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यजुर्वेद अध्याय - 4

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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    173

    स्वाहा॑ य॒ज्ञं मन॑सः॒ स्वाहो॑रोर॒न्तरि॑क्षा॒त् स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा॒ वाता॒दार॑भे॒ स्वाहा॑॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। मन॑सः। स्वाहाः॑। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑। वाता॑त्। आ। र॒भे॒ स्वाहा॑ ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहा यज्ञम्मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात्स्वाहा द्यावापृथिवीभ्याँस्वाहा वातादा रभे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। यज्ञम्। मनसः। स्वाहाः। उरोः। अन्तरिक्षात्। स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्याम्। स्वाहा। वातात्। आ। रभे स्वाहा॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    किं किमर्थः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यथाहं स्वाहा वेदोक्तया स्वाहा सुशिक्षितया स्वाहा विद्याप्रकाशिकया स्वाहा सत्यप्रियत्वादिगुणयुक्तया वाचा स्वाहा सुष्ठु क्रियया चोरोर्मनसोऽन्तरिक्षाद् वाताद् द्यावापृथिवीभ्यां यज्ञमारभे नित्यं कुर्वे तथा भवन्तोऽप्यारभन्ताम्॥६॥

    पदार्थः

    (स्वाहा) प्रत्यक्षलक्षणया वेदस्थया वाचा (यज्ञम्) क्रियाजन्यम् (मनसः) विज्ञानात् (स्वाहा) सुशिक्षितया वाचा (उरोः) बहुनः, अत्र लिङ्गव्यत्ययेन पुँस्त्वम् (अन्तरिक्षात्) सूर्यपृथिव्योर्मध्ये वर्त्तमानादाकाशात् (स्वाहा) विद्याप्रकाशिकया वाण्या (द्यावापृथिवीभ्याम्) प्रकाशभूम्योः शुद्धये (स्वाहा) सत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टया वाचा (वातात्) वायोः (आ) समन्तात् (रभे) कुर्वे (स्वाहा) सुष्ठु जुहोति गृह्णाति ददाति यया क्रियया तया। अयं मन्त्रः (शत॰३.१.३.२५-२८) व्याख्यातः॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदरीत्या यो मनोवचनकर्मभिरनुष्ठितो यज्ञो भवति, सोऽन्तरिक्षादिभ्यो वायुशुद्घिद्वारा प्रकाशपृथिव्योः पवित्रतां सम्पाद्य सर्वान् सुखयतीति॥६॥

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    विषयः

    किंकिमर्थ: स यज्ञोनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या ! यथाऽहं स्वाहा=वेदोक्तया प्रत्यक्षलक्षणया वेदस्थया वाचा, स्वाहा=सुशिक्षितया सुशिक्षितया वाचा, स्वाहा=विद्या प्रकाशिकया विद्याप्रकाशिकयावाण्या, स्वाहा= सत्यप्रियत्वादिगुणयुक्त्या वाचासत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टया वाचा, स्वाहा=सुष्ठु क्रियया सुष्ठु जुहोति=गृह्णाति ददाति यया क्रियया तया च उरो: बहुन: मनसः विज्ञानात् अन्तरिक्षात् सूर्यपृथिव्योर्मध्ये वर्त्तमानादाकाशात् वातात् वायोः द्यावापृथिवीभ्यां प्रकाशभूम्योः शुद्धये यज्ञं क्रियाजन्यम् आरभे=नित्यं कुर्वे समन्तात् कुर्वे, तथा भवन्तोऽप्यारभन्ताम् ॥ ४ ॥ ६ ॥ - [हे मनुष्या! अहं स्वाहा=वेदोक्तया.........वाचा स्वाहा=सुष्ठु क्रियया चोरोर्मनसोऽन्तरिक्षाद्वाताद् द्यावापृथिवीभ्यां यज्ञमारभे=नित्यं कुर्वे ]

    पदार्थः

    (स्वाहा) प्रत्यक्षलक्षणया वेदस्थया वाचा (यज्ञम्) क्रियाजन्यम् (मनसः) विज्ञानात् (स्वाहा) सुशिक्षितया वाचा (उरो) बहुनः। अत्र लिंगव्यत्ययेन पुँस्त्वम् (अन्तरिक्षात्) सूर्यपृथिव्योर्मध्ये वर्तमानादाकाशात् (स्वाहा) विद्याप्रकाशिकया वाण्या (द्यावापृथिवीभ्याम्) प्रकाशभूम्योः शुद्धये (स्वाहा) सत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टतया वाचा (वातात्) वायोः (आ) समन्तात् (रभे) कुर्वे (स्वाहा) सुष्ठु जुहोति= गृह्णाति ददाति यया क्रियया तया॥अयं मंत्रः श० ३ ।१ ।३ ।२५-२८ व्याख्यातः ॥ ६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥ मनुष्यैर्वेदरीत्या यो मनोवचनकर्मभिरनुष्ठितो यज्ञो भवति सोऽन्तरिक्षादिभ्यो वायुशुद्धिद्वारा प्रकाशपृथिव्योः पवित्रतां सम्पाद्य सर्वान् सुखयति ॥ ४।६॥

    भावार्थ पदार्थः

    वातात्=वायुशुद्धिद्वारा ।द्यावापृथिवीभ्याम्=प्रकाशभूमिभ्याम् ॥

    विशेषः

    प्रजापतिः ।यज्ञः=स्पष्टम् ॥ निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    किस-किस प्रयोजन के लिये इस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो! जैसे मैं (स्वाहा) वेदोक्त (स्वाहा) उत्तम शिक्षा सहित (स्वाहा) विद्याओं का प्रकाश (स्वाहा) सत्य और सब जीवों के कल्याण करनेहारी वाणी और (स्वाहा) अच्छे प्रकार प्रयोग की हुई उत्तम क्रिया से (उरोः) बहुत (अन्तरिक्षात्) आकाश और (वातात्) वायु की शुद्धि करके (द्यावापृथिवीभ्याम्) शुद्ध प्रकाश और भूमिस्थ पदार्थ (मनसः) विज्ञान और ठीक-ठीक क्रिया से (यज्ञम्) यज्ञ को पूर्ण करने के लिये पुरुषार्थ का (आरभे) नित्य आरम्भ करता हूं, वैसे तुम लोग भी करो॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के द्वारा जो वेद की रीति और मन, वचन, कर्म से अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ है, वह आकाश में रहने वाले वायु आदि पदार्थों को शुद्ध करके सब को सुख करता है॥६॥

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    विषय

    स्वाहा

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    यज्ञशाला में अग्नि और समिधा, दोनों समन्वय रहता है जब शब्दों का उद्गीत गाने वाला वेदमन्त्रों की ऋचा को उद्गीत रूप में गात है और स्वाहा कह करके यज्ञमान की वाणी के शब्दों को ले करके, उसको एक सूत्रित कर बना करके, माला बना देता है तो इसीलिए प्रत्येक वेद मन्त्र भी माला के सदृश कहलाता है। हे देवी! वही माला रूप मुझे दृष्टिपात आता रहता है हे देवी! जब तुम वैज्ञानिक युगों में प्रवेश करोगी तो तुम्हें माला ही माला दृष्टिपात आयेगी। हे देवी! यहाँ प्रत्येक मानव माला में पिरोया हुआ है और यह संसार माला के सदृश दृष्टिपात आता रहता है।

    जब भी यज्ञमान स्वाहा उच्चारण करता है, यज्ञमान सपत्नी प्रीति से विराजमान हो करके वह अपने सौभाग्य को अखण्डवत में स्वीकार करते हुए जब वह आहुति देते हैं, याग करते हैं, होता जन विराजमान हैं, उनका जो स्वाहा शब्द है वह अग्नि के ऊपर विश्राम करके उसका व्यापक स्वरूप बन जाता है। इस सम्बन्ध में आदि ऋषियों ने ऐसा विचार दिया है कि वह जो वेदमन्त्र ब्राह्मण का हृदयग्राही है और यज्ञमान का, श्रोताओं का जो स्वाहा है, उनकी जो विचारधारा है वह वायु में तरंगित हो जाती है। जब वह वायु में तरंगित हो जाती है तो वायु उस वेद को ऊर्ध्व गति में ले जाता है। मेरे प्यारे! वह जो स्वाहा है अग्नि के ऊपर विराजमान हो करके, पत्नी की शुभ भावना, होताओं का जो सङ्कल्प है वह उस अग्नि के ऊपर विश्राम करता हुआ, अग्नि को वाहन बनाता हुआ वह अशुद्ध परमाणुओं को समाप्त करता चला जाता है और शुद्ध परमाणुओं की स्थापना करता चला जाता है।

    ज्ञानेन्द्रियों का जो विषय है वह जो पांचिक साकल्य बन गया है यह ज्ञान रूपी अपने विचारों में अन्तरात्मा में हूत कर रहा है।

    अन्तरात्मा में कैसे? शान्त मुद्रा में विराजमान है। उसके पश्चात जब उसकी तरंगें, उसकी आभाएं उसका जो विषय है वह उस विषय को अन्तरात्मा में ध्यानास्थित होता है उस विषय को ले करके। वह जो ज्ञान रूपी अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है उसमें वह हूत कर रहा है, उसमें स्वाहा दे रहा है, वह बाह्य संसार को समाप्त करके, आन्तरिक जगत को दृष्टिपात कर रहा है। उसको पांचिक याग माना है।

    इसी प्रकार यह हृदय रूपी जो यज्ञशाला है इस यज्ञशाला में नाना सामग्री लाते हैं। इस हृदय रूपी यज्ञशाला में वह इसका स्वाहा कर देते हैं। वह उसमें स्वाहा हो जाता है। जैसे एक मानव सुन्दर सुन्दर रूपों को दृष्टिपात कर रहा है।

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    विषय

    यज्ञ क्यों ?

    पदार्थ

    गत मन्त्र में ‘यज्ञिय इच्छाओं’ का वर्णन था। प्रस्तुत मन्त्र में यज्ञ के लाभों का उल्लेख करते हैं। १. ( स्वाहा ) = [ स्व+हा = त्याग ] स्वार्थ-त्यागरूप ( यज्ञम् ) = यज्ञ को ( मनसः ) = मन के हेतु से ( आरभे ) = मैं आरम्भ करता हूँ। ‘यज्ञ से मन पवित्र बनता है’, इसलिए मैं यज्ञ करता हूँ। मन की मैल स्वार्थ [ selfishness ] ही तो है। यज्ञ से हमारे मन में केवल अपने-आप खाने की वृत्ति का अन्त हो जाता है। 

    २. ( स्वाहा ) [ यज्ञम् ] [ सु+हा ] = उत्तम औषध द्रव्यों की जिसमें आहुति दी जाती है, ऐसे इस यज्ञ को ( उरोः अन्तरिक्षात् ) = इस विशाल अन्तरिक्ष के हेतु से ( आरभे ) = मैं प्रारम्भ करता हूँ। यज्ञ में डाले गये औषधद्रव्य व घृत छोटे-छोटे कणों में विभक्त होकर सारे अन्तरिक्ष में फैल जाते हैं, और यह सारा अन्तरिक्ष बड़ा पवित्र व सुगन्धमय हो जाता है। 

    ३. ( स्वाहा ) [ यज्ञम् ] = इस उत्तम आहुतियोंवाले यज्ञ को ( द्यावा- पृथिवीभ्याम् ) = द्युलोक से लेकर पृथिवीलोक के सभी प्राणियों के हित के दृष्टिकोण से ( आरभे ) = मैं प्रारम्भ करता हूँ। अन्तरिक्ष में फैले हुए औषधद्रव्यों व धूल के कणों को श्वासवायु के साथ सभी प्राणी अपने अन्दर लेते हैं और सभी को नीरोगता व शक्ति का लाभ होता है। एवं, सम्पूर्ण द्यावापृथिवी का इस यज्ञ से हित होता है। 

    ४. ( स्वाहा ) [ यज्ञम् ] = इस उत्तम आहुतियोंवाले यज्ञ को ( वातात् ) = वायु के उद्देश्य से ( आरभे ) = आरम्भ करता हूँ। इस यज्ञ को करने में मेरा उद्देश्य यह है कि सारी वायु शुद्ध हो जाए। एवं, इस यज्ञ के करने में प्रजापति का उद्देश्य यह है कि जहाँ उसका मन स्वार्थ से ऊपर उठेगा वहाँ सारा अन्तरिक्ष औषधगुणों व घृतकणों से भर जाएगा। सारे प्राणियों का हित होगा और वायुशुद्धि होकर रोगों का भय न होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारे मनों को, इस विशाल अन्तरिक्ष को, द्युलोक से लेकर पृथिवी तक रहनेवाले सभी प्राणियों को व वायु को शुद्ध करनेवाला यह यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है।

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    विषय

    यज्ञ का सम्पादन व्रत, प्रजाप्रति के पांच यज्ञ ।

    भावार्थ

     मैं प्रजापति, प्रजा का पालक ( मनसः ) मन से ( यज्ञम् ) यज्ञ का ( स्वाहा ) उत्तम वेदोक्त वाणी के मनन द्वारा ( आरभे) यज्ञ सम्पादन करूं । ( उरो : ) विशाल ( अन्तरिक्षात् ) अन्तरिक्ष से ( स्वाहा ) उत्तम आहुति द्वारा ( यज्ञम् आ रमे ) यज्ञ सम्पादन करूं । ( द्यावापृथिवीभ्याम् ) द्यौः, ऊपर का विस्तृत आकाश और समस्त पृथिवी मण्डल दोनों से ( स्वाहा ) दोनों की शक्तियों को परस्पर में आदान प्रतिदान की क्रिया से ( यज्ञम् आरभे ) यज्ञ को सम्पादन करता हूं और मैं (वातात्) वात- वायु से प्राण के निश्वास ऊध्वास क्रिया द्वारा अथवा समुद्र से मेघों को लेकर भूमि पर उत्तम रीति से वर्षण क्रिया द्वारा ( यज्ञम् आरभे ) यज्ञ करता हूं॥
    दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् ।
    सम्पद्विनिमयेनोभौ दधतुभुवनद्वयम् ॥ रघु° ।
    अर्थात् परमेश्वर पांच यज्ञ करता है । ( १ ) मानस्यज्ञ, सबको अपने संकल्प बल से चला रहा है और वेदवाणी द्वारा सबको उपदेश करता है । ( २ ) अन्तरिक्ष यज्ञ, उसमें नित्य मेघों का उठना और लीन होना ।( ३, ४ ) द्यावापृथिवीयज्ञ, सूर्य का जल खंचना और पृथ्वी पर वर्षा की आहुति होना। ( ५ ) वातयज्ञ, वायु का मेघों को धारण करना, बिजुली का गिरांना या प्राणापान यज्ञ । यह सब परमात्मा स्वयं करता है ।

    टिप्पणी

    ६ `रमे॥` इति काण्व ° ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञो देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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    विषय

    किस-किस प्रयोजन के लिये उस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, यह उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं (स्वाहा ) प्रत्यक्ष लक्षण युक्त वेदोक्त वाणी से, (स्वाहा) सुशिक्षित वाणी से, (स्वाहा) विद्या को प्रकाशित करने वाली वाणी से, (स्वाहा) सत्य और प्रेम आदि से युक्त वाणी से, (स्वाहा) लेने और देने की सुन्दर क्रिया से और (उरोः) बहुत (मनसः) विज्ञान से (अन्तरिक्षात्) सूर्य और पृथिवी के मध्य में विद्यमान आकाश से (वातात्) वायु से (द्यावापृथिवीभ्याम्) द्युलोक और भूलोक की शुद्धि के लिए (यज्ञम्) पुरुषार्थ से उत्पन्न यज्ञ को (आरभे) प्रयत्न से नित्य करता हूँ, वैसे आप भी किया करो ।। ४ । ६ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। मनुष्य वेद की रीति से मन, वाणी और कर्म से जिस यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वह अन्तरिक्ष आदि में वायु की शुद्धि से प्रकाश और पृथिवी को पवित्र करके सबको सुखी करता है । ४।६॥

    प्रमाणार्थ

    (उरोः) बहुनः । यहाँ लिङ्ग व्यत्यय से पुंल्लिङ्ग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। १। ३। २५-२८) में की गई है ।। ४ । ६ ।।

    भाष्यसार

    १. यज्ञानुष्ठान का प्रयोजन-- सब मनुष्य वेदवाणी से मन, वचन, कर्म से सूर्य और पृथिवी के मध्य में वर्तमान अन्तरिक्ष, वायु, प्रकाश और भूमि की शुद्धि के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करें । २. स्वाहा शब्द के अर्थ-- १-- प्रत्यक्ष वेदोक्त वाणी के द्वारा। २-- सुशिक्षित वाणी के द्वारा । ३-- विद्या को प्रकाशित करने वाली वाणी के द्वारा । ४-- सत्य से प्रेम आदि गुणों से युक्त वाणी के द्वारा । ५--उत्तम लेन-देन की क्रिया के द्वारा । ३. अलङ्कार--मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त है। इसलिये 'वाचकलुप्तोपमा’ अलङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग वेद वाणी के द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करें वैसे अन्य लोग भी यज्ञ का अनुष्ठान करें ॥ ४ ॥६॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसे मन, वचन, कर्म यांच्याद्वारे वेदोक्त रीतीने अनुष्ठानपूर्वक जो यज्ञ करतात त्यामुळे आकाशात राहणारे वायू इत्यादी पदार्थ शुद्ध होतात व सर्वांना सुखी करतात.

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    विषय

    कोणत्या प्रयोजनासाठी यज्ञ करावा, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (याज्ञिक म्हणत आहे) हे मनुष्यांनो, ज्या प्रमाणे मी (स्वाहा) वेदोक्त (स्वाहा) उत्तम उपदेशाद्वारे (स्वाहा) विद्यांचा प्रकाश करीत आहे, (स्वाहा) सर्व जीवांचे कल्याण करणारी करणार्‍या सत्य वाणीचे उच्चारण करीत (स्वाहा) उत्तम विधी आणि पद्धतीद्वारे (उरोः) अत्यधिक (अन्तरिक्षात्) आकाश आणि (वातात्) वायूची शुद्धी करतो, तसेच ज्याप्रमाणे मी (द्यावापृथिवीभ्याम) शुद्ध प्रकाश आणि भूमीवरील पदार्थांना (मनसः) विज्ञान संमत व शास्त्रोक्त विधीप्रमाणे क्रिया करीत (यज्ञम्) यज्ञ पूर्ण करण्यासाठी पुरूषार्थ (आरभे) करीत आहे व करतो, त्याप्रमाणे तुम्ही लोक देखील करीत जा ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदोक्त रीतीने केला जाणारा तसेच मन, वचन आणि कर्माने संपन्न होणारा यज्ञ आकाशस्थ वायु आदी पदार्थांची शुद्धी करून सर्वांना सुखी करतो ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O men, just as I actively and wisely commence performing the sacrifice, with vedic texts, with cultured tongue, with wisdom-teaching voice, with a tongue full of sweetness and truth, in an orderly and well-directed way, with the help of the extended firmament, Earth, sky and air, so do Ye.

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    Meaning

    With the voice of the Veda, in the language of expertise through education and training for the illumination of knowledge, with the sentiments of truth and love in togetherness for the sanctity of dealings in the business of living, I begin the yajna from the purity and sincerity of the mind, from the wind, and then from the vastness of the sky and space, in the service of the earth and heaven.

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    Translation

    To the sacrifice, I dedicate with mind. (1) I dedicate with the grace of the vast mid-space. (2) І dedicate with the grace of the heaven and earth. (3) I began this sacrifice with the grace of the wind. Svaha. (4)

    Notes

    Vatad arabhe, I begin (this sacrifice) with the grace of the wind.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কিং কিমর্থঃ স য়জ্ঞোऽনুষ্ঠাতব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    কী কী প্রয়োজন হেতু এই যজ্ঞের অনুষ্ঠান করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ । যেমন আমি (স্বাহা) বেদোক্ত (স্বাহা) উত্তম শিক্ষা সহিত (স্বাহা) বিদ্যাসকলের প্রকাশ, (স্বাহা) সত্য এবং সকল জীবদিগের কল্যাণকারিণী বাণী এবং (স্বাহা) সম্যক্ প্রকার ব্যবহৃত উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (উরোঃ) বহু (অন্তরিক্ষাৎ) আকাশ ও (বাতাৎ) বায়ুর শুদ্ধি করিয়া (দ্যাবাপৃথিবীভ্যাম্) শুদ্ধ প্রকাশ ও ভূমিস্থ পদার্থ (মনসঃ) বিজ্ঞান ও সঠিক ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞম্) যজ্ঞ পূর্ণ করিবার জন্য পুরুষার্থের (আরভে) নিত্য আরম্ভ করি, সেইরূপ তোমরাও কর ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের দ্বারা যাহা বৈদিক রীতি ও মন-বচন-কর্ম দ্বারা অনুষ্ঠান কৃত যজ্ঞ উহা আকাশ স্থিত বায়ু ইত্যাদি পদার্থ শুদ্ধ করিয়া সকলকে সুখী করে ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স্বাহা॑ য়॒জ্ঞং মন॑সঃ॒ স্বাহো॑রোর॒ন্তরি॑ক্ষা॒ৎ স্বাহা॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বীভ্যা॒ᳬं স্বাহা॒ বাতা॒দার॑ভে॒ স্বাহা॑ ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    স্বাহা য়জ্ঞমিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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