक्षुः देहि ) मुझे चक्षु प्रदान कर ॥
     
    मेघ पक्ष में-- जिस प्रकार सूर्य मेघ को भी अपने तेज से छिन्न भिन्न कर देता है। उसी प्रकार राजा शत्रु को छिन्न भिन्न कर उसकी माया को खोल देता है। सूर्य चक्षु को दर्शन शक्ति देता है उसी प्रकार राजा भी प्रजा को मार्ग दिखाता है ॥ 
    ईश्वर पक्ष में - ( महीनाम् ) तू महती, बड़ी बड़ी शक्तियों का ( पयः ) परम सार, उनका भी परम पोषक बल है। हे तेजखी ! तू मुझ उपासक को वर्चस् प्रदान कर । तू आवरणकारी वृत्र- अज्ञान को भी अपनी ज्ञानज्योति से चमका कर नाश कर देता है सर्वदृष्टा, सबको ज्ञानचक्षु प्रदान करता है, मुझे भी चक्षु प्रदान कर ॥

    टिप्पणी

    -३ - मेघो वा देवता । द० । ० वृत्रस्य कनीनकासि ०' इति काण्व० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेघो वा नवनीतमञ्जनं च देवता । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवत्तः ॥

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    विषय

    इस जलसमूह से उत्पन्न हुए मेघ का क्या निमित्त है ।।

    भाषार्थ

    जो (महीनाम्) पृथिवियों के (पथः) रस का निमित्त (असि) है, (वर्चोदाः) दीप्ति का देने वाला (असि) है, जो (मे) मुझे (वर्च:) प्रकाश (देहि) देता है, जो (वृत्रस्य) मेघ को (कनीनक:) प्रकाशित करने वाला [असि] है, और जो (चक्षुर्दा:) देखने के साधन चक्षु को देने वाला [असि] है, वह सूर्य (मे) मेरे लिए (चक्षुः) नेत्र व्यवहार को (देहि) प्रदान करता है। ।। ४।३।।

    भावार्थ

    सूर्य के प्रकाश के बिना वर्षा की उत्पत्ति तथा आँखों से देखना रूप व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता, अतः जिसने यह सूर्य रचा है, सब मनुष्य उस ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद देवें ।। ४ । ३ ।। भा० पदार्थ:-- वृत्रस्य कनीनकः=वृष्ट्युत्पादकः। चक्षुर्दाः-चक्षुर्व्यवहारसाधकः।।

    प्रमाणार्थ

    (महीनाम्) 'मही' शब्द निघं० (१ । १) में पृथिवी नामों में पढ़ा है। (असि) अस्ति । इस मन्त्र में सर्वत्र 'असि' पद पर व्यत्यय है। (कनीनकः) यह शब्द 'कनी' धातु से बहुल करके औणादिक 'ईन' प्रत्यय और स्वार्थ में 'कन्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। १।३। ९-१५) में की गई है ।। ४ । ३ ।।

    भाष्यसार

    जलसमूह से उत्पन्न मेघ का निमित्त क्या है? --पृथिवीस्थ पदार्थों में रस उत्पन्न करने वाला, दीप्ति देने वाला, चक्षु व्यवहार को सिद्ध करने वाला, सूर्य जलसमूह से उत्पन्न मेघ का निमित्त है। और जिसने ऐसे अद्भुत गुणों वाला सूर्य रचा है उस ईश्वर का करोड़ों बार धन्यवाद है ।। ४ । ३ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, ज्या सूर्यप्रकाशाविना पर्जन्याची निर्मिती होऊ शकत नाही व नेत्र पाहू शकत नाहीत त्या सूर्यलोकाला परमेश्वराने निर्माण केलेले आहे. त्याबद्दल त्याला असंख्य धन्यवाद दिले पाहिजेत.

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    विषय

    या जल समूहातून उत्पन्न मेघाचे प्रयोजन (वा त्यापासून लाभ कोणते) पुढील मंत्रात हा विषय सांगितला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ- जो सूर्य (महीमाम्) पृथ्वी आदी मधे असणार्‍या जलाचे कारण (असि) आहे, जो (वर्चोदाः) दीप्ती देणारा (असि) आहे, तो (मे) मला (वर्चः) प्रकाश (देहि) देतो. तोच (वृत्रस्य) मेघाला (कनीमकः) प्रकाशित करणारा (असि) आहे. तसेच तो सूर्य (चक्षुदाः) नेत्रदाता आहे. प्रकाश देऊन नेत्राद्वारे व्यवहार पूर्ण करण्याचे मुख्य कारण (असि) आहे. तो सूर्य (मे) मला (चक्षुः) दृष्टीशक्ती (देहि) प्रदान करतो. ॥3॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांना याचे ध्यान असावे की सूर्यप्रकाशाशिवाय पाऊस पडत नसतो आणि दृष्टीद्वारे संपन्न होणारा कोणताही व्यवहार शक्य होत नसतो. म्हणून ज्या परमेश्‍वराने या सूर्यलोकाची रचना केली आहे, त्या परमेश्‍वराला कोटि-कोटि वा असंख्य धन्यवाद देत जावे ॥3॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Sun, thou bringest rain on different parts of the earth. Giver of splendour art thou; bestow on me the gift of splendour. The disperser of cloud art thou with thy brilliance. The giver of eye art thou. Give me the gift of vision.

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    Meaning

    The waters of life flow to the earths from the sun. The life of the cloud radiates from the sun. The sun is the giver of light and lustre. Give me the light and lustre of life. The sun is the giver of the light of the eye. Give me the light of the eye internal as well as external.

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    Translation

    O waters, you are the milk of the earth, bestower of lustre; bestow lustre on me. (1) You are the pupil of the cloud's eye, bestower of good vision; bestow vision on me. (2)

    Notes

    Mahinam, of the earth; also of cows. Vrtra, the cloud.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরস্য জলসমূহজন্যস্য মেঘস্য কিং নিমিত্তমস্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় এই জলসমূহ হইতে উৎপন্ন মেঘের কী নিমিত্ত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে এই (মহীনাম্) পৃথিবী ইত্যাদির (পয়ঃ) জল রসের নিমিত্ত (অসি) আছে (বর্চোদাঃ) দীপ্তি প্রদাতা (অসি) আছে যে (মে) আমার জন্য (বর্চঃ) প্রকাশ (দেহি) প্রদান করে, যে (বৃত্রস্য) মেঘের (কনীনকঃ) প্রকাশক অথবা (চক্ষুর্দাঃ) নেত্রের ব্যবহার সিদ্ধকারক (অসি) আছে, সেই সূর্য্য (মে) আমার জন্য (চক্ষুঃ) নেত্রের ব্যবহার (দেহি) প্রদান করে ॥ ৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগকে জানা উচিত যে, যে সূর্য্যের প্রকাশ ব্যতীত বর্ষার উৎপত্তি বা নেত্রের ব্যবহার কখনও সিদ্ধ হয়না, যিনি এই সূর্য্যলোকের রচনা করিয়াছেন সেই পরমেশ্বরকে কোটি অসংখ্য বার ধন্যবাদ দিতে থাকি ॥ ৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ম॒হীনাং॒ পয়ো॑ऽসি বর্চো॒দাऽঅ॑সি॒ বর্চো॑ মে দেহি ।
    বৃ॒ত্রস্যা॑সি ক॒নীন॑কশ্চক্ষু॒র্দাऽঅ॑সি॒ চক্ষু॑র্মে দেহি ॥ ৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মহীনামিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । মেঘো দেবতা । ভুরিক্ আর্চী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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