यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - निचृत् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
209
चि॒त्पति॑र्मा पुनातु वा॒क्पति॑र्मा पुनातु दे॒वो मा॑ सवि॒ता पु॑ना॒त्वच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तस्य॑ ते पवित्रपते प॒वित्र॑पूतस्य॒ यत्का॑मः पु॒ने तच्छ॑केयम्॥४॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्पति॒रिति॑ चि॒त्ऽपतिः॑। मा॒। पु॒ना॒तु। वा॒क्पति॒रिति॑ वाक्ऽपतिः॑। मा॒। पु॒ना॒तु॒। दे॒वः। मा॒। स॒वि॒ता। पु॒ना॒तु॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॑रिति॑ र॒श्मिऽभिः॒। तस्य॑। ते॒। प॒वि॒त्र॒प॒त॒ इति॑ प॒वित्र॑ऽपते। प॒वित्र॑पूत॒स्येति॑ प॒वित्र॑ऽपूतस्य। यत्का॑म॒ इति॒ यत्ऽका॑मः। पुने। तत्। श॒के॒य॒म् ॥४॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पतिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनावच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
चित्पतिरिति चित्ऽपतिः। मा। पुनातु। वाक्पतिरिति वाक्ऽपतिः। मा। पुनातु। देवः। मा। सविता। पुनातु। अच्छिद्रेण। पवित्रेण। सूर्य्यस्य। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। तस्य। ते। पवित्रपत इति पवित्रऽपते। पवित्रपूतस्येति पवित्रऽपूतस्य। यत्काम इति यत्ऽकामः। पुने। तत्। शकेयम्॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
येन सूर्य्यादिकं जगद्रचितं सोऽस्मदर्थं किं किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे पवित्रपते परमात्मन् चित्पतिर्वाक्पतिः सविता देवो भवान् पवित्रेणाच्छिद्रेण विज्ञानेन सूर्यस्य रश्मिभिश्च मा मां मम चित्तं च पुनातु। मा मां मम वाचं च पुनातु। मा मां मम चक्षुश्च पुनातु। यस्य पवित्रपूतस्य कृपया यत्कामोऽहं पुने पवित्रो भवामि। यस्य ते तवोपासनया पवित्रं कर्म कर्त्तुं शक्नुयाम्, तस्य सेवा कर्तुं योग्या मे कथं न भवेत्॥४॥
पदार्थः
(चित्पतिः) चेतयति येन विज्ञानेन तस्य पतिः पालयिताऽधिष्ठातेश्वरो भवान् (मा) माम् (पुनातु) पवित्रं करोतु (वाक्पतिः) यो वायो वेदविद्यायाः पतिः स्वामी पालयिता (मा) माम् (पुनातु) विद्वांसं कृत्वा पवित्रयतु (देवः) यः स्वप्रकाशेन सर्वस्य प्रकाशकः (मा) माम् (सविता) सर्वस्य जगतो दिव्यस्य प्रसवितोत्पादकः (पुनातु) शोधयतु शुद्धं करोतु (अच्छिद्रेण) अविनाशिना विज्ञानेन (पवित्रेण) शुद्धिकारकेण (सूर्य्यस्य) सवितृमण्डलस्य प्राणस्य वा (रश्मिभिः) प्रकाशैर्गमनागमनैः (तस्य) जगदीश्वरस्य (ते) तव (पवित्रपते) पवित्रस्य पालयितः पवित्रपूतस्य यः पवित्रैः शुद्धैः स्वाभाविकैर्विज्ञानादिभिर्गुणैः पूतः पवित्रस्तस्य (यत्कामः) यः कामो यस्य सः (पुने) पवित्रो भवामि (तत्) पवित्रं कर्म (शकेयम्) शक्नुयाम्। अयं मन्त्रः (शत॰३.१.३.२२-२३) व्याख्यातः॥४॥
भावार्थः
मनुष्यैर्येन वेदविज्ञात्रा पत्या परमेश्वरेण विद्याभूजलवायुसूर्य्यादयः शुद्धिकारकाः पदार्थाः प्रकाशितास्तस्योपासना पवित्रकर्मानुष्ठानाभ्यां मनुष्यैः पूर्णकामः पवित्रता च कार्य्या॥४॥
विषयः
येन सूर्य्यादिकं जगद्रचितं सोऽस्मदर्थं किं किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
हे पवित्रपते ! पवित्रस्य पालयितः ! परमात्मन्! चित्पतिः चेतयति येन विज्ञानेन तस्य पतिः=पालयिताऽधिष्ठानेश्वरो भवान् वाक्पतिः यो वाचो=वेदविद्यायाः पतिः=स्वामी पालयिता, सविता सर्वस्य जगतो दिव्यस्य प्रसवितोत्पादकः,देवः यः स्वप्रकाशेन सर्वस्य प्रकाशकः भवान्, पवित्रेण शुद्धिकारकेण अच्छिद्रेण=विज्ञानेन अविनाशिना विज्ञानेन सूर्यस्य सवितृमण्डलस्य प्राणस्य वा रश्मिभिः प्रकाशैर्गमनागमनैःच, मा=मां मम चित्तं च पुनातु पवित्रं करोतु, मा=मां मम वाचं च पुनातु विद्वांसं कृत्वा पवित्रयतु, मा=मां मम चक्षुश्च पुनातु शोधयतु=शुद्धं करोतु।
यस्य पवित्रपूतस्य यः पवित्रैः=शुद्धैः स्वभाविकैर्विज्ञानादिभिर्गुणैः पूतः=पवित्रस्तस्य कृपया यत्कामः यः कामो यस्य सः,अहं पुने=पवित्रो भवामि।
यस्य ते=तवोपासनया [तत्]=पवित्रं कर्म कर्तुं [शकेयं]=शक्नुयां, तस्य जगदीश्वरस्य सेवा कर्तुं योग्या मे कथं न भवेत् ॥ ४ ॥ ४ ॥
[ हे पवित्रपते परमात्मन्!......भवान् पवित्रेणाच्छिद्रेण=विज्ञानेन सूर्यस्य रश्मिभिश्च मा=मां मम चित्तं
च पुनातु, यस्य पवित्रपूतस्य कृपया यत्कामोऽहं=पुने=पवित्रो भवामि ]
पदार्थः
(चित्पतिः) चेतयति येन विज्ञानेन तस्प पतिः=पालयिताऽधिष्ठातेश्वरो भवान् (मा) माम् (पुनातु) पवित्रं करोतु (वाक्पतिः) यो वाचो=वेदविद्यायाः पतिः=स्वामी पालयिता (मा) माम् (पुनातु) विद्वांसं कृत्वा पवित्रयतु (देवः) यः स्वप्रकाशेन सर्वस्य प्रकाशकः (मा) माम् (सविता) सर्वस्य जगतो दिव्यस्य प्रसवितोत्पादकः (पुनातु) शोधयतु=शुद्धं करोतु (अच्छिद्रेण) अविनाशिना विज्ञानेन (पवित्रेण) शुद्धिकारकेण (सूर्य्यस्य) सवितृमण्डलस्य प्राणस्य वा (रश्मिभिः) प्रकाशैर्गमनागमनैः (तस्य) जगदीश्वरस्य (ते) तव (पवित्रपते) पवित्रस्य पालयित: (पवित्रपूतस्य) यः पवित्रैः=शुद्धैः स्वाभाविकैर्विज्ञानादिभिर्गुणैः पूतः=पवित्रस्तस्य (यत्कामः) यः कामो यस्य सः (पुने) पवित्रो भवामि (तत्) पवित्रं कर्म (शकेयम्) शक्नुयाम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ३ ।१ ।३ ।२२–२३ व्याख्यातः ।। ४ ।।
भावार्थः
मनुष्यैर्येन वेदविज्ञात्रा पत्या परमेश्वरेण विद्याभूजलवायुसूर्यादयः शुद्धिकारकाः पदार्थाः प्रकाशितास्तस्योपासनापवित्रकर्मानुष्ठानाभ्यां मनुष्यैः पूर्णकाम: पवित्रता च कार्या ॥ ४।४ ॥
विशेषः
प्रजापतिः । परमात्मा=स्पष्टम्।।निचृद्ब्राह्मी पंक्तिः ।पंचम ॥
हिन्दी (4)
विषय
जिसने सूर्य्य आदि सब जगत् को बनाया है, वह परमात्मा हमारे लिये क्या-क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (पवित्रपते) पवित्रता के पालन करनेहारे परमेश्वर! (चित्पतिः) विज्ञान के स्वामी (वाक्पतिः) वाणी को निर्मल और (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करने वाले (देवः) दिव्य स्वरूप आप (पवित्रेण) शुद्ध करने वाले (अच्छिद्रेण) अविनाशी विज्ञान वा (सूर्यस्य) सूर्य और प्राण के (रश्मिभिः) प्रकाश और गमनागमनों से (मा) मुझ और मेरे चित्त को (पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ और मेरी वाणी को (पुनातु) पवित्र कीजिये, (मा) मुझ तथा मेरे चक्षु को (पुनातु) पवित्र कीजिये, जिस (पवित्रपूतस्य) शुद्ध स्वाभाविक विज्ञान आदि गुणों से पवित्र (ते) आप की कृपा से (यत्कामः) जिस उत्तम कामनायुक्त मैं (पुने) पवित्र होता हूं, जिस (ते) आपकी उपासना से (तत्) उस अत्युत्तम कर्म के करने को (शकेयम्) समर्थ होऊँ, उस आपकी सेवा मुझ को क्यों न करनी चाहिये॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि जिस वेद के जानने वा पालन करने वाले परमेश्वर ने वेदविद्या, पृथिवी, जल, वायु और सूर्य्य आदि शुद्धि करने वाले पदार्थ प्रकाशित किये हैं, उसकी उपासना तथा पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्यों को पूर्ण कामना और पवित्रता का सम्पादन अवश्य करना चाहिये॥४॥
विषय
कामनापूरक प्रभु
पदार्थ
१. तृतीय मन्त्र में शरीर को पवित्र करके अब चतुर्थ मन्त्र में मानस पवित्रता के लिए प्रजापति ही प्रार्थना करते हैं कि ( चित्पतिः ) = ज्ञान के पति प्रभु ( मा ) = मुझे ( पुनातु ) = पवित्र करें। वस्तुतः ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला कुछ नहीं है।
२. ( वाक्पतिः ) = वेदवाणी का पति ( मा पुनातु ) = मुझे पवित्र करे। प्रभु वेदवाणी के रूप में ही ज्ञान देते हैं। वेदवाणी का नियमित स्वाध्याय हमारे जीवनों को पवित्र कर देता है।
३. ( मा ) = मुझे ( सविता देवः ) = वह प्रेरक देव ( अच्छिद्रेण पवित्रेण ) = छिद्ररहित पवित्रीकरण के साधनभूत वायु से तथा ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) = सूर्यकिरणों से ( पुनातु ) = पवित्र करें। स्वच्छ वायु और सूर्यकिरणें शरीर व मानस स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।
४. वे प्रभु पवित्रीकरण के साधनभूत सब पदार्थों के स्वामी हैं। चाहे वह ज्ञान है चाहे वायु व सूर्यकिरणें—सभी के स्वामी प्रभु हैं। हे ( पवित्रपते ) = सब पवित्र करनेवाले पदार्थों के स्वामिन्! ( तस्य ते ) = उन आपके ( पवित्रपूतस्य ) = पवित्रीकरण-साधनों से पवित्र करनेवाले आपके प्रति ( यत्कामः ) = जिस कामनावाला होकर ( पुने ) = मैं अपने को पवित्र बनाता हूँ, तत् ( शकेयम् ) = उस कामना को प्राप्त करने में समर्थ होऊँ।
भावार्थ
भावार्थ — मैं ज्ञान प्राप्त करूँ, वेदवाणी का स्वाध्याय करूँ। स्वच्छ वायु व सूर्यकिरणों के सम्पर्क में रहूँ। पवित्रीकरण के सब साधनों से अपने को पवित्र बनाकर मैं जो कामना करूँ, मेरी वह कामना अवश्य पूर्ण हो।
विषय
उपास्य देव से पवित्रता की प्रार्थना
भावार्थ
( चित् - पतिः ) समस्त चेतनाओं, चेतन प्राणियों और समस्त विज्ञानों का पालक परमेश्वर ( मा पुनातु ) मुझे पवित्र करे । ( सविता देव: ) सबका उत्पादक उपास्य देव ( अच्छिर्देण ) छिद्र रहित, अविनाशी, ( पवित्रेण ) निर्दोष, ( पवित्रेण ) परम पालक, सबको शुद्ध करने वाले अपने स्वरूप से और ( सूर्यस्य ) सूर्य की ( रश्मिभिः ) तेजोमय किरणों से ( मा ) मुझे, मेरे अन्तःकरण और देह को ( पुनातु ) पवित्र करे । हे ( पवित्रपते ) पवित्र पुरुषों के पालक, शुद्धात्माओं के स्वामिन् ! ( पवित्रपूतस्य ) पवित्रगुणों से परिपूत, शुद्ध ( तस्य ते ) उस तेरी कृपा से पवित्र हुआ मैं ( यत्कामः ) जिस कामना को करके ( पुनः ) अपने आपको पवित्र करूं ( तत् ) मैं उसको ( शकेयम् ) पूर्ण कर सकूं ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिसवितारौ परमात्मा वा देवता । निचृद् ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
जिसने सूर्य्य आदि सब जगत् को बनाया है, वह परमात्मा हमारे लिए क्या-क्या करे ॥
भाषार्थ
हे (पवित्रपते) ! पवित्र जनों के पालक परमात्मन् ! आप (चित्पतिः) चिताने वाले विज्ञान के पालक, अधिष्ठाता एवं ईश्वर हो। आप (वाक्पतिः) वेद विद्या के स्वामी एवं पालक हो, (सविता) सम्पूर्ण दिव्य जगत् के उत्पादक हो, (देवः) अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित करने वाले हो, इसलिये आप (पवित्रेण) शुद्धिकारक (अच्छिद्रेण) नष्ट न होने वाले विज्ञान से ( सूर्यस्य) सूर्यमण्डल व प्राण के (रिश्मिभिः) प्रकाश और गमनागमन से (मा) मुझे और मेरे चित्त को (पुनातु) पवित्र करो। (मा) मुझे और मेरी वाणी को (पुनातु) विद्वान् बना कर पवित्र करो। (मा) मुझे और मेरे चक्षु को (पुनातु) शुद्ध करो। जो (पवित्र पूतस्य) शुद्ध स्वाभाविक विज्ञान आदि गुणों से पवित्र है, उसकी कृपा से (यत्कामः) जिस कामना वाला मैं (पुने) पवित्र होता हूँ, जिस (ते) आप की उपासना से [तत्] पवित्र कर्म करने में [शकेयं] समर्थ होता हूँ (तस्य) उस जगदीश्वर की सेवा क्यों न करूँ ॥ ४ । ४॥
भावार्थ
जिस वेद के विज्ञाता एवं जगत् के पालक परमेश्वर ने विद्या, पृथिवी, जल, वायु और सूर्य आदि शुद्धिकारक पदार्थ प्रकाशित किए हैं, उसकी उपासना तथा पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य पूर्ण कामना और पवित्रता को सिद्ध करें ।। ४ । ४ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। १। ३। २२-२३) में की गई है ॥ ४ ॥ ४ ॥
भाष्यसार
परमात्मा हमारे लिये क्या क्या करता है-- ईश्वर पवित्र जनों का पालन करने वाला, विज्ञान का पति एवं अधिष्ठाता, वेद विद्या का स्वामी, सब दिव्य जगत् का उत्पादक, अपने प्रकाश से विद्या, पृथिवी, जल, वायु और सूर्य आदि शुद्धिकारक सब पदार्थों का प्रकाशक है और जो अपने पवित्र तथा विनाश रहित विज्ञान से सूर्य व प्राणों की रश्मियों से मेरे चित्त, वाणी और चक्षु को पवित्र करता है। जगदीश्वर स्वाभाविक विज्ञान आदि पवित्र गुणों से पवित्र है। उसी की कृपा से, उपासना से, मेरी सब कामनायें पूर्ण होती हैं तथा पवित्रता प्राप्त होती है। उसकी उपासना से ही पवित्र कर्म करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। इसलिए ईश्वर की सेवा करना परम आवश्यक है ।। ४ । ४ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
परमेश्वर हा वेद जाणणारा व सर्वांचे पालन करणारा असून, त्याने वेदविद्या व पृथ्वी, जल, वायू, सूर्य, इत्यादी शुद्धी करणारे पदार्थ निर्माण केलेले आहेत. तेव्हा माणसांनी परमेश्वराची उपासना करावी व पवित्र कर्म करून कामना पूर्ण कराव्यात व पवित्र बनावे.
विषय
ज्याने सूर्याची व सर्व जगाची रचना केली आहे, त्या परमेश्वरापासून आम्ही काय काय इच्छितो, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (पवित्रपते) पवित्रतेचे पालन करणार्या व सर्वांना पवित्र करणार्या परमेश्वरा तू (चित्पतिः) ज्ञान-विज्ञानाच्या स्वामी (वाक्पतिः) शुभ वाणीचा रक्षक व पालक आहेस. (सविता) जगदुत्पादक आणि (देवा) दिव्यस्वरूप आहेस. कृपा करून (पवित्रेण) तुझ्या पवित्र करणार्या अशा (अच्छिद्रे) अखंडित व अविनाशी विज्ञानाने तसेच (सूर्यस्व) सूर्याच्या (रश्मिभिः) प्रकाशाने व प्राणांच्या गमनागमनाने (मा) मला व माझ्या चित्ताला (पुनातु) पवित्र कर. (मा) मला व माझ्या वाणीला (पुनातु) पवित्र कर. (मा) मला व माझ्या संततीला (पुनातु) पवित्र कर, (पवित्रपूतस्य) तू शुद्ध, स्वाभाविक विज्ञान आदी गुणांनी युक्त असून पवित्र आहेस म्हणून (ते) तुझ्या कृपेने (यत्कामः) मी तुझ्याजवळ कामना व्यक्त करून (पुने) पवित्र होत आहे. (ते) तुझ्या उपासनेने (तत्) त्या अत्युत्तम कर्म करण्यात मी (शकेयम्) सफल होणार आहे. त्यामुळे मी तुझी सेवा-उपासना का न करावी? (म्हणजे अवश्य केली पाहिजे) ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्यांकरिता हे उचित आहे की वेदवित् आणि वेदपालक अशा ज्या परमेश्वराने वेदविद्या, पृथ्वी, पाणी, वायु आणि सूर्य आदी शुद्धी करणारे पदार्थ उत्पन्न केले व दिले आहेत, त्याची उपासना करीत माणसांनी पवित्र कर्मांचे आचरण करीत जावे. सत्य प्रार्थना करणे आणि पावित्र्य जपणे मनुष्यांनी हे कर्म अवश्य करावेत ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Purify me, the Lord of Purity. Purify me, the Lord of knowledge, Purify me, the Lord of the Vedas. O Lord, Creator of the universe, purify me, through sun-beams and thy immortal purifying knowledge. O Master of the purified souls, may I full of lofty sentiments accomplish the desire actuated by which, through your grace, I purify myself.
Meaning
Lord of intelligence and awareness, I pray, enlighten me. Lord of the Divine Vak, I pray, sanctify me with the voice of the Veda. Savita, Lord Creator of the universe, I pray, consecrate me with a ceaseless shower of the purest rays of the sun. Lord of purity, purest of the pure, whatever the desire for which I pray for purity, that desire may be fulfilled. Bless me that I may make it possible.
Translation
May the Lord of mind purify me. (1) May the Lord of speech purify me. (2) May the Creator God purify me with holeless strainer of sun’s rays. О Lord of purification, purified with purity itself, may І be able to achieve my heart’s desire with which I purify myself. (3)
Notes
Citpatih, Lord of mind. (प्रजपतिर्व चित्पति: इति श्रुति:). Yatkamah pune tacchakeyam, may I be able to achieve my heart's desire with which I purify myself.
बंगाली (1)
विषय
য়েন সূর্য়্যাদিকং জগদ্রচিতং সোऽস্মদর্থং কিং কিং কুর্য়্যাদিত্যুপদিশ্যতে ॥
যিনি সূর্য্যাদি সকল জগতের রচনা করিয়াছেন, সেই পরমাত্মা আমাদের জন্য কী কী করেন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (পবিত্রপতে) পবিত্রতা পালনকারী পরমেশ্বর । (চিৎপতিঃ) বিজ্ঞানের স্বামী (বাক্পতিঃ) বাণীকে নির্মল এবং (সবিতা) সকল জগৎ উৎপন্নকারী (দেবঃ) দিব্যস্বরূপ আপনি (পবিত্রেণ) শুদ্ধকারী (অচ্ছিদ্রেণ) অবিনাশী বিজ্ঞান বা (সূর্য়স্য) সূর্য্য ও প্রাণের (রশ্মিভিঃ) প্রকাশ এবং গমনাগমন দ্বারা(মা) আমাকে ও আমার চিত্তকে (পুনাতু) পবিত্র করুন, (মা) আমাকে ও আমার বাণীকে (পুনাতু) পবিত্র করুন, (মা) আমাকে তথা আমার চক্ষুকে (পুনাতু) পবিত্র করুন । যে (পবিত্র পূতস্য) শুদ্ধ স্বাভাবিক বিজ্ঞানাদি গুণ দ্বারা পবিত্র (তে) আপনার কৃপাবলে (য়ৎকামঃ) যে উত্তম কামনাযুক্ত আমি (পুনে) পবিত্র হই । যে (তে) আপনার উপাসনা দ্বারা (তৎ) সেই অত্যুত্তম কর্ম করিতে (শকেয়ম্) সক্ষম হই সেই আপনার সেবা আমার কেন করা উচিত নয়? । ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যে বেদজ্ঞাতা বা পালনকারী পরমেশ্বর বেদবিদ্যা, পৃথিবী, জল, বায়ু ও সূর্য্যাদি শুদ্ধকারী পদার্থ প্রকাশিত করিয়াছেন তাহার উপাসনা তথা পবিত্র কর্মে অনুষ্ঠান দ্বারা মনুষ্যদিগকে পূর্ণ কামনা ও পবিত্রতা সম্পাদন অবশ্যই করা উচিত ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
চি॒ৎপতি॑র্মা পুনাতু বা॒ক্পতি॑র্মা পুনাতু দে॒বো মা॑ সবি॒তা পু॑না॒ত্বচ্ছি॑দ্রেণ প॒বিত্রে॑ণ॒ সূর্য়॑স্য র॒শ্মিভিঃ॑ । তস্য॑ তে পবিত্রপতে প॒বিত্র॑পূতস্য॒ য়ৎকা॑মঃ পু॒নে তচ্ছ॑কেয়ম্ ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
চিৎপতির্মেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । পরমাত্মা দেবতা । নিচৃদব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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