यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 9
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः
देवता - विद्वान् देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
411
ऋ॒क्सा॒मयोः॒ शिल्पे॑ स्थ॒स्ते वा॒मार॑भे॒ ते मा॑ पात॒मास्य य॒ज्ञस्यो॒दृचः॑। शर्मा॑सि॒ शर्म॑ मे यच्छ॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः॥९॥
स्वर सहित पद पाठऋक्सा॒मयो॒रित्यृ॑क्ऽसा॒मयोः॑। शि॒ल्पे॒ऽइति॒ शि॒ल्पे॑। स्थः॒। तेऽइति॒ ते। वा॒म्। आ। र॒भे॒। तेऽइति॒ ते। मा॒। पा॒त॒म्। आ। अ॒स्य। य॒ज्ञस्य॑। उ॒दृचः॒ इत्यु॒त्ऽऋचः॑। शर्म्म॑। अ॒सि॒। शर्म्म॑। मे॒। य॒च्छ॒। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋक्सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारभे ते मा पातमास्य यज्ञस्योदृचः । शर्मासि शर्म मे यच्छ नमस्ते अस्तु मा मा हिँसीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋक्सामयोरित्यृक्ऽसामयोः। शिल्पेऽइति शिल्पे। स्थः। तेऽइति ते। वाम्। आ। रभे। तेऽइति ते। मा। पातम्। आ। अस्य। यज्ञस्य। उदृचः इत्युत्ऽऋचः। शर्म्म। असि। शर्म्म। मे। यच्छ। नमः। ते। अस्तु। मा। मा। हिꣳसीः॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
मनुष्यैः कथं शिल्पसिद्धिः कर्त्तव्येत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन्नहमृक्सामयोरध्ययनानन्तरमुदृचोऽस्य यज्ञस्य सम्बन्धिनी वां ये शिल्पे आरभे। ये मा मां पात रक्षतो ये यस्य तव सकाशान्मया गृह्येते ते तुभ्यं मम नमोऽस्तु, त्वं मा मां शिल्पविद्यां शिक्षस्व मा हिंसीर्विचालनं वा कुर्य्याः। यच्छर्म सुखमस्ति, तच्छर्म मे मह्यं यच्छ देहि॥९॥
पदार्थः
(ऋक्सामयोः) ऋक् च साम च तयोर्वेदयोः, अध्ययनानन्तरम् (शिल्पे) मानसप्रसिद्धक्रियया सिद्धे (स्थः) भवतः (ते) द्वे (वाम्) ये (आ) समन्तात् (रभे) आरम्भं कुर्वे (ते) द्वे (मा) माम् (पातम्) रक्षतः, अत्र व्यत्ययः (आ) अभितः (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (यज्ञस्य) शिल्पविद्यासिद्धस्य यज्ञस्य (उदृचः) उत्कृष्टा अधीताः प्रत्यक्षीकृता ऋचो यस्मिंस्तस्य (शर्म्म) सुखम् (असि) अस्ति (शर्म्म) सुखम् (मे) मह्यम् (यच्छ) ददाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (नमः) अन्नम्। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२.७) (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (मा) निषेधार्थे (मा) माम् (हिꣳसीः) हिन्धि, अत्र लोडर्थे लुङ्। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.१.५-८) व्याख्यातः॥९॥
भावार्थः
मनुष्यैर्विदुषां सकाशाद् वेदानधीत्य शिल्पविद्यां प्राप्य हस्तक्रिया साक्षात्कृत्य विमानयानादीनि कार्य्याणि निष्पाद्य सुखोन्नतिः कार्य्या॥९॥
विषयः
मनुष्यैः कथं शिल्पसिद्धिः कर्त्तव्येत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे विद्वन् ! अहमृक्सामयोः ऋक् च साम च तयोर्वेदयोः अध्ययनानान्तरमुदृचः उत्कृष्टा अधीताः=प्रत्यक्षीकृता ऋचो यस्मिंस्तस्य, अस्य वक्ष्यमाणस्य यज्ञस्य शिल्पविद्यासिद्धस्य यज्ञस्य सम्बन्धिनी वां=ये शिल्पे मानसप्रसिद्धक्रियया सिद्धे [स्थः] भवतः [ते] द्वे आरभे समन्तादारम्भं कुर्वे । ये [ते] द्वे मा=मां पातं=रक्षतो, ये यस्य तव सकाशान्मया गृह्यते, ते तुभ्यं मम नमः अन्नम्अस्तु भवतु ।त्वं मा=मां शिल्पविद्यां शिक्षस्व माहिंसी:=विचालनं वा मा कुर्याः न हिन्धि । यच्छर्म=सुखम् [असि]=अस्ति तच्छर्म सुखंमे=मह्यं [आ] यच्छ=देहि अभितो ददाति ।। ४ ।९।। [हे विद्वन् ! अहमृक्सामयोरध्ययनानन्तरमुदृचोऽस्य यज्ञस्य सम्बन्धिनी वां=ये शिल्पे [स्थः] [ते] आरभे... त्वं मा=मां शिल्पविद्यां शिक्षस्व.....यच्छर्म=सुखम् [असि] अस्ति मे=मह्यं [आ] यच्छ=देहि]
पदार्थः
(ऋक्सामयोः) ऋक् च साम च तयोर्वेदयोः अध्ययनानन्तरम् (शिल्पे) मानसप्रसिद्धक्रियया सिद्धे (स्थः) भवतः (ते) द्वे (वाम्) ये (आ) समन्तात् (रभे) आरम्भं कुर्वे (ते) द्वे (मा) माम् (पातम्) रक्षतः । अत्र व्यत्ययः (आ) अभितः अस्य वक्ष्यमाणस्य (यज्ञस्य) शिल्पविद्यासिद्धस्य यज्ञस्य (उदृचः) उत्कृष्टा अधीताः= प्रत्यक्षीकृता ऋचो यस्मिंस्तस्य (शर्म्म) सुखम् (असि) अस्ति (शर्म्म) सुखम् (मे) मह्यम् (यच्छ) ददाति । अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च ( नम:) अन्नम्।नम इत्यन्ननामसु पठितम्।।निघं० २ । ७ ॥ (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (मा) निषेधार्थे (मा) माम् (हि७सीः) हिन्धि । अत्र लोडर्थे लुङ् ॥ अयं मंत्रः श० ३ ।२ ।१ ।५-८ व्याख्यातः ॥ ९॥
भावार्थः
मनुष्यैर्विदुषां सकाशाद् वेदानधीत्य शिल्पविद्यां प्राप्य हस्तक्रियाः साक्षात्कृत्य विमानयानादीनि कार्याणि निष्पाद्य सुखोन्नतिः कार्या ।। ४ । ९ ।।
विशेषः
अङ्गिरसः। विद्वान्=स्पष्टम् ॥ आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ।।
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को शिल्पविद्या की सिद्धि कैसे करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! आप जो मैं (ऋक्सामयोः) ऋग्वेद और सामवेद के पढ़ने के पीछे (उदृचः) जिसमें अच्छे प्रकार ऋचा प्रत्यक्ष की जाती है, (अस्य) इस (यज्ञस्य) शिल्पविद्या से सिद्ध हुए यज्ञ के सम्बन्धी (वाम्) ये (शिल्पे) मन वा प्रसिद्ध किया से सिद्ध की हुई कारीगरी की जो विद्यायें (स्थः) हैं, (ते) उन दोनों को (आरभे) आरम्भ करता हूं तथा जो (मा) मेरी (आ) सब ओर से (पातम्) रक्षा करते हैं, (ते) वे (स्थः) हैं, उनको विद्वानों के सकाश से ग्रहण करता हूं। हे विद्वन् मनुष्य! (ते) उस तेरे लिये (मे) मेरा (नमः) अन्नादि-सत्कार-पूर्वक नमस्कार (अस्तु) विदित हो तथा तुम (मा) मुझ को चलायमान मत करो और (यत्) जो (शर्म) सुख (असि) है, उस (शर्म) सुख को (मे) मेरे लिये (यच्छ) देओ॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के सकाश से वेदों को पढ़कर शिल्पविद्या वा हस्तक्रिया को साक्षात्कार कर विमान आदि यानों की सिद्धिरूप कार्य्यों को सिद्ध करके सुखों की उन्नति करें॥९॥
विषय
‘ऋक्साम के शिल्पी’
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र के ‘आत्रेय’ जब गृहस्थ में प्रवेश करते हैं तो आसक्तिवाला जीवन न होने के कारण वे ‘आङ्गिरस’ = शक्तिशाली बने रहते हैं। प्रभु इनसे कहते हैं कि तुम ( ऋक्सामयोः ) = विज्ञान व उपासना दोनों के ( शिल्पे ) = [ शिल्पं कर्म—नि० २।१ ] निर्माण करनेवाले हो। तुम्हारा जीवन विज्ञान व उपासना से परिपूर्ण होता है। ये पति-पत्नी अलग-अलग प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि ( ते वाम् ) = उन दोनों को ( आरभे ) = मैं अपने जीवन में ग्रहण करना आरम्भ करता हूँ, अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति के लिए मैं स्वाध्याय को अपनाता हूँ और उपासना के लिए ध्यान को—सन्ध्या को। ( ते ) = वे विज्ञान और उपासना ( मा ) = मेरे ( अस्य यज्ञस्य ) = इस यज्ञ की ( उदृचः ) = अन्तिम ऋचा तक, अर्थात् जीवन-पथ के अन्त तक [ up to the end of life ] ( पातम् ) = रक्षा करें, अर्थात् ये विज्ञान और उपासना जीवन के अन्तिम दिन तक मुझे वासनाओं का शिकार होने से बचाएँ।
२. इस प्रकार जीवन-पथ में वासना से बचकर यह सचमुच ‘आङ्गिरस’ बन जाता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! ( शर्म असि ) = आप अत्यन्त आनन्दमय हो, आनन्दरूप हो। ( शर्म मे यच्छ ) = अपने उपासक मुझे भी आनन्द प्राप्त कराइए। ( नमः ते अस्तु ) = मैं आपके प्रति नतमस्तक होता हूँ। ( मा मा हिंसीः ) = आप मुझे नष्ट मत कीजिए। विलास में फँसने से बचाकर मुझे हिंसित होने से बचाइए।
भावार्थ
भावार्थ — मेरा जीवन ऋक्साममय हो। मेरा जीवन विद्या व श्रद्धा पर आधारित हो। मैं आनन्दमय प्रभु का उपासक बनूँ और सचमुच आनन्द का भागी होऊँ।
विषय
यज्ञ की समाप्ति तक रक्षा की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे कृष्ण और शुक्र विद्याओ ! क्रियात्मक और ज्ञानात्मक विद्या या कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड तुम दोनों (ऋक् सामयोः ) ऋग्वेद और सामवेद इन दोनों के भीतर से उत्पन्न ( शिल्पे स्थः ) विशेष कौशल रूप हो । ( ते वाम् ) तुम दोनों को मैं ( आरभे) आरम्भ करता हूं | अभ्यास करता हूं । ( ते ) वे तुम दोनों (मा) मुझे ( अस्य उद्दचः यज्ञस्य ) इस उत्तम ऋचाओं वेद मन्त्र और ज्ञानों से युक्त यज्ञ के समाप्ति तक ( मा पातम् ) मुझे पालन करें। हे शिल्पपते ! शर्म असि ) तू शरण है । ( मे शर्मं यच्छ ) मुझे सुख प्रदान कर, हे विद्वन् ! राजन् शिल्पस्वामिन् ! ( ते नमः अस्तु ) तुझे मैं आदरपूर्वक नमस्कार करता हूँ । ( मा ) मुझको ( मा हिंसी: ) विनाश मत कर ॥
यज्ञ में कृष्णाजिन यज्ञ के दो अङ्गों को स्पष्ट करता है, कृष्ण और शुक्र । इन दोनों को ऋक्, साम दोनों का शिल्प ही है । कदाचित् कर्मकाण्ड ( Practicl ) और ज्ञानकाण्ड ( Thoritical ) दो स्वरूपों को दर्शाने के लिये पूर्व में दो शाखा भी प्रचलित हुई हों । वेद के दोनों अग्डों. से राज्य शासन रूप यज्ञ की पूर्ति के लिये प्रार्थना है। उसके संचालक पुरुष का आदर और उससे रक्षा की प्रार्थना है ॥
अध्यात्म में --- शुक्लगति और कृष्णगति, देवयान और पितृयाण और ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग दोनों ऋक् और साम के प्रतिपादित शिल्प - शील आचार विधान हैं। उनको हम ( आ यज्ञस्य उघ्चः ) यज्ञ = आत्मा की ऊर्ध्वगति तक करते रहे । हे परमात्मान् ! यज्ञ ! तू सबका शरण है । तुझे नमस्कार करते हैं । तू हमें ( मा हिंसी: ) मत मार, हमारी रक्षा कर ॥
उक्त दो गतियों के विषय में उपनिषदों में- द्वे सती अश्र्णवम् इत्यादि वर्णन है और 'शुक्रकृष्णे गती ह्येते इत्यादि गीता में भी स्पष्ट किया है॥
शतपथ में इस भूमि लोक और उस द्यौलोक दोनों को सम्बोधित किया है कि वे ऋक्, साम दोनों के शिल्प अर्थात् प्रतिरूप हैं। उन दोनों के बीच में जैसे हिरण्यगर्भ सुरक्षित है, माता पिता के बीच में जैसे गर्भगत बालक सुरक्षित है उसी प्रकार जीवनयज्ञ की समाप्ति तक ऋक् साम दोनों का अभ्यास मेरी रक्षा करे । छत और फर्ष के समान दोनों का गृह बना है । वही हमारा शरण है । वह शरण हमें सुख दे । हमें विनाश न करें || शतपथ ३ । २ । १ । १८ ॥
टिप्पणी
९--[ ९-१५ ] आंगिरस ऋषिः } विद्वान् देवता । द० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्णाजिनं विद्वान् वा देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
मनुष्यों को शिल्पविद्या की सिद्धि कैसे करनी चाहिये, यह उपदेश किया है।
भाषार्थ
हे विद्वन् ! मैं (ऋक्सामयोः) ॠग्वेद और सामवेद के अध्ययन के पश्चात् (उदृचः) उत्तमता से जिसमें ऋचायें प्रत्यक्ष की गई हैं उस (अस्य) इस उपदेश किये जाने वाले (यज्ञस्य) शिल्पविद्या से सिद्ध किये यज्ञ से सम्बन्धित (वां) जो (शिल्पे) मन और प्रसिद्ध प्रयोग से सिद्ध होने वाली विद्यायें [स्थः] हैं [ते] उन दोनों को (आरभे) सब ओर से आरम्भ करता हूँ। जो [ते] वे दो (मा) मुझे (पातम्) रक्षा करती हैं, जो तेरे पास से मैं उन्हें ग्रहण करता हूँ इसलिए (ते) तुझे मेरा (नमः) उत्तम भोजन आदि से सत्कार (अस्तु) स्वीकार हो (मा) मुझे शिल्पविद्या की शिक्षा दो (मा हिंसीः) मुझे दुःख न दो अथवा टालो मत । और जो (शर्म) सुख [असि ] है उस (शर्म) सुख को (मे) मुझे ([आ] यच्छ) सब ओर से प्रदान करो ॥ ४ । ९॥
भावार्थ
सब मनुष्य विद्वानों से वेदों को पढ़ कर, शिल्प विद्या को प्राप्त कर, हस्तक्रियाओं का साक्षात्कार करके, विमान आदि कार्यों को सिद्ध करके सुख की उन्नति करें ॥ ४। ९ ॥
प्रमाणार्थ
(पातम्) रक्षतः यहाँ व्यत्यय है। (यच्छ) ददाति यहाँ पुरुष-व्यत्यय और लट् अर्थ में लोट् लकार है। (नमः) यह शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न नामों में पढ़ा है। (हि७सीः) हिन्धि । यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। २। १५ - ८) में की गई है ॥ ४ । ९ ॥
भाष्यसार
शिल्प की सिद्धि कैसे करें--सब मनुष्य विद्वानों से ऋग्वेद और सामवेद का अध्ययन करके जिसमें ऋचाओं का हस्तक्रियाओं से प्रत्यक्ष किया जाता है उस शिल्प विद्या से सिद्ध होने वाले यज्ञ से सम्बन्धित क्रियाओं का प्रारम्भ करें क्योंकि ये शिल्प-क्रियायें मनुष्यों की रक्षा करने वाली हैं। जिन विद्वानों से शिल्प विद्या प्राप्त करें उनका उत्तम अन्न आदि पदार्थों से सत्कार करें और उनसे प्रार्थना करें कि हे विद्वन्! आप हमें शिल्प विद्या की शिक्षा दीजिये, हमें शिल्प विद्या से विचलित न कीजिये। इस प्रकार विद्वानों से शिल्प विद्या को सीख कर विमान आदि यानों को सिद्ध करके सुख की वृद्धि करें ॥ ४ ॥ ९ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी विद्वानांच्या सान्निध्यात वेदांचे अध्ययन करून शिल्पविद्या प्राप्त करून विमान इत्यादी याने बनवावीत व सुख वाढवावे.
विषय
मनुष्यांनी शिल्प विद्येची प्राप्ती कशी करावी, या विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान महाशय, आपण (ऋक्सामयोः) ऋग्वेद व सामवेदाचे अध्ययन केल्यानंतर (उद्दचः) त्या ज्ञानाप्रमाणे प्रत्यक्ष व्यवहार आणि कृतीचे (अस्य) या (यज्ञस्य) शिल्पविद्येद्वारे तसेच (यंत्र, तंत्र व कौशल्य आदी) यज्ञाद्वारे (वाम्) ज्या (शिल्पे) मन (कल्पना, वोजनादी) कला-कौशल्य मिळविले आहे. त्या ज्ञान क्रिया आदींचा (आभे) मी आरंभ करीत आहे. (आपणांकडून शिकत आहे) त्या काळात ते (मा) माझे (पातम्) रक्षण करणारे आहेत, ते योग्य त्या ठिकाणी उपस्थित (स्थः) राहोत (ज्यायोगे माझी शिल्पविद्या, कृती व कौशल्य निर्विघ्नपणे पार पडेल) मी शिल्पविद्येचे व कृतीचे ज्ञान विद्वानांच्या संगतीत राहून ग्रहण करीत आहे. हे विद्वान, (ते) आपल्याकरिता (मे) माझा (नमः) अन्नादीद्वारे सेवा सत्कार करून नमस्कार (अस्तु) असो. आपण (मा) मला या ज्ञानग्रहण कार्यात विचलित करू नका (कार्यात खंड वा विघ्न येऊ देऊ नका) (यत्) जे (शर्म) सुख (असि) (ज्यास सुख म्हणतात) ते (शर्म) सुख (मे) मला (देहि) द्या. ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांसाठी उचित आहे की त्यांनी विद्वज्जनांच्या संगतीत राहून वेदाध्ययन करून शिल्पविद्या त्याची कृती व कला-कौशल्य शिकून घ्यावे आणि त्याद्वारे विमान आदी यानांची निर्मिती करून सर्वप्रकारे सुखी व्हावे. (वेदात जे विज्ञान, तंत्रज्ञान व त्याचे प्रात्याक्षिक क्रिया- ज्ञान सांगितले आहे, त्याचे ज्ञान वैज्ञानिकांदी कडून मिळवून उन्नती साधावी) ॥9॥
इंग्लिश (3)
Meaning
After the study of the Rig and Yajur Vedas, I commence using their scientific aspects, i. e. , theoretical and practical. They protect me in this yajna, in which vedic texts are recited. O yajna, thou art happiness, give me happiness ; here are these oblations of corn for thee ; forbear to harm me.
Meaning
After the study of Rigveda and Samaveda, both treasures of science and technology, in which study the content of the verses is actually realized, I begin this practical yajna of science and technology (in the laboratory and the workshop). May the two protect me and bless me. Reverence and salutations to you, to the teacher, to the Lord. Accept my salutations. Hurt me not, put me not off. You are peace and comfort. Give me peace and comfort of mind.
Translation
You two are the arts and crafts of the Rks and the Samans. I begin with both of them. May both of them protect me till the last hymn of this sacrifice. (1) You are the shelter, give me shelter. My reverence to you. May you not injure me. (2)
Notes
According to the ritualists, two black buck-skins, tacked together and stretched on the ground for consceration are addressed and touched. Vam arebke, I begin with both of you. Uédrcah, till the last hymn of the sacrifice. Sarma, shelter; home; accommodation: also, happiness.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈঃ কথং শিল্পসিদ্ধিঃ কর্ত্তব্যেত্যুপদিশ্যতে ॥
মনুষ্যদিগকে শিল্পবিদ্যার সিদ্ধি কীভাবে করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! (ঋক্সাময়োঃ) ঋগ্বেদ ও সামবেদ অধ্যয়নান্তর (উদৃচঃ) যাহাতে সম্যক্ প্রকার ঋচা প্রত্যক্ষ করা হয় (অস্য) এই (য়জ্ঞস্য) শিল্পবিদ্যা দ্বারা সিদ্ধ যজ্ঞ সম্বন্ধীয় (বাম) এই (শিল্পে) মন বা প্রসিদ্ধ ক্রিয়া দ্বারা সিদ্ধকৃত শিল্পের যে সব বিদ্যাগুলি (স্থ) আছে (তে) সেই উভয়কে আমি (আরভে) আরম্ভ করি তথা যাহারা (মা) আমার (আ) সকল দিক দিয়া (পাতম্) রক্ষা করে (তে) তাহারা (স্থ) আছে, তাহাদিগকে বিদ্বান্দিগের সামীপ্যে গ্রহণ করি । হে বিদ্বন্ মনুষ্য ! (তে) সেই তোমার জন্য (মে) আমার (নমঃ) অন্নাদি সৎকারপূর্বক নমস্কার (অস্তু) বিদিত হউক তথা তুমি (মা) আমাকে চলায়মান করিও না এবং (য়ৎ) যে (শর্ম) সুখ (অসি) আছে সেই (শর্ম) সুখকে (মে) আমার জন্য (য়চ্ছ) প্রদান কর ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, বিদ্বান্দিগের সামীপ্যে বেদ অধ্যয়ন করিয়া শিল্পবিদ্যা বা হস্তক্রিয়াকে সাক্ষাৎকার করিয়া বিমানাদি যানের সিদ্ধি রূপ কার্য্যগুলিকে সিদ্ধ করিয়া সুখের উন্নতি করুক ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ঋ॒ক্সা॒ময়োঃ॒ শিল্পে॑ স্থ॒স্তে বা॒মা র॑ভে॒ তে মা॑ পাত॒মাऽऽऽস্য য়॒জ্ঞস্যো॒দৃচঃ॑ । শর্মা॑সি॒ শর্ম॑ মে য়চ্ছ॒ নম॑স্তেऽঅস্তু॒ মা মা॑ হিꣳসীঃ ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ঋক্সাময়োরিত্যস্যাঙ্গিরস ঋষয়ঃ । বিদ্বান্ দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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