यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 33
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - सूर्य्यविद्वांसौ देवते
छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री,याजुषी जगती
स्वरः - षड्जः, निषादः
99
उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम्॥३३॥
स्वर सहित पद पाठउस्रौ॑। आ। इ॒त॒म्। धू॒र्षा॒हौ॒। धूः॒स॒हा॒विति॑ धूःऽसहौ। यु॒ज्येथा॑म्। अ॒न॒श्रूऽइत्य॑न॒श्रू। अवी॑रहणौ। अवी॑रहनावित्यवी॑रऽहनौ। ब्र॒ह्म॒चोद॑ना॒विति॑ ब्रह्म॒ऽचोद॑नौ। स्व॒स्ति। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥३३॥
स्वर रहित मन्त्र
उस्रावेतन्धूर्षाहौ युज्येथामनश्रू अवीरहणौ ब्रह्मचोदनौ । स्वस्ति यजमानस्य गृहान्गच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उस्रौ। आ। इतम्। धूर्षाहौ। धूःसहाविति धूःऽसहौ। युज्येथाम्। अनश्रूऽइत्यनश्रू। अवीरहणौ। अवीरहनावित्यवीरऽहनौ। ब्रह्मचोदनाविति ब्रह्मऽचोदनौ। स्वस्ति। यजमानस्य। गृहान्। गच्छतम्॥३३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ सूर्य्यविद्वांसौ कथंभूतावेताभ्यां शिल्पविदौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यथा विद्याशिल्पे चिकीर्षू यौ ब्रह्मचोदनावनश्रू अवीरहणावुस्रौ धूर्षाहौ सूर्य्यविद्वांसौ गावौ वृषवद् यानचालनायैतं प्राप्नुतो युज्येथां युक्तौ कुरुतो यजमानस्य गृहान् स्वस्ति गच्छतं सुखेन गमयतस्तौ यूयं युक्त्या सेवयत॥३३॥
पदार्थः
(उस्रौ) रश्मिमन्तौ निवासहेतू सूर्य्यवायू। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰१.५) गोनामसु च। (निघं॰२.११) (आ) समन्तात् (इतम्) प्राप्नुतः (धूर्षाहौ) यौ धुरं पृथिव्याः शरीरस्य ज्ञानानां वा धारणं सहेते तौ (युज्येथाम्) युज्येते युक्तौ कुरुतः (अनश्रू) अव्यापिनौ (अवीरहणौ) वीरहननरहितौ (ब्रह्मचोदनौ) आत्मान्नप्राप्तिप्रेरकौ (स्वस्ति) सुखं सुखेन वा (यजमानस्य) धार्मिकस्य जीवस्य (गृहान्) गृहाणि (गच्छतम्) गमयतः। अयं मन्त्रः (शत॰३.३.४.१२) व्याख्यातः॥३३॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्यविपश्चितौ क्रमेण सर्वं प्रकाश्य धृत्वा सहित्वा युक्त्वा प्राप्य सुखं प्रापयतस्तथैव येन शिल्पविद्यासम्पादकेन यानेषु युक्त्या सेविते अग्निजले सुखेन सर्वत्राभिगमनं कारयतः॥३३॥
विषयः
अथ सूर्य्याविद्वांसौ कथंभूतावेताभ्यां शिल्पविदौ कि कुर्य्यातामित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्या ! यथा--विद्याशिल्पे चिकीर्षू,यौ ब्रह्मचोदनौ आत्मान्नप्राप्तिप्रेरकौअनश्रू अव्यापिनौअवीरहणौवीरहननरहितौ उस्रौ रश्मिमन्तौ निवासहेतु सूर्यवायू धूर्षाहौ=सूर्यविद्वांसौ, गावौ, यौ धुरं=पृथिव्याः शरीरस्य ज्ञानानां वा धारणं, सहेते तौ वृषवद्यानचालनायैतं=प्राप्नुतः (समन्तात् प्राप्नुतः) युज्येथां= युक्तौ कुरुतः, युज्येते=युक्तौ कुरुतः, यजमानस्य धार्मिकस्य जीवस्य गृहान् गृहाणिस्वस्ति (सुखं सुखेन वा) गच्छतं=सुखेन गमयतस्तौ यूयं युक्त्या सेवयत ।। ४ । ३३ ।। [ हे मनुष्या! यथा विद्याशिल्पे चिकीर्षू......धूर्षाहौ=सूर्यविद्वांसौ, गावौ......एतं= प्राप्नुतः, युज्येथां=युक्तौ कुरुतः, यजमानस्य गृहान् स्वस्ति गच्छतं=सुखेन गमयतस्तौ यूयं युक्त्या सेवयत]
पदार्थः
(उस्रौ) रश्मिमन्तौ निवासहेतू सूर्य्यवायू । उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम् ॥ निघं० । १ । ५ ॥ गोनामसु च ॥ निघं० २ ।११ ॥ (आ) समन्तात् (इतम्) प्राप्नुत: (धूर्षाहौ) यौ धुरं=पृथिव्याः शरीरस्य ज्ञानानां वा धारणं सहेते तौ (युज्येथाम्) युज्येते=युवतौ कुरुतः (अनश्रू) अव्यापिनौ (अवीरहणौ) वीरहननरहितौ (ब्रह्मचोदनौ) आत्मान्नप्राप्तिप्रेरकौ (स्वस्ति) सुखंसुखेन वा (यजमानस्य) धार्मिकस्य जीवस्य (गृहान्) गृहाणि (गच्छतम्) गमयतः ॥ अयं मंत्रः शत० ३ ।३ ।४।१२ व्याख्यातः ॥ ३३ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ॥ यथा सूर्यविपश्चितौ क्रमेण सर्वं प्रकाश्य, धृत्वा, सहित्वा, युक्त्वा, प्राप्य, सुखं प्रापयतस्तथैव येन शिल्पविद्यासम्पादकेन यानेषु युक्त्या सेविते अग्निजले सुखेन सर्वत्राभिगमनं कारयतः ॥ ४ । ३३ ।।
विशेषः
वत्सः। सूर्य्यविद्वांसौ=स्पष्टम्॥ पूर्वस्य निचृदार्षी गायत्री।षड्जः। स्वस्तीत्यन्तस्य याजुषी जगती। निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सूर्य्य और विद्वान् कैसे हैं, और उनसे शिल्पविद्या के जानने वाले क्या करें, सो अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे विद्या और शिल्पक्रिया को प्राप्त होने की इच्छा करने वाले (ब्रह्मचोदनौ) अन्न और विज्ञान प्राप्ति के हेतु (अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का रक्षण करने (उस्रौ) ज्योतियुक्त और निवास के हेतु (धूर्षाहौ) पृथिवी और धर्म के भार को धारण करने वाले विद्वान् (आ इतम्) सूर्य्य और वायु को प्राप्त होते वा (युज्येथाम्) युक्त करते और (यजमानस्य) धार्मिक यजमान के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुख से (गच्छतम्) गमन करते हैं, वैसे तुम भी उनको युक्ति से संयुक्त कर के कार्यों को सिद्ध किया करो॥३३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य और विद्वान् सब पदार्थों को धारण करनेहारे, सहनयुक्त और प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही शिल्पविद्या के जानने वाले विद्वान् से यानों में युक्ति से सेवन किये हुए अग्नि और जल सवारियों को चला के सर्वत्र सुखपूर्वक गमन कराते हैं॥३३॥
विषय
यजमान का घर
पदार्थ
प्रभु की उपासना करनेवाले पति-पत्नी कैसे बनते हैं—
१. ( उस्रौ ) = [ उस्रा = रश्मि—नि० १।५ ] ये ज्ञान की रश्मियोंवाले होते हैं। नैत्यिक स्वाध्याय के कारण इनकी ज्ञानाङ्गिन सदा प्रकाशित रहती है।
२. ( धूर्षाहौ ) = [ धुरं सहेते ] गृहस्थ के बोझ को उठाने में ये सदा समर्थ होते हैं। प्रभु की उपासना इन्हें शक्ति देती है और ये गृहस्थ के कार्यभार का सुन्दरता से वहन करते हुए घर को स्वर्ग बनाने का यत्न करते हैं।
३. ( अनश्रू ) = [ अश्रुरहितौ सोत्साहौ ] ये संसार-यात्रा में आनेवाले विघ्नों से घबरा नहीं जाते। कितने भी विघ्न आएँ ये रोने-धोने नहीं लगते, अपितु अपने उत्साह को स्थिर रखते हुए ये आगे और आगे बढ़ते हैं। भाग्य का रोना रोने नहीं बैठ जाते।
४. ( अवीरहणौ ) = अपने घर में वे यज्ञाङ्गिन को कभी बुझने नहीं देते। यज्ञाङ्गिन को बुझने देनेवाला ‘वीरहा’ है। ये दोनों अवीरहा बनते हैं।
५. ( ब्रह्मचोदनौ ) [ ब्रह्म = वेद ] = ये वेद से प्रेरणा लेनेवाले बनते हैं। श्रुति को परम प्रमाण मानते हुए ये अपनी जीवन-यात्रा के लिए वहीं से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
६. ऐसे तुम दोनों ( एतम् ) = इस गृहस्थ-शकट में ( युज्येथाम् ) = जुत जाओ। इन गुणों से युक्त पति-पत्नी गृहस्थ में प्रवेश करेंगे तो ( स्वस्ति ) = उनका कल्याण अवश्य होगा ही। ( यजमानस्य ) = यज्ञशील के ( गृहान् गच्छतम् ) = घर को तुम प्राप्त होओ, अर्थात् तुम्हारा घर ऐसा बने जहाँ यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वाभाविक बन गया हो। यज्ञ के बिना उस घर के लोग रह ही न सकते हों।
भावार्थ
भावार्थ — पति-पत्नी ज्ञानरश्मियोंवाले, कार्यभार को उठाने में सक्षम, न रोनेवाले, यज्ञाङ्गिन को न बुझने दनेवाले तथा श्रुति से प्रेरणा प्राप्त करनेवाले हों। उनका घर ‘यजमान = यज्ञशील’ का घर हो।
विषय
प्राण और अपान तथा बैलों के समान दो धुरन्धरों की नियुक्ति ।
भावार्थ
( एतौ ) ये दोनों ( धूर्षाहौ ) पृथ्वी का भार धारण करने में समर्थ और प्रजाओं को बसाने वाले (अवीरहणौ ) अपने राष्ट्र के वीर पुरुषों को नाश करने वाले और ( ब्रह्मचोदनौ ) ब्रह्मज्ञान या वेदविज्ञान को उन्नत करने वाले राजा, अमात्य या दोनों विद्वान पुरुष हैं ( अनश्रु ) आँसुओं से, क्लेश विपत्तियों और बाधा पीड़ा से रहित, सुप्रसन्न चित्त से रहने वाले उन दोनों को (युज्येथाम् ) गाड़ी में बैलों के समान राष्ट्र संचालन के कार्य में नियुक्त किया जाय । हे उक्त दोनों समर्थ नरपुंगवो ! आप दोनों (यजमानस्य ) दानशील, धार्मिक, उदार प्रजाजन के ( गृहान् ) घरों के ( स्वस्ति गच्छतम् ) सुखपूर्वक प्राप्त होओ, अथवा उनको सुख कल्याण प्राप्त कराओ ॥
देह पक्ष में- ( उस्रौ एतौ ) आत्मा के देह में निवास के हेतु प्राण, अपान सुप्रसन्न (अवीरहणौ ) शरीर के समर्थ अंगों का नाश करनेवाले (ब्रह्मचोदनौ) ब्रह्म, आत्मा के प्रेरक दोनों को योगाभ्यास में लगाओ। वे यजमान, आत्मा के देह को सुख से प्राप्त हों या सुख प्राप्त करावें । इसी प्रकार सूर्य और वायु ब्रह्माण्ड में ( ब्रह्मचोदनौ ) अन्न को प्राप्त करानेवाले उनको अपने शिल्पकार्यो में लगावें। बैलों के पक्ष में स्पष्ट है ।।
`अनश्र्च्यू` इति महर्षिसम्मतपाठः । ( अनश्च्यू अनः=च्यू १) 'अनस` शकट को 'च्यु' उठाने वाले राष्ट्र रूप शकट को दूर अथवा शकट को लेजाने वाले । अथवा स्त्री पुरुषों पर भी यह मन्त्र लगता है । ( अवीरहणौ ) वीर- पुत्रों का नाश न करने वाले ( ब्रह्मचोदनौ ) वेद का स्वाध्याय करने वाले ( अनश्रू ) आंसू न बहाने वाले, परस्पर सुप्रसन्न, ( धूर्षाहौ ) गृहस्थ के भार को सहने में समर्थ, ( उस्रौ ) एकत्र बसने वाले, अथवा ( उत्सर्पिणौ ) उन्नत मार्ग पर जानेवाले दोनों को ( युज्येथाम् ) गृहस्थ में लगाया जाय। ऐसे युवा युवति, यजमान यज्ञशील, धार्मिक पुरुष के घरों पर आवें और सुख प्रदान करें ॥
टिप्पणी
३३-- अनश्च्यू' इति दयानन्दभाष्य गतः पाठश्चिन्त्यः । च्यु हसन सहनयोः चुरादिः । अथवा च्युङ्गतौ भ्वादि: । ' उस्रा एतं धूर्वाहौ ०' इति काण्व ॥ १ उस्रावेतं। २ स्वस्ति।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्यविद्वांसौ नड्वाहो वा देवता । (१ ) भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ।(२) याजुषी जगती । निषादः ॥
विषय
अब सूर्य और विद्वान् कैसे हैं और उनसे शिल्पविद्या के जानने वाले क्या करें, यह उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे विद्या और शिल्प को प्राप्त करने के इच्छुक लोग, जिन (ब्रह्मचोदनौ) आत्मा और अन्न के प्रेरक (अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का हनन न करने वाले (उस्रौ) किरणयुक्त एवं निवास के निमित्त सूर्य और वायु को तथा (धूर्षाहौ) पृथिवी, शरीर और ज्ञान को धारण करने वाले सूर्य और विद्वानों को तथा बैलों को, वृषभ के समान यान-संचालन के लिये (एतम्) प्राप्त करते हैं (युज्येथाम् ) अथवा बैलों को यान में जोड़ते हैं, और (यजमानस्य) धार्मिक मनुष्य के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुखपूर्वक (गच्छतम्) प्राप्त कराते हैं, उन्हें तुम लोग युक्ति से सेवन करो ॥ ४ ॥ ३३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार हैं। जैसे सूर्य और विद्वान् क्रमशः सबको प्रकाशित, धारण, सहन, युक्त और प्राप्त करके सुख को प्राप्त कराते हैं वैसे ही शिल्प विद्या के सम्पादक विद्वान् के द्वारा यानों में युक्ति से सेवन किये हुये अग्नि और जल सुख से सर्वत्र गमन कराते हैं ।। ४ । ३३ ॥
प्रमाणार्थ
(उस्रौ) 'उस्रा:' शब्द निघं० (१ । ५ ) में रश्मि-नामों में और निघं० (२ । ११ ) में गौ-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३ । ३ । ४ । १२ ) में की गई है ।। ४ । ३३ ।।
भाष्यसार
१. सूर्य कैसा है--शिल्प के सम्पादक विद्वान् के लिये सूर्य अन्न-प्राप्ति का प्रेरक है, यह अव्यापी अर्थात् सर्वत्र व्यापक नहीं है, वीरों का हनन करने वाला भी नहीं है, रश्मिमान् तथा सब प्राणियों के निवास का हेतु है, पृथिवी और शरीर के धारण-भार को सहन करने वाला है। २. विद्वान् कैसा है--विद्या के अभिलाषी को विद्वान् आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करता है, विद्वान् अव्यापी अर्थात् सर्वत्र व्यापक नहीं होता, वह वीरों का हनन नहीं करता, विद्या की किरणों से युक्त, सूर्य और वायु के समान सब के निवास का हेतु और नाना ज्ञान-विज्ञानों को धारण करने वाला होता है। ३. सूर्य और विद्वान् से शिल्पविद् क्या करें-- शिल्प के इच्छुक लोग वृषभ के समान यान के संचालन के लिये सूर्य (अग्नि) को तथा विद्वान् को भी प्राप्त करें तथा इनके उपयोग से धार्मिक जनों के घरों को यान के द्वारा सुख से प्राप्त करें । ४. अलङ्कार--यहाँ श्लेष अलङ्कार से सूर्य और विद्वान् अर्थ का ग्रहण किया है। मन्त्र में उपमावाचक शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे सूर्य और विद्वान् अपने गुणों से सबको सुख पहुंचाते हैं, इसी प्रकार शिल्पविद्या के सम्पादक लोग यानादि के द्वारा सबको सुख पहुँचायें ।। ४ । ३३ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सूर्य जसा सर्व पदार्थांना प्रकाशित करतो व सुख देतो आणि विद्वान सर्वांना ज्ञानयुक्त बनवून सुखी करतो तसे कुशलतेने अग्नी व जलाचा वापर करणाऱ्या शिल्पविद्या जाणकारांनी तयार केलेल्या यानातून प्रवास करता येतो.
विषय
आता पुढील मंत्रात हे सांगितले आहे की सूर्य आणि विद्वान काय आहेत आणि शिल्पविद्या जाणणार्यांनी त्यांच्यापासून काय लाभ घ्यावा -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - मनुष्यानो, विद्या आणि शिल्पविद्येची जिज्ञासा बाळगणारे (संशोधक, वैज्ञानिक) विद्वान (ब्रह्मचोदनौ) अन्न प्राप्ती आणि विमानाच्या शोध-प्रयोगासाठी (अनश्चयू) अव्यापी असून म्हणजे एकदेशीय असून (अवीरहणौ) आपल्या वीरांची रक्षा करणारे आहेत (उसौ) प्रकाश देणार्या (सुर्य) आणि जीवन व निवास देणार्या (वायु) (धूर्षाहौ) पृथ्वी आणि जीवन आणि धर्माचे भारवहन करणारे विद्वान (एहम्) या सूर्य आणि वायूचा उपयोग करतात (युज्येथाम्) उपयुक्त कार्यात त्यांचा प्रयोग करतात आणि (यजमानस्य) धार्मिक यजमानाच्या (गृहान्) घरीं (स्वस्ति) सुखाने वा सुख देण्यासाठी (गच्छतम्) जातात, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील सूर्याच्या शक्तीचा आणि वायुच्या सामर्थ्याचा युक्तीने उपयोग करा आणि आपली कार्यसिद्धी करा ॥33॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात दोन काव्यालंकार आहेत- श्लेष आणि वाचकलुम्तोपना. ज्याप्रमाणे सूर्य सर्व पदार्थांना धारण करतो आणि विद्वान सहनशील होऊन सर्वांना सुख देतात वा करवितात, त्याचप्रमाणे शिल्पविद्येचे ज्ञाता विद्वान (वैज्ञानिक व यांत्रिकजन) युक्ती तंत्राद्वारे अग्नी आणि जलापासून शक्ती प्राप्त करून विविध वाहनांचे निर्माण करून त्यात सुखाने गमन वा प्रवास करतात. ॥33॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Let man and woman, who study the Vedas kill not their heroes, are limited in resources, be ever joyous, who live together and are fit to bear the burden of domestic life, be united together in married life. May such couples visit the houses of religious persons and give them happiness.
Meaning
Scholars dedicated to science and spirit in search of the good life should commit themselves to the study and application of the energy of the sun and Vayu (wind and electricity), both treasures of scientific power and means of comfort, to be specifically investigated and used just like two bullocks bearing the burdens for life’s comfort to the house of the master without tears or hurt to anybody but supporting the young and the brave. The scholars also, for guidance, should reach the senior man of knowledge who, too, silently bears the burdens of life for the knowledge and comfort of others. Let the joy and comfort of this scientific yajna, in consequence, reach the home of the yajamana.
Translation
Come on you two illuminators, capable of undertaking the responsibilities, injuring no man, and inspiring the supreme spirit; get yourselves engaged with joy. Take us to the home of the sacrificer safe and secure. (1)
Notes
Usra, उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्, rays; illuminators. Einm, आ इतम् come on. Anedra, with joy; without tears.
बंगाली (1)
विषय
অথ সূর্য়্যবিদ্বাংসৌ কথংভূতাবেতাভ্যাং শিল্পবিদৌ কিং কুর্য়্যাতামিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন সূর্য্য ও বিদ্বান্ কেমন এবং তাহাদিগের হইতে শিল্পবিদ্যাজ্ঞাতা কী করিবে, উহাই পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন বিদ্যা ও শিল্পক্রিয়া প্রাপ্ত হইবার ইচ্ছা সম্পন্ন (ব্রহ্মচোদনৌ) অন্ন ও বিজ্ঞান প্রাপ্তির (অনশ্রূ) অব্যাপী (অবীরহণৌ) বীরদিগের রক্ষণকারী (উস্রৌ) জ্যোতিযুক্ত ও নিবাস হেতু (ধুর্ষাহৌ) পৃথিবী ও ধর্মের ভার ধারণকারী বিদ্বান্ (আ ইতম্) সূর্য্য ও বায়ু প্রাপ্ত হন্ বা (য়ুজ্যেথাম্) যুক্ত করেন এবং (য়জমানস্য) ধার্মিক যজমানের (গৃহান্) গৃহকে (স্বস্তি) সুখপূর্বক (গচ্ছতম্) গমন করেন সেইরূপ তুমিও তাহাদিগকে যুক্তি সহ সংযুক্ত করিয়া কার্য্যগুলি সিদ্ধ করিতে থাক ॥ ৩৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন সূর্য্য ও বিদ্বান্ সকল পদার্থ ধারণকারী সহনযুক্ত এবং প্রাপ্ত হইয়া সুখকে প্রাপ্ত করায় সেইরূপ শিল্পবিদ্যা জ্ঞাতা বিদ্বান্ দ্বারা যানগুলিতে যুক্তিপূর্বক সেবন কৃত অগ্নি ও জল আরোহীদিগকে চালিত করিয়া সর্বত্র সুখপূর্বক গমন করায় ॥ ৩৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উস্রা॒বেতং॑ ধূর্ষাহৌ য়ু॒জ্যেথা॑মন॒শ্রূऽঅবী॑রহণৌ ব্রহ্ম॒চোদ॑নৌ ।
স্ব॒স্তি য়জ॑মানস্য গৃ॒হান্ গ॑চ্ছতম্ ॥ ৩৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উস্রাবেতমিত্যস্য বৎস ঋষিঃ । সূর্য়্যবিদ্বাংসৌ দেবতে । পূর্বস্য নিচৃদার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ । স্বস্তীত্যন্তস্য য়াজুষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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