यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 21
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - वाग्विद्युतौ देवते
छन्दः - विराट् आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
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वस्व्य॒स्यदि॑तिरस्यादि॒त्यासि॑ रु॒द्रासि॑ च॒न्द्रासि॑। बृह॒स्पति॑ष्ट्वा सु॒म्ने र॑म्णातु रु॒द्रो वसु॑भि॒राच॑के॥२१॥
स्वर सहित पद पाठवस्वी॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्या। अ॒सि॒। रु॒द्रा। अ॒सि॒। च॒न्द्रा। अ॒सि॒। बृह॒स्पतिः॑। त्वा॒। सु॒म्ने। र॒म्णा॒तु॒। रु॒द्रः। वसु॑भि॒रिति॒॑ वसु॑ऽभिः। आ। च॒के॒ ॥२१॥
स्वर रहित मन्त्र
वस्व्यस्यदितिरस्यादित्यासि रुद्रासि चन्द्रासि । बृहस्पतिष्ट्वा सुम्ने रम्णातु रुद्रो वसुभिरा चके ॥
स्वर रहित पद पाठ
वस्वी। असि। अदितिः। असि। आदित्या। असि। रुद्रा। असि। चन्द्रा। असि। बृहस्पतिः। त्वा। सुम्ने। रम्णातु। रुद्रः। वसुभिरिति वसुऽभिः। आ। चके॥२१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्ते कीदृश्यावित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन् मनुष्य! यथा या वस्व्यस्त्यदितिर(स्य)स्ति रुद्रास्यस्त्यादित्या(स्य)स्ति चन्द्रा(स्य)स्ति, यां
पदार्थः
(वस्वी) याऽग्न्यादिपदार्थाख्यवसुविद्यासम्बन्धिनी वसुभिश्चतुर्विंशतिवर्षकृतब्रह्मचर्य्यैः प्राप्ता सा (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (अदितिः) प्रकाशवन्नित्या। अदितिर्द्यौरिति प्रकाशकारकोऽर्थो गृह्यते (असि) अस्ति (आदित्या) याऽऽदित्यवदर्थविद्याप्रकाशिकाऽष्टचत्वारिंशत् संवत्सरपर्यन्तानुष्ठितब्रह्मचर्य्यैः स्वीकृता सा (असि) अस्ति (रुद्रा) सा प्राणवायुसम्बन्धिनी चतुश्चत्वारिंशद्धायनावधिसेवितब्रह्मचर्यैः स्वीकृता सा (असि) अस्ति (चन्द्रा) आह्लादयित्री (असि) (बृहस्पतिः) परमेश्वरो विद्वान् वा (त्वा) ताम् (सुम्ने) सुखे (रम्णातु) रमयतु। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थोः विकरणव्यत्ययश्च (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता विद्वान् (वसुभिः) उषितसर्वविद्यैर्विद्वद्भिः सह (आ) समन्तात् (चके) कामितवान् कामयतां वा, अत्र पक्षे लोडर्थे लिट्। आचक इति कान्तिकर्मसु पठितम्। (निघं॰२.६)। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.१.१-२) व्याख्यातः॥२१॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा ये वाग्विद्युतौ प्राणपृथिव्यादिभिः सह वर्त्तमाने अनेकव्यवहारहेतू स्तो ये जितेन्द्रियादिधर्मपुरस्सरं यथायोग्यं कृतब्रह्मचर्यैर्मनुष्यैर्विज्ञानेन क्रियासु संप्रयोजिते सत्यौ वाग्विद्युतौ बहुसुखकारिके जायेते, एतां त्वमपि नित्यं सेवस्व॥२१॥
विषयः
पुनस्ते कोदृश्यावित्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे विद्वन् मनुष्य ! यथा या वस्वी याऽग्न्यादि पदार्थाख्यवसुविद्यासम्बन्धिनी, वसुभिश्चतुर्विंशतिवर्षकृतब्रह्मचर्यै:प्राप्ता सा [असि]=अस्ति, अदितिः प्रकाशवन्नित्या [असि]=अस्ति, रुद्रा सा प्राणवायुसम्बन्धिनी, चतुश्चत्वारिंशद्धायनावधिसेवितब्रह्मचर्यैः स्वीकृता सा [असि]=अस्ति, आदित्या याऽऽदित्यवदर्थं विद्याप्रकाशिकाऽष्टचत्वारिंशत्संवत्सरपर्यन्तानुष्ठितब्रह्मचर्यैः स्वीकृता सा [असि]= अस्ति, चन्द्रा आह्लादयित्री [असि]=अस्ति, यां बृहस्पतिः परमेश्वरो विद्वान् वा सुम्नेसुखेरमयति=प्रेरयति, यां रुद्रः दुष्टानां रोदयिता विद्वान् वसुभिः उषित उषितसर्वविद्यैर्विद्वद्भिः सह वर्तमानामाचके समन्तात् कामितवान् कामयतां वा, यामहं कामये, तथा त्वां=तां भवान् रम्णातु=रमयतु ॥ ४ । २१ ।।
पदार्थः
(वस्वी) याऽग्न्यादिपदार्थाख्यवसुविद्यासंबन्धिनी वसुभिश्चतुर्विंशतिवर्षं कृतब्रह्मचर्यैः प्राप्ता सा (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (अदितिः) प्रकाशवन्नित्या। अदितिर्द्यौरिति प्रकाशकारकोऽर्थो गृह्यते (असि) अस्ति (आदित्या) यऽऽदित्यवदर्थविद्याप्रकाशिकाऽष्टचत्वारिंशत्संवत्सरपर्यन्तानुष्ठितब्रह्मचर्य्यैः स्वीकृता सा (असि) अस्ति (रुद्रा) सा प्राणवायुसंबन्धिनी चतुश्चत्वारिंशद्धायनावधिसेवितब्रह्मचर्यैः स्वीकृता सा (असि) अस्ति (चन्द्रा) आह्लादयित्री (असि) अस्ति (बृहस्पतिः) परमेश्वरो विद्वान् वा (त्वा) ताम् (सुम्ने) सुखे (रम्णातु) रमयतु । अत्रान्तर्गतो ण्यर्थो विकरणव्यत्ययश्च (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता विद्वान् (वसुभिः) उषितसर्वविद्यैर्विद्वद्भिः सह (आ) समन्तात् (चके) कामितवान् कामयतां वा अत्र पक्षे लोडर्थे लिट्। आचक इति कान्तिकर्मसु पठितम् ॥ निघं० २ । ६ ॥ अयं मंत्र: श० ३।२।४।१-२ व्याख्यातः ॥ २१ ॥ [या वस्वी [असि]=अस्ति,अदिति: [असि]=अस्ति]
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ ॥ यथा ये वाग्विद्युतौ प्राणपृथिव्यादिभि: सह वर्तमाने अनेकव्यवहारहेतू स्तः, [रुद्रा[असि]=अस्ति, आदित्या [असि]=अस्ति, चन्द्रा [असि]=अस्ति] ये जितेन्द्रियादिधर्मपुरस्सरं यथायोग्यं कृतब्रह्मचर्यैर्मनुष्यैर्विज्ञानेन क्रियासु संप्रयोजिते सत्यौ वाग्विद्युतौ बहुसुखकारके जायेते। ऐते त्वमपि नित्यं सेवस्व ।। ४ । २१ ।।
भावार्थ पदार्थः
चन्द्रा=बहुसुखकारिका।
विशेषः
वत्सः। वाग्विद्युतौ=वाणी विद्युच्च । विराडार्षी बृहती। मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह वाणी वा बिजुली किस प्रकार की है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वन् मनुष्य! जैसे जो (वस्वी) अग्नि आदि विद्या सम्बन्धी, जिसकी सेवा २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करने वालों ने की हुई (असि) है, जो (अदितिः) प्रकाशकारक (असि) है, जो (रुद्रा) प्राणवायु सम्बन्ध वाली और जिसको ४४ चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य करनेहारे प्राप्त हुए हों, वैसी (असि) है, जो (आदित्या) सूर्य्यवत् सब विद्याओं का प्रकाश करने वाली, जिसका ग्रहण ४८ अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्यसेवी मनुष्यों ने किया हो, वैसी (असि) है, जो (चन्द्रा) आह्लाद करने वाली (असि) है, जिसको (बृहस्पतिः) सर्वोत्तम (रुद्रः) दुष्टों को रुलाने वाला परमेश्वर वा विद्वान् (सुम्ने) सुख में (रम्णातु) रमणयुक्त करता और जिस (वसुभिः) पूर्णविद्यायुक्त मनुष्यों के साथ वर्त्तमान हुई वाणी वा बिजुली की (आचके) निर्माण वा इच्छा करता अथवा जिसकी मैं इच्छा करता हूं, वैसे तू भी (त्वा) उसको (रम्णातु) रमणयुक्त वा इसको सिद्ध करने की इच्छा कर॥२१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वाणी, बिजुली और प्राण पृथिवी आदि और विद्वानों के साथ वर्त्तमान हुए अनेक व्यवहार की सिद्धि के हेतु हैं और जिनकी सेवा जितेन्द्रियादि धर्मसेवनपूर्वक होके विद्वानों ने की हो, वैसी वाणी और बिजुली मनुष्यों को विज्ञान पूर्वक क्रियाओं से संप्रयोग की हुई बहुत सुखों के करने वाली होती है॥२१॥
विषय
रुद्र वसुओं के साथ [ आचार्य शिष्यों के साथ ]
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अनुसार आचार्यकुल में आये हुए विद्यार्थियों को आचार्य वेदज्ञान प्राप्त कराता है। वेदज्ञान प्राप्त करके विद्यार्थी अनुभव करता है और कहता है कि हे वेदवाणि! तू ( वस्वी असि ) = उत्तम निवास देनेवाली है। जीवन के लिए सब उत्तम साधनों का प्रतिपादन करके तू हमारे जीवन को उत्तम बनाती है।
२. ( अदितिः असि ) = तू हमारा खण्डन न होने देनेवाली है। हमारे स्वास्थ्य की तू साधिका है।
३. ( आदित्या असि ) = गुणों का आदान करनेवाली है [ आदानात् आदित्यः ]। तेरे अध्ययन से हममें गुणग्रहण की वृत्ति प्रबल होती है।
४. ( रुद्रा असि ) = तू संसार के सब पदार्थों का ज्ञान देनेवाली है [ रुत्+र ]। सब सत्य विद्याओं की खान है।
५. ( चन्द्रा असि ) = तू हमारी मनोवृत्ति को आनन्दमय बनानेवाली है। इसके अध्ययन से मन निर्मल व द्वेषशून्य हो जाता है।
६. ( बृहस्पतिः ) = ब्रह्मणस्पति = वेदज्ञान का पति ( त्वा ) = तुझे ( सुम्ने ) = प्रभु-स्तवन में ( रम्णातु ) = [ रमयतु ] रमण करनेवाला बनाये, अर्थात् वेदज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह इन वेदवाणियों से प्रभु-स्तवन में आनन्द का अनुभव करे।
७. ( रुद्रः ) = उपदेश देनेवाला आचार्य ( वसुभिः ) = अपने समीप निवास करनेवाले अन्तेवासी शिष्यों के साथ ( आचके ) = तेरी ही कामना करे, अर्थात् आचार्य और शिष्य वेदज्ञान में आनन्द का अनुभव करें। [ यहाँ विद्यार्थी को ‘वसु’ कहा है, क्योंकि वह आचार्य के समीप निवास करता है, वसति इति ]।
भावार्थ
भावार्थ — आचार्य व शिष्य वेदवाणी के पढ़ने में आनन्द का अनुभव करें।
विषय
) पृथ्वी, ब्रह्मशक्ति, विद्युत् और राष्ट्र शक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
हे पृथिवि ! ( वस्वी असि ) तू वस्वी, वसु-शरीर में वास करने वाले जीवों को बसाने वाली ( असि ) है । ( अदितिः असि ) तू अखण्ड ऐश्वर्य वाली, नित्य अविनाशिनी है । तू. ( आदित्यासि ) आदित्य आदान करने वाली, सबको अपने में धारण करने वाली, आदित्यों द्वारा सेवित है । ( रुदा असि ) सबको रुलाने वाली प्राणों के समान रोदनकारी, दुष्ट पीड़क, शासकों द्वारा सेवित है । (चन्दा असि ) सब को आह्लादकारिणी है । (त्वा) तुझे (बृहस्पतिः ) विद्वान् योगी ( सुम्ने ) उत्तम ब्रह्ममय आनन्द में. ( रम्णातु ) रमावे, प्रेरित करे । ( रुद्रः ) मुख्य प्राण, जीवात्मा ( वसुभिः ) अन्य प्राणों सहित उनके साधना बल से तुझको प्राप्त करना है ॥
ब्रह्मशक्ति पक्ष में -- वह सर्व वसु =लोकों में व्यापक, अखण्ड प्रकाशमयी, सर्व रोदनकारी या वेद द्वारा उपदेष्ट्री, सर्वोह्लादिका है । वह परमेश्वर बृहस्पति उसे उत्तम आनन्दरूप में या ज्ञानरूप में प्रेरित करता है | वही रुद ईश्वर उसको समस्त वसुओं, जीवों सहित अपनाता है, चाहता है ॥
विद्युत् पक्ष में-- वस्वी, ऐश्वर्यवती, अविनाशिनी, प्रकाशवती, रुदा, शब्दकारिणी, आह्लादिका है । विद्वान् उसके सुख से किये जाने के कार्यों में या उत्तमरूप से पदार्थों के स्तम्भन कार्यों में लगावे । रुद्र, विज्ञानोपदेष्टा वसु, निवासियों सहित उसको चाहते हैं ॥
राष्ट्रशक्ति पक्ष में--जनों को बसानेवाली, अखण्ड शक्ति सबकी वशयित्री, दुष्टों को रुलाने वाली सर्वाह्लादिनी है । राजा सुखमय राष्ट्र में रमण करे। वह रुद्र राजा वसुओं सहित उस शक्ति को प्राप्त करे । इसी रूप से ये विशेषण पृथ्वी के भी हैं। सोमयोग में सोमक्रमणी गौ के लिये यह मन्त्र है | वहां सोम=राजा और गौ पृथिवी ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्स ऋषिः । वाग् विद्युत् सोमक्रमणी गौर्वा देवेता । विराडार्षी बृहती ।
मध्यमः स्वरः॥
विषय
फिर वह वाणी और बिजुली कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे जो (वस्वी) अग्नि आदि पदार्थ नामक वसु विद्या से सम्बन्धित, और जिसे चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन करने वालों ने प्राप्त किया [असि] है जो (अदितिः) प्रकाश के समान नित्य [असि] है जो (रुद्रा) प्राण वायु से सम्बन्धित तथा चवालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य सेवन करने वालों ने जिसे स्वीकार किया [असि] है, जो (आदित्या) आदित्य के समान पदार्थ और विद्या को प्रकाशित करने वाली एवं अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य के अनुष्ठाता ने जिसे स्वीकार किया [असि ] है, जो (चन्द्रा) आनन्ददायक [ असि] है, जिसे (बृहस्पतिः) परमेश्वर वा विद्वान् (सुम्ने) सुख के निमित्त प्रेरित करता है, जिसको (रुद्रः) दुष्टों को रुलाने वाला विद्वान् (वसुभिः) सब विद्याओं में निवास करने वाले विद्वानों के संग रहने वाली वाणी वा विद्युत् को (आचके) सब ओर से चाहता है और जिसे मैं भी चाहता हूँ वैसे (त्वा) उस विद्या में आप भी (रम्णातु) रमण करो ।। ४ । २१ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार हैं। जैसे जो वाणी और विद्युत् प्राण और पृथिवी आदि के साथ अनेक व्यवहारों के साधक हैं, और जो जितेन्द्रियता आदि धर्माचरण पूर्वक यथायोग्य ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले मनुष्यों से विज्ञान के द्वारा क्रियाओं में प्रयुक्त किये हुए वाणी और विद्युत् अति सुखकारक होते हैं। इनका तू भी नित्य सेवन कर ।। ४ । २१ ।।
प्रमाणार्थ
(असि) अस्ति। इस मन्त्र में 'असि’ पद पर सर्वत्र व्यत्यय है। (अदितिः) प्रकाशवन्नित्या । "अदितिर्द्यौ:०” इत्यादि वेद मन्त्र के प्रमाण से 'अदिति' शब्द से प्रकाशकारक अर्थ गृहीत होता है। (रम्णातु) रमयतु । यहाँ णिच् का अर्थ अन्तर्भावित है और विकरण प्रत्यय का व्यत्यय है। (चके) यहाँ पक्ष में लोट्-अर्थ में लिट् लकार है। (आचके) यह पद निघं० (२ । ६) में कान्ति अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । ४ । १ -२) में की गई है ।। ४ । २१ ।।
भाष्यसार
१. वाणी कैसी है-- इस वाणी का वसु अर्थात् अग्नि आदि पदार्थ विद्या से सम्बन्ध है, और इसे वसु अर्थात् २४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य-पालन करने वाले विद्वान् प्राप्त करते हैं, यह प्रकाश के समान नित्य है, प्राण-वायु से इसका सम्बन्ध है, अर्थात् प्राण से इसकी उत्पत्ति होती है, रुद्र अर्थात् ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्यपालन करने वाले विद्वान इसे स्वीकार करते हैं, प्राप्त करते हैं, यह आदित्य (सूर्य) के समान पदार्थों को प्रकाशित करने वाली तथा ४८ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन करने वाले विद्वानों के द्वारा विद्या का प्रकाश करने वाली और सबको आह्लादित करके अति सुख देने वाली है। परमेश्वर वेदवाणी का तथा विद्वान् वैदिक-वाणी का प्रकाश करता है। २. विद्युत् कैसी है--इस विद्युत् का वसु अर्थात् अग्नि आदि पदार्थ विद्या से गहरा सम्बन्ध है, वसु ब्रह्मचारी इसे प्राप्त करते हैं, यह प्रकाश के समान नित्य है, प्राण वायु से इसका सम्बन्ध है अर्थात् यह प्राण-वायु की प्रेरक है, रुद्र ब्रह्मचारी इसे प्राप्त करते हैं, यह सूर्य के समान रात्रि में पदार्थों को प्रकाशित करती है, आदित्य ब्रह्मचारी इसे प्राप्त करते हैं, यह विद्युत्-विद्या विद्वानों को आह्लादित करने वाली है, इसके सदुपयोग से सभी आह्लादित होते हैं। परमेश्वर और विद्वान् भी इस विद्युत्-विद्या का प्रकाश करता है ते हैं ।। ३. अलङ्कार--यहाँ श्लेष अलङ्कार होने से वाणी और विद्युत् दोनों अर्थों का ग्रहण किया है, तथा मन्त्र में उपमा वाचक 'इव' आदि शब्द के लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे बृहस्पति अर्थात् परमेश्वर और विद्वान् वेदवाणी और विद्युत् विद्या को प्रकाशित करते हैं, इसी प्रकार अन्य जन भी इस वाणी तथा विद्युत् विद्या में रमण करते रहें, इसे प्रकाशित करते रहें ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. वाणी, विद्युत, प्राण, पृथ्वी ही विद्वानांच्या व्यवहारसिद्धीची कारणे आहेत. त्यासाठी जितेंद्रिय धार्मिक विद्वानांनी वाणी व विद्युत यांचा वैज्ञानिकदृष्ट्या चांगला प्रयोग केल्यास सर्व माणसांना ती सुखकारक ठरतात.
विषय
पुढील मंत्रात
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान मनुष्य, (वस्वी) 24 वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य धारण करून व्रतस्थ माणसांनी ज्या अग्नीची सेवा केली (असि) आहे. किंवा करतात आणि (अग्नीच्या गुणांचा शोध करून त्यापासून यज्ञ, शिल्पविद्यादी विद्या प्राप्त केली आहे किंवा करतात, जो विद्या (अदितिः) प्रकाशकारी (असि) आहे, (रूद्राः) प्राणवायु विषयक ज्या विद्येला 44 वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य धारण करणारे व्रतस्थजन प्राप्त करतात किंवा करू शकतात, अशी (असि) जी आहे, जी विद्या (आदिती) सूर्याप्रमाणे सर्व विद्यांना प्रकाशित करणारी (असि) आहे आणि ज्या विद्येला 48 वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्यसेवी मनुष्यांनी जाणले असते, जी (चन्द्रा) अह्लाददायी (असि) आहे, जी विद्या (बृहस्पतिः) सर्वश्रेष्ठ (रूद्रः) रूद्र म्हणजे परमेश्वर किंवा ज्ञानी विद्वान (सुम्ने) सुखासाठी (रम्णातु) उपभोग करण्यासाठी देतात व दिली आहे, तसेच ज्या विद्येचा (वसुभिः) विद्याया मनुष्य वाणी वा विद्युत रूपाने (आचके) निर्माण करतात व ज्याची कामना करतात अथवा ज्या वाणी व विद्युतेची मी कामना करतो, माझ्याप्रमाणे त्या विद्येचा (वाणी व विद्युत-शास्त्राचा) (त्वा) तू देखील (रम्णातु) उपभोग घे त्या विषयी विविध प्रयोग, क्रिया आदी करून) त्या विद्येस प्राप्त करण्याची इच्छा कर. ॥21॥
भावार्थ
भावार्थ – या मंत्रात श्लेष आणि वाचकलुप्तोपमा, हे दोन अलंकार आहेत. ज्याप्रमाणे पृथ्वीवर असलेले वाणी, विद्युत व प्राणशक्ती यांचा विद्वज्जन (ज्ञानी व वैज्ञानिकजन) अनेक व्यवहारांसाठी अथवा कार्यपूर्तीसाठी उपयोग करतात आणि ज्यांचा धर्मपूर्वक सेवन करून त्यांपासून जितेंद्रिय जन यथोचित उपयोग घेतात, त्या वाणी आणि विद्युत शक्तीचा शोध व बोध मनुष्यांनी वैज्ञानिक क्रिया प्रयोगादीद्वारे अधिकाधिक वाढविला पाहिजे व त्याद्वारा सुखांचा उपयोग घ्यायला पाहिजे ॥21॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O speech, thou art all-pervading, eternal, lustrous, sublime and pleasant. The learned person uses thee for happiness. The sage, the chastiser of the wicked longs for thee along with other educated persons.
Meaning
This energy and the language (which you pursue) pertains to the heat of Agni that supports life on earth, pursued by scholars of twenty four years discipline. It relates to the pranic energy of life, pursued by scholars of forty-four years discipline. It pertains to the solar radiation, pursued by scholars of forty-eight years discipline. It is blissful as the light of the moon. It is correct and beneficent like the justice and love of Rudra, it is brilliant like the glory of the sun. And this energy is indestructible, eternal. May the great lord of knowledge, Brihaspati, inspire you; may Rudra, lord of love and correctness, dedicate you; may they bless you to enjoy this noble pursuit of yours and shine with the scholars dedicated to life-energies of nature.
Translation
(O illuminating intellect), you are the wealth incarnate. You are the eternity. You are the child of eternity as well. You are dreadful; you are bestower of bliss. May the Lord Supreme keep you in comfort and may the dreadful Lord of creatures make you glitter with riches. (1)
Notes
Vasvi, wealth incarnate. Aditya, an offspring of Aditi. Rudra, dreadful, Candra, bestower of bliss: blissful. Acake, make you gittter. Sumne, in comfort.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তে কীদৃশ্যাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনঃ সেই বাণী বা বিদ্যুৎ কী প্রকারের, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ মনুষ্য । যেমন যে (বস্বী) অগ্নি ইত্যাদি বিদ্যা সম্পর্কীয়, যাহার সেবা ২৪ (চব্বিশ) বর্ষ পর্য্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য পালনকারীগণ করিয়াছে, (অসি) যাহা (অদিতিঃ) প্রকাশকারক (অসি) হয়, যাহা (রুদ্রা) প্রাণবায়ু সম্পর্ক যুক্ত এবং যাহার ৪৪ (চুয়াল্লিশ) বর্ষ ব্রহ্মচর্য্য পালনকারী প্রাপ্ত হইয়াছে সেইরূপ (অসি), যাহা (আদিত্যা) সূর্য্যবৎ সর্ব বিদ্যার প্রকাশকারিণী, যাহার গ্রহণ ৪৮ (আটচল্লিশ) বর্ষ পর্যন্ত ব্রহ্মচর্য্যসেবী মনুষ্যগণেরা করিয়াছে সেইরূপ (অসি), যাহা (চন্দ্রা) আহ্লাদকারিণী (অসি) হয়, যাহাকে (বৃহস্পতিঃ) সর্বোত্তম (রুদ্রঃ) দুষ্টদিগকে রোদনকারী পরমেশ্বর বা বিদ্বান্ (সুম্নে) সুখে (রম্ণাতু) রমণযুক্ত করেন এবং যে (বসুভিঃ) পূর্ণবিদ্যাযুক্ত মনুষ্যদিগের সহ বর্ত্তমান বাণী বা বিদ্যুতের (আচকে) নির্মাণ বা ইচ্ছা করে অথবা যাহার আমি ইচ্ছা করি সেইরূপ তুমিও (ত্বা) উহাকে (রম্ণাতু) রমণযুক্ত বা ইহাকে সিদ্ধ করিবার ইচ্ছা কর ॥ ২১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বাণী, বিদ্যুৎ ও প্রাণ, পৃথিবী ইত্যাদি এবং বিদ্বান্দিগের সহিত বর্ত্তমান অনেক ব্যবহার সিদ্ধির হেতু এবং যাহাদিগের সেবা জিতেন্দ্রিয়াদি ধর্মসেবনপূর্বক বিদ্বান্গণ করিয়াছেন সেইরূপ বাণী ও বিদ্যুৎ মনুষ্যদিগকে বিজ্ঞানপূর্বক ক্রিয়াগুলির দ্বারা সংপ্রযুক্ত অনেক সুখ উৎপন্ন কারিণী হইয়া থাকে ॥ ২১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বস্ব্য॒স্যদি॑তিরস্যাদি॒ত্যাসি॑ রু॒দ্রাসি॑ চ॒ন্দ্রাসি॑ ।
বৃহ॒স্পতি॑ষ্ট্বা সু॒ম্নে র॑ম্ণাতু রু॒দ্রো বসু॑ভি॒রা চ॑কে ॥ ২১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বস্বীত্যস্য বৎস ঋষিঃ । বাগ্বিদ্যুতৌ দেবতে । বিরাডার্ষী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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