यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 23
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - वाग्विद्युतौ देवते
छन्दः - आस्तार पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
171
सम॑ख्ये दे॒व्या धि॒या सं दक्षि॑णयो॒रुच॑क्ष॒सा। मा म॒ऽआयुः॒ प्रमो॑षी॒र्मोऽअ॒हं तव॑ वी॒रं वि॑देय॒ तव॑ देवि स॒न्दृशि॑॥२३॥
स्वर सहित पद पाठसम्। अ॒ख्ये॒। दे॒व्या। धि॒या। सम्। दक्षि॑णया। उ॒रुच॑क्ष॒सेत्यु॒रुऽच॑क्षसा। मा। मे॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒। मोऽइति॒ मो। अ॒हम्। तव॑। वी॒रम्। वि॒दे॒य॒। तव॑। देवि॒। संदृशीति॑ स॒म्ऽदृशि॑ ॥२३॥
स्वर रहित मन्त्र
समख्ये देव्या धिया सन्दक्षिणयोरुचक्षसा मा म आयुः प्र मोषीर्मा अहन्तव वीरँविदेय तव देवि सन्दृशि ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। अख्ये। देव्या। धिया। सम्। दक्षिणया। उरुचक्षसेत्युरुऽचक्षसा। मा। मे। आयुः। प्र। मोषीः। मोऽइति मो। अहम्। तव। वीरम्। विदेय। तव। देवि। संदृशीति सम्ऽदृशि॥२३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
एतयोः कथमुपयोगः कार्य्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन्मनुष्य! यथाहं दक्षिणयोरुचक्षसा देव्या धिया तव देवि तस्या दिव्यगुणैर्विराजमानाया वाचो विद्युतो वा संदृशि जीवनं समख्ये, सा मे ममायुर्मा प्रमोषीः खण्डनं न कुर्य्यादहमेतां समख्ये प्रख्यातां कुर्य्यामन्यायेन तव वीरं मो मा संविदेय, तथैव त्वमेतत् सर्वमाचर्य्यान्यायेनापि मम वीरं च मा संविन्दस्व॥२३॥
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे (अख्ये) प्रकथयामि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं लडर्थे लुङ् च (देव्या) देदीप्यमानया (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (सम्) एकीभावे (दक्षिणया) ज्ञानसाधिकयाऽज्ञाननाशिकया च (उरुचक्षसा) उरु बहु चक्षो व्यक्तं वचनं दर्शनं वा यस्यास्तया (मा) निषेधे (मे) मम (आयुः) जीवनम् (प्र) क्रियायोगे (मोषीः) मुष्णीयात् खण्डयेत्। अत्र लिङर्थे लुङ् (मो) निवारणे (अहम्) सर्वप्रियं प्रेप्सुः (तव) सर्वसुहृदः (वीरम्) विक्रान्तं जनम् (विदेय) अन्यायेन विन्देय। अत्र वा छन्दासि सर्वे विधयो भवन्ति। [अष्टा॰भा॰वा॰१.४.९] इति नुमभावः। अत्रावैयाकरणेन महीधरेण भ्रान्त्या विद्लृलाभ इत्यस्य व्यत्ययेन तुदादिभ्यः शप्रत्ययेन लिङि रूपमित्यशुद्धं व्याख्यातम्। कुतः? विद्लृ धातोः स्वत एव तुदादित्वं वर्त्तते (तव) तस्याः (देवि) दिव्यगुणैर्विराजमानायाः। अत्र अर्थाद्विभक्तेर्विपरिणामः। [अष्टा॰भा॰वा॰१.३.९] इति विभक्तेर्विपरिणामः (संदृशः) समीचीनं दृग्दर्शनं यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन्। अयं मन्त्रःशत॰३.३.१.१२) व्याख्यातः॥२३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः शुद्धाभ्यां कर्मप्रज्ञाभ्यां वाग्विद्युद्विद्यां संगृह्य जीवनं वर्धयित्वा विद्यादिसद्गुणेषु वीरान् सम्पाद्य सदा सुखयितव्यम्॥२३॥
विषयः
एतयोः कथमुपयोगः कार्य इत्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
हे विद्वन् मनुष्य! यथाऽहं सर्वप्रियं प्रेप्सुः दक्षिणया ज्ञानसाधिकयाज्ञाननाशिकया च उरुचक्षसा उरु=बहु चक्षो=व्यक्तं वचनं दर्शनं वा यस्यास्तया देव्या देदीप्यमानया धिया प्रज्ञया कर्मणा वा तव तस्याः देवि=तस्या दिव्यगुणैर्विराजमानाया वाचो विद्युतो वा, संदृशि समीचीनं दृग्=दर्शनं यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् जीवनं समख्ये सम्यक् प्रकथयामि, सा मे=मम आयुः जीवनं मा प्रमोषीः=खण्डनं न कुर्यात् न मुष्णीयात्=खण्डयेत्, अहं सर्वप्रियं प्रेप्सुः एतां समख्ये=प्रख्यातां कुर्य्यामन्यायेन तव सर्वसुहृदः वीरं विक्रान्तं जनं मो=मा संविदेय अन्यायेन एकीभूय न विन्देय तथैव त्वमेतत् सर्वमाचर्य्यान्यायेनापि मम वीरं विक्रान्तं जनं च [मो विदेय]=मा संविन्दस्व ॥ ४ । १३ ।। [अहं.......देव्या धिया तव देवि=तस्या दिव्यगुणैर्विराजमानाया वाचो विद्युतो वा संदृशि जीवनं समख्ये.....वीरं मो=मा संविदेय]
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे (अख्ये) प्रकथयामि । अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं लडर्थे लुङ् च (देव्या) देदीप्यमानया (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (सम्) एकीभावे (दक्षिणया) ज्ञानसाधिकयाऽज्ञाननाशिकया च (उरुचक्षसा) उरु=बहु चक्षो=व्यक्तं वचनं दर्शनं वा यस्यास्तया (मा) निषेधे (मे) मम (आयुः) जीवनम् (प्र) क्रियायोगे (मोषी:) मुष्णीयात्खण्डयेत् । अत्र लिङर्थे लुङ् (मो) निवारणे (अहम्) सर्वप्रियं प्रेप्सुः (तव) सर्वसुहृदः (वीरम्) विक्रान्तं जनम् (विदेय) अन्यायेन विन्देय। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावः। अत्रावैयाकरणेन महीधरेण भ्रान्त्या विद्लृलाभ इत्यस्य व्यत्ययेन तुदादिभ्यः शप्रत्ययेन लिङि रूपमित्यशुद्धं व्याख्यातम् । कुतः? विद्लृ धातो: स्वत एव तुदादित्वं वर्त्तते (तव) तस्याः (देवि) दिव्यगुणैर्विराजमानायाः। अत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणाम इति विभक्तेर्विपरिणाम: (संदृशि) समीचीनं दृग्दर्शनं यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन्॥ अयं मंत्रः श० ३। ३ । १ । १२ व्याख्यातः॥ २३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥ मनुष्यैः शुद्धाभ्यां कर्मप्रज्ञाभ्यां वाग्विद्युद्विद्यां संगृह्य जीवनं वर्धयित्वा विद्यादिसद्गुणेषु वीरान् सम्पाद्य सदा सुखयितव्यम् ।। ४ । २३।।
भावार्थ पदार्थः
देव्या=शुद्धया ।
विशेषः
वत्सः । वाग्विद्युतौ=वाणी विद्युच्च॥ आस्तारपंक्तिश्छन्दः । पंचमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
इन दोनों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वन् मनुष्य! जैसे (अहम्) मैं (दक्षिणया) ज्ञानसाधक अज्ञाननाशक (उरुचक्षसा) बहुत प्रकट वचन वा दर्शनयुक्त (देव्या) देदीप्यमान (धिया) प्रज्ञा वा कर्म से (तव) उस (देवि) सर्वोत्कृष्ट गुणों से युक्त वाणी वा बिजुली के (संदृशि) अच्छे प्रकार देखने योग्य व्यवहार में जीवन को (समख्ये) कथन से प्रकट करता हूं वह (मे) मेरे (आयुः) जीवन को (मा प्रमोषीः) नाश न करे, उसको मैं अविद्या से नष्ट न करूं (तव) हे सब के मित्र! अन्याय से आपके (वीरम्) शूरवीर को (मो संविदेय) प्राप्त न होऊं, वैसे ही तू भी पूर्वोक्त सब करके अन्याय से मेरे शूरवीरों को प्राप्त मत हो॥२३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि शुद्ध कर्म वा प्रज्ञा से वाणी वा बिजुली की विद्या को ग्रहण कर उमर को बढ़ा और विद्यादि उत्तम-उत्तम गुणों में अपने सन्तान और वीरों को सम्पादन करके सदा सुखी रहें॥२३॥
विषय
वेदवाणी के सन्दर्शन में
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में आचार्य से वेदवाणी के पढ़ने का उल्लेख था। वेदवाणी का पढ़नेवाला यह ‘वत्स’ कहता है कि मैं ( सम् अख्ये ) = [ सं चक्ष् ] इस वेदवाणी का दर्शन करता हूँ, [ क ]( देव्या धिया ) = प्रकाशमय बुद्धि के दृष्टिकोण से। मैं इसलिए वेदवाणी को पढ़ता हूँ कि मेरी बुद्धि प्रकाशमय हो, मेरा ज्ञान उज्ज्वल हो। [ ख ] ( सम् ) [ अख्ये ] = मैं इस वेदवाणी का दर्शन करता हूँ, ( दक्षिणया ) [ धिया ] = दक्षिण क्रिया के हेतु से [ धी = कर्म ] इसलिए वेदवाणी को पढ़ता हूँ कि मेरे कर्म कुशलता से, दक्षिणता से किये जाएँ। कुशलता से किये जाकर वे कर्म मेरे लिए बन्धनशील न हों। [ ग ] ( उरुचक्षसा ) [ धिया ] = विशाल दृष्टि के ध्यान से [ धी = ध्यान ]। मैं वेदवाणी का अध्ययन इसलिए करता हूँ कि मेरा प्रत्येक कर्म विशाल दृष्टिकोण से प्रेरित होकर हो, मैं केवल अपना हित देखकर कर्म करनेवाला न बन जाऊँ। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि यह वेदवाणी हमारी बुद्धि को उज्ज्वल बनाती है, हमें कुशलता से कार्य करनेवाला करती है और हमारे दृष्टिकोण को विशाल बनाती है।
२. वत्स इस वेदवाणी से प्रार्थना करता है कि ( मे ) = मेरे ( आयुः ) = जीवन को ( मा ) = मत ( प्रमोषीः ) = चुराना, लुप्त करना। वेदवाणी के द्वारा मैं सुन्दर दीर्घजीवन को प्राप्त करूँ।( मा उ ) = और न ही ( अहम् ) = मैं ( तव ) = तेरा प्रमोषण करूँ, अर्थात् मेरे जीवन में वेदवाणी का सतत अध्ययन होता ही रहे। हे ( देवि ) = मेरे जीवन को प्रकाशमय करनेवाली वाणि! मैं ( तव सन्दृशि ) = तेरे सन्दर्शन में ही अपने सम्पूर्ण जीवन का यापन करूँ। कभी तेरी आँख से ओझल न होऊँ। तेरी प्रेरणा के अनुसार ही मेरे सारे कार्य हों। मैं इस ( वीरं विदेय ) = शत्रुओं के कम्पित करनेवाले ज्ञान को प्राप्त करूँ।
भावार्थ
भावार्थ — वेदवाणी के अध्ययन से हमारी प्रज्ञा [ धी ] उज्ज्वल हो, हमारे कर्म कुशलता से किये जाएँ और कर्मों के करते समय हमारा दृष्टिकोण विशाल हो।
विषय
वेदवाणी, विद्युत्, और पत्नी का वर्णन।
भावार्थ
( देव्या धिया ) दिव्यगुण युक्त, प्रकाश ज्ञानवती ( धिया ) प्रज्ञा से ( सम् अख्ये) विवेक करके मैं कथन करूं, उपदेश करूं । ( दक्षिणया ) अति ज्ञानयुक्त, अज्ञाननाशक बलवती और ( उरुचक्षसा ) अति अधिक देखने वाली दर्शन शक्ति से देख भालकर मैं ( सम् अख्ये ) सत्य बात का उपदेश करूं । हे ( देवि ) देवि ! सर्व सत्य प्रकाश करने, दर्शाने वाली वेदवाणी ! ( तव संदृशि ) तेरे दिखाये उत्तम सम्यक् दर्शन में रहते हुए ( मे आयुः ) मेरे जीवन को तू ( मा प्रमोषी: ) विनाश मत कर । ( मा उ अहं तव ) और न मैं तेरे जीवन का नाश करूं और मैं ( वीरं विदेय ) वीर पुरुषों का लाभ करूं । वैदिक व्यवस्था से विवेक पूर्वक राष्ट्र के शासन का निरीक्षण करूं । वह राजा व्यवस्था का नाश करे और व्यवस्था राजा के अधिकार का नाश न करें और वीर पुरुष राजा को प्राप्त हों ॥
विद्युत् पक्ष में-- उस प्रकाशवती धारक विद्युत शक्ति के प्रकाश से हम अन्धकार दूर करके देखे । विद्युत् के आघात हमें नाश न करे । न हम विद्युत् का नाश करें। उसके प्रकाश में हम शक्तियुक्त पदार्थों का लाभ करें ॥
पत्नी के पक्ष में- धारण पोषण में समर्थ देवी कार्यकुशल दीर्घ- दर्शिनी पत्नी के द्वारा में समस्त कार्यों का निरीक्षण करूं। मैं उसके और वह मेरे जीवन का नाश न करे उसके सम्यग दर्शन में वीर पुत्र का लाभ करूं। इसी प्रकार देवी, विद्वत्सभा के पक्ष में भी योजना करनी चाहिये ।।
शत० ३।३।१।१२-१६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आशी वाग्विद्युतौ, गौर्वा देवता ।आस्तारपंक्ति । पञ्चम स्वरः ॥ .
विषय
वाणी और विद्युत् इन दोनों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे विद्वान् मनुष्य! जैसे (अहम्) सबका प्रिय चाहने वाला मैं (दक्षिणया) ज्ञानसाधक और अज्ञान-नाशक (उरुचक्षसा) अत्यन्त स्पष्ट कथन वा दर्शन युक्त (देव्या) प्रकाशमान (धिया) बुद्धि वा कर्म से (तव) आपकी (देवी) दिव्यगुणों से शोभायमान उस वाणी अथवा विद्युत् के (संदृशि) ठीक-ठीक दर्शन कराने वाले कार्य में जीवन को (समख्ये) प्रसिद्ध करता हूँ। वह वाणी वा विद्युत् (मे) मेरे (आयु:) जीवन को (मा प्रमोषी:) खण्डित न करे और (अहम्) सबका प्रिय चाहने वाला मैं इस वाणी वा विद्युत् को (समख्ये) प्रसिद्ध करूँ तथा अन्याय से (तव) सब के मित्र आपके (वीरम्) विक्रमशाली मनुष्य को (मो संविदेय) अन्याय से संगठित होकर प्राप्त न होऊँ वैसे ही तू यह सब आचरण करके अन्याय से भी मेरे (वीरम्) विक्रमशाली मनुष्य को [ मो विदेय] प्राप्त न हो ।। ४ । २३ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। सब मनुष्य शुद्ध कर्म और बुद्धि से वाग्-विद्या और विद्युद्-विद्या को ग्रहण करके, आयु को बढ़ाकर, वीरों को विद्यादि गुणों में सिद्ध करके सदा सुखी रहें ।। ४ । २३ ।।
प्रमाणार्थ
(अख्ये) प्रकथयामि । यहाँ व्यत्यय से आत्मनेपद और लट् अर्थ में लुङ् लकार है। (मोषी:) मुष्णीयात् । यहाँ लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है। (विदेय) विन्देय । यहाँ ‘वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति' [अ० महा० १ । ४ । ९ ] इस भाष्य-वचन से 'नुम्' का अभाव है। यहाँ पर व्याकरणशास्त्र से अनभिज्ञ महीधर ने भ्रान्ति से इस रूप को 'विद्लृ लाभे' इस धातु का व्यत्यय से "तुदादिभ्यः शः [अ० ३ । १ । ७७] सूत्र द्वारा 'श' प्रत्यय से लिङ् लकार में सिद्ध किया है जो सर्वथा अशुद्ध है, क्योंकि 'विद्लृ' धातु का पाठ तो तुदादिगण में है ही, फिर व्यत्यय से तुदादि में इस धातु की गणना करना भ्रान्ति नहीं तो और क्या है? (देवि) यहाँ अर्थाद्विभक्तेर्विपरिणामः' इस सिद्धान्त से विभक्ति का विपरिणाम (परिवर्तन) है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ३ । १ । १२) में की गई है । ४ । २३ ।।
भाष्यसार
१. वाणी का उपयोग--सबके प्रिय बनने के इच्छुक मनुष्य ज्ञान को सिद्ध करने वाली और अज्ञान का नाश करने वाली, स्पष्ट भाषण तथा दर्शन का साधन, दिव्य गुणों से देदीप्यमान बुद्धि के द्वारा और पुरुषार्थ से वेद-वाणी के प्रकाश में अपने जीवन का अध्ययन करें, आयु को बढ़ावें, इस वाणी को लोक में प्रख्यात करें। वीर पुरुषों को भी वाणी के द्वारा विद्यादि गुणों से भूषित करें । २. विद्युत् का उपयोग--सब के प्रिय बनने के अभिलाषी मनुष्य ज्ञान साधक, अज्ञान-नाशक, व्यक्त वाचक तथा स्पष्ट दर्शक, दिव्य बुद्धि के द्वारा तथा कर्म के द्वारा दिव्यगुणों से प्रकाशित विद्युत् के प्रकाश मंव अपने जीवन को सुखी बनावें, आयु को बढ़ावें, विद्युत् विद्या को लोक में प्रख्यात करें । वीर जनों को भी विद्युत् विद्या सिखला कर सदा सुखी रहें। ३. अलङ्कार--मन्त्र में उपमा वाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे विद्वान् लोग वाणी और विद्युत्-विद्या का उपयोग करें इसी प्रकार अन्य जन भी इनका उपयोग करें ।। ४ । २३ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी शुद्ध कर्माने व आपल्या प्रज्ञेने वाणी व विद्युत विद्या ग्रहण करावी आणि आपले आयुष्य वाढवावे. आपली मुले व वीरपुरुष यांना विद्या इत्यादी गुणांनी युक्त करून सुखी बनावे.
विषय
पुनश्च, या दोन्हींचा (वाणी व विद्युत) उपयोग कशाप्रकारे करावा, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ : हे विद्वान् मनुष्य, (अहम्) मी (दक्षिणमा) ज्ञानसाधिका व अज्ञाननाशिका अशा बुद्धीद्वारे तसेच (अरूचक्षसा) वाणी व पाहणे याद्वारे (देव्या) देदीप्यमान वृद्धीमान (घिया) होणार्या बुद्धीद्वारे तसेच त्याच्या कृतीद्वारे (तव) त्या (देवि) उत्कृष्टगुणांनी युक्त अशा वाणीविषयी व विद्युतेविषयी (संहशि) जीवनाला उत्तम व्यवहार शिकविणार्या गुणांचे (समरन्ये) कथन करीत आहे. (बुद्धीद्वारे निश्चित केलेल्या सिद्दांत व त्यांचे प्रयोग व कृतीची उपयुक्त माहिती तुला सांगत आहे) ते ज्ञान व ती कृती अशी आहे किंवा असावी की ज्यामुळे (म) माझ्या (आयुः) जीवनाला कोणती हानी (मा प्रयोषीः) होऊ नये. तसेच माझ्या आविष्कृत ज्ञानामुळे अथवा माझ्या अज्ञानामुळे (मो) तुझी देखील किंवा हानी होऊ नये). (तव) तू सर्वाचा मित्र हो. तुझ्या हातून अन्यायाने (वीरम्) माझ्या शूरवीरांची हिंसा वा हानी (मा संविदेयम्) होऊ नये. त्याचप्रमाणे माझ्याकडून अन्याय वा अज्ञानामुळे तुझ्या वीरांची हिंसा वा हानी होऊ नये. (विज्ञानाने सिद्ध वा आविष्कृत साधने व विद्युतेचा उपयोग करून शोध लावलेली शस्त्रे मित्रांमधे हिंसा व संघर्ष करणारी होऊ नयेत ती शत्रूविरूद्ध वापरलेली जाणीव, असा अभिप्रेत आशय आहे) ॥23॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांसाठी उचित आवश्यक आहे की त्यांनी शुद्ध कर्म वा कृती करीत शुद्ध बुद्धी व विचाराने वाणीची आणि विद्युतेची विद्या जाणून घ्यावी व त्याद्वारे स्वतःचे आयुष्य वाढवावे तसेच त्या प्राप्त ज्ञान विद्यांनी आपल्या संतानाला व वीरजनांना लाभान्वित करावे. अशा प्रकारे सर्वांनी सर्वांसह सुखी आनंदी असावे ॥23॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O speech, I praise thee with divine, ignorance-removing and penetrating intelligence. End not my life. I will not through ignorance spoil thee. O vedic text, in thy protection, may I be blessed with heroism.
Meaning
With a vision and intelligence, inspired, enlightened and versatile, precise, scientific and practical, I clearly see the divine gifts of natural energy and the voice of the Veda, and describe and show them applied and enacted in actual life. May this energy and this voice never hurt my life. May I never neglect or lose it. May I never be unfair to your heroes. You too never be unjust to my heroes.
Translation
O illuminating intellect, I have seen you with the divine thought and extensive vision. May you not steal my life, nor shall I yours. May I get a hero-son by your divine grace. (1)
Notes
Devi, O illuminating intellect ! Sam akhye, I have seen. Mä pramosih, do not steal. From मुष् स्तेये, to steal. Ма п akam tava, nor I yours.
बंगाली (1)
विषय
এতয়োঃ কথমুপয়োগঃ কার্য়্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
এই দুইটির কীভাবে ব্যবহার করা উচিত এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বিদ্বান্ মনুষ্য । যেমন (অহম্) আমি (দক্ষিণয়া) জ্ঞানসাধক অজ্ঞান নাশক (উরুচক্ষসা) বহু ব্যক্ত বচন বা দর্শনযুক্ত (দেব্যা) দেদীপ্যমান (ধিয়া) প্রজ্ঞা বা কর্ম দ্বারা (তব) সেই (দেবি) সর্বোৎকৃষ্ট গুণযুক্ত বাণী বা বিদ্যুতের (সংদৃশি) সম্যক্ প্রকার দেখিবার যোগ্য ব্যবহারে জীবনকে (সমখ্যে) কথন দ্বারা প্রকট করিতেছি সে (মে) আমার (আয়ুঃ) জীবনকে (মা প্রমোষীঃ) নাশ করে না, উহাকে আমি অবিদ্যা দ্বারা (মো) নষ্ট না করি (তব) হে সকলের মিত্র ! অন্যায়পূর্বক আপনার (বীরম্) শূরবীরকে (মা সংবিদেয়) প্রাপ্ত না হই, সেইরূপ তুমিও পূর্বোক্ত সকল অন্যায় হইতে আমার শূরবীরগণকে দূরে রাখ ॥ ২৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচক লুপ্তোপমাললঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের কর্ত্তব্য এই যে, শুদ্ধ কর্ম বা প্রজ্ঞা দ্বারা বাণী বা বিদ্যুতের বিদ্যা গ্রহণ করিয়া আয়ু বৃদ্ধি করে এবং বিদ্যাদি উত্তম উত্তম গুণে স্বীয় সন্তান ও বীরগণকে সম্পাদন করিয়া সর্বদা সুখী থাকে ॥ ২৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সম॑খ্যে দে॒ব্যা ধি॒য়া সং দক্ষি॑ণয়ো॒রুচ॑ক্ষ॒সা । মা ম॒ऽআয়ুঃ॒ প্র মো॑ষী॒র্মোऽঅ॒হং তব॑ বী॒রং বি॑দেয়॒ তব॑ দেবি সং॒দৃশি॑ ॥ ২৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমখ্য ইত্যস্য বৎস ঋষিঃ । বাগ্বিদ্যুতৌ দেবতে । আস্তারপংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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