यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - आपो देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
270
आपो॑ऽअ॒स्मान् मा॒तरः॑ शुन्धयन्तु घृ॒तेन॑ नो घृत॒प्वः पुनन्तु। विश्व॒ꣳ हि रि॒प्रं प्र॒वह॑न्ति दे॒वीरुदिदा॑भ्यः॒ शुचि॒रा पू॒तऽए॑मि। दी॒क्षा॒त॒पसो॑स्त॒नूर॑सि॒ तां त्वा॑ शि॒वा श॒ग्मां परि॑दधे भ॒द्रं वर्णं॒ पुष्य॑न्॥२॥
स्वर सहित पद पाठआपः॑। अ॒स्मान्। मा॒तरः॑। शु॒न्ध॒य॒न्तु॒। घृ॒तेन॑। नः॒। घृ॒त॒प्व᳖ इति॑ घृतऽप्वः॒। पु॒न॒न्तु॒। विश्व॑म्। हि। रि॒प्रम्। प्र॒वह॒न्तीति॑ प्र॒ऽवह॑न्ति। दे॒वीः। उत्। इत्। आ॒भ्यः॒। शुचिः॑। आ। पू॒तः। ए॒मि॒। दी॒क्षा॒त॒पसोः॑। त॒नूः। अ॒सि॒। ताम्। त्वा॒। शि॒वाम्। श॒ग्माम्। परि॑। द॒धे॒। भ॒द्रम्। वर्ण॑म्। पुष्य॑न् ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु । विश्वँ हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि । दीक्षातपसोस्तनूरसि तन्त्वा शिवाँ शग्माम्परि दधे भद्रँवर्णम्पुष्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आपः। अस्मान्। मातरः। शुन्धयन्तु। घृतेन। नः। घृतप्व इति घृतऽप्वः। पुनन्तु। विश्वम्। हि। रिप्रम्। प्रवहन्तीति प्रऽवहन्ति। देवीः। उत्। इत्। आभ्यः। शुचिः। आ। पूतः। एमि। दीक्षातपसोः। तनूः। असि। ताम्। त्वा। शिवाम्। शग्माम्। परि। दधे। भद्रम्। वर्णम्। पुष्यन्॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्ताभिरद्भिः किं कर्तव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यथा भद्रं वर्णं पुष्यन्नहं या घृतप्वो देव्य आपो विश्वं रिप्रं प्रवहन्ति, विद्वांसो या मातारो या घृतप्वो घृतेन सन्ति, याभिर्नोऽस्मान् सुखयन्ति, ताभिर्नोऽस्मान् भवन्तः शुन्धयन्तु पुनन्तु च। यथाहमुदिदाभ्यः शुचिः पवित्रो भूत्वा या दीक्षातपसोस्तनूर(स्य)स्ति तां त्वामेतां शिवां शग्मां परिदधे सर्वतो धरामि, तथा तास्तां च यूयमपि धरत॥२॥
पदार्थः
(आपः) जलानि (अस्मान्) मनुष्यादीन् प्राणिनः (मातरः) मातृवत् पालिकाः (शुन्धयन्तु) बाह्यदेशं पवित्रं कुर्वन्तु (घृतेन) आज्येन (नः) अस्मान् (घृतप्वः) घृतं पुनन्ति यास्ताः (पुनन्तु) पवित्रयन्तु (विश्वम्) सर्वं जगत् (हि) खलु (रिप्रम्) व्यक्तवाणीप्राप्तव्यं वेदितव्यम्। अत्र लीरीङो ह्रस्वः। (उणा॰५.५५) अनेनायं सिद्धः (प्रवहन्ति) प्रकर्षेण प्राप्नुवन्ति (देवीः) देव्यः (उत्) उत्कृष्टे (इत्) अपि (आभ्यः) अद्भ्यः (शुचिः) पवित्रः (आ) समन्तात् (पूतः) शुद्धः (एमि) प्राप्नोमि (दीक्षातपसोः) दीक्षा ब्रह्मचर्य्यादिनियमसेवनं च तपोधर्मानुष्ठानं च तयोः (तनूः) सुखविस्तारनिमित्तं शरीरम् (असि) अस्ति। अत्र व्यत्ययः (ताम्) (त्वा) एताम् (शिवाम्) कल्याणकारिकाम् (शग्माम्) सुखस्वरूपाम् (परि) सर्वतः (दधे) धरामि (भद्रम्) भजनीयम् (वर्णम्) स्वीकर्त्तुमर्हमतिसुन्दरम् (पुष्यन्) पुष्टं कुर्वन्। अयं मन्त्रः (शत॰ (३.१.२.१-११) व्याख्यातः॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। याः सर्वसुखप्रापिकाः प्राणधारिका मातृवत् पालनहेतव आपः सन्ति, ताभ्यः सर्वतः पवित्रतां सम्पाद्यैताः शोधयित्वा मनुष्यैर्नित्यं संसेव्या, यतः सुन्दरं वर्णं रोगरहितं शरीरं च सम्पाद्य नित्यं प्रयत्नेन धर्ममनुष्ठाय पुरुषार्थेनानन्दः कर्तव्य इति॥२॥
विषयः
पुनस्ताभिरद्भिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
सपदार्थान्वयः--हे मनुष्या! यथा भद्रं भजनीयं वर्णंस्वीकर्तुमर्हमतिसुन्दरं पुष्यन् पुष्टं कुर्वन् अहं या घृतप्वःघृतं पुनन्ति यास्ताः [देवी:] देव्य आप: जलानि विश्वं सर्वं जगत् रिप्रं व्यक्तवाणी प्राप्तव्यं=वेदितव्यं [हि] खलु प्रवहन्ति प्रकर्षेण प्राप्नुवन्ति, विद्वांसो या मातरः मातृवत् पालिकाः, या घृतप्वः घृतं पुनन्ति यास्ता: घृतेनआज्येन सन्ति याभिर्न:=अस्मान् सुखयन्ति ताभिरस्मान् मनुष्यादीन् प्राणिनः भवन्तः शुन्धयन्तु बाह्यदेशं पवित्रं कुर्वन्तु पुनन्तु पवित्रयन्तु च । यथाहम् उत् उत्कृष्ट इत् अपि आभ्यः अद्भ्यः शुचिः पवित्रः [पूतः] शुद्धः भूत्वा या दीक्षातपसो: दीक्षा= ब्रह्मचर्यादिनियमसेवनं च तपः=धर्मानुष्ठानं च तयोः, तनूः सुखविस्तारनिमित्तं शरीरम् असि=अस्ति ताम् [आ+एमि] समन्तात् प्राप्नोमि [त्वा]=त्वामेतां (एतां) शिवां कल्याणकारिकां शग्मां सुखस्वरूपां परिदधे=सर्वतो धरामि तथा तास्तां च यूयमपि धरत ॥ ४ ॥ २ ॥ [ हे मनुष्या!......आपोविश्वं रिप्रं [हि] प्रवहन्ति........या मातरः-- सन्ति ताभिरस्मान् भवन्तः शुन्धयन्तु, पुनन्तु च]
पदार्थः
(आपः) जलानि (अस्मान्) मनुष्यादीन्प्राणिन: (मातरः) मातृवत्पालिकाः (शुन्धयन्तु) बाह्यदेशं पवित्रं कुर्वन्तु (घृतेन) आज्येन (नः) अस्मान् (घृतप्व:) घृतं पुनन्ति यास्ताः (पुनन्तु) पवित्रयन्तु (विश्वम्) सर्वं जगत् (हि) खलु (रिप्रम्) व्यक्तवाणीप्राप्तव्यं=वेदितव्यम् । अत्र लीरीङी ह्रस्वः ।। उ० ५ । ५५ ।। अनेनायं सिद्धः (प्रवहन्ति) प्रकर्षेण प्राप्नुवन्ति (देवीः) देव्य: (उत्) उत्कृष्टे (इत्) अपि (आभ्य:) अद्भ्यः (शुचि:) पवित्र: (आ) समन्तात् (पूतः) शुद्ध: (एमि) प्राप्नोमि ( दीक्षातपसोः) दीक्षा-ब्रह्मचर्य्यादिनियमसेवनं च तपो-धर्मानुष्ठानं च तयोः (तनूः) सुखविस्तारनिमित्तं शरीरम् (असि) अस्ति । अत्र व्यत्ययः (ताम्) (त्वा) एताम् (शिवाम्) कल्याणकारिकाम् (शग्मान्) सुखस्वरूपाम् (परि) सर्वतः (दधे ) धरामि (भद्रम्) भजनीयम् (वर्णम्) स्वीकर्तुमर्हमतिसुन्दरम् (पुष्यन्) पुष्टं कुर्वन्॥अयं मन्त्रः श० ३।१ । २ । १-११ व्याख्यातः ।। २ ।।
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ।। याः सर्वसुखप्रापिकाः प्राणधारिका मातृवत्पालनहेतव आपः सन्ति, ताभ्यः सर्वतः पवित्रतां सम्पाद्यैताः शोधित्वा मनुष्यं नित्यं संसेव्याः, [भद्रं वर्णं पुष्यन्नहं--] यतः सुन्दरं वर्णं रोगरहितं शरीरं चसापाद्य नित्यं प्रयत्नेन धर्ममनुष्ठाय पुरुषार्थेनानन्दः कर्त्तव्यः ॥ ४ । २ ॥
भावार्थ पदार्थः
विश्वम्=सर्वम् । रिप्रं=सुखं। मातरः=मातृवत्पालनहेतवः। भद्रम्=सुन्दरम्
विशेषः
प्रजापतिः । आपः=जलानि । स्वराड्ब्राह्मी त्रिष्टुप्।धैवतः ।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर उन जलों से क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (भद्रम्) अति सुन्दर (वर्णम्) प्राप्त होने योग्य रूप को (पुष्यन्) पुष्ट करता हुआ मैं जो (घृतप्वः) घृत को पवित्र करने (देवीः) दिव्यगुणयुक्त (मातरः) माता के समान पालन करने वाले (आपः) जल (रिप्रम्) व्यक्त वाणी को प्राप्त करने वा जानने योग्य (विश्वम्) सब को (प्रवहन्ति) प्राप्त करते हैं, जिनसे विद्वान् लोग (अस्मान्) हम मनुष्य लोगों को (शुन्धयन्तु) बाह्य देश को पवित्र करें और जो (घृतेन) घृतवत् पुष्ट करने योग्य जल हैं, जिनसे (नः) हम लोगों को सुखी कर सकें, उनसे (पुनन्तु) पवित्र करें। जैसे मैं (इत्) भी (उत्) अच्छे प्रकार (आभ्यः) इन जलों से (शुचिः) पवित्र तथा (आपूतः) शुद्ध होकर (दीक्षातपसोः) ब्रह्मचर्य्य आदि उत्तम-उत्तम नियम सेवन से जो धर्मानुष्ठान के लिये (तनूः) शरीर (असि) है, जिस (शिवाम्) कल्याणकारी (शग्माम्) सुखस्वरूप शरीर को (एमि) प्राप्त होता और (परिदधे) सब प्रकार धारण करता हूं, वैसे तुम लोग भी उन जल और (ताम्) उस (त्वा) अत्युत्तम शरीर को धारण करो॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो सब सुखों को प्राप्त करने, प्राणों को धारण कराने तथा माता के समान पालन के हेतु जल हैं, उनसे सब प्रकार पवित्र होके, इनको शोध कर मनुष्यों को नित्य सेवन करने चाहियें, जिससे सुन्दर वर्ण, रोगरहित शरीर को सम्पादन कर निरन्तर प्रयत्न के साथ धर्म का अनुष्ठान कर पुरुषार्थ से आनन्द भोगना चाहिये॥२॥
विषय
जल ‘मुस्कराहट’
पदार्थ
प्रजापति ने गत मन्त्र में ‘अन्न व जल’ में ही आनन्द लेने का निश्चय किया। उनमें जल के महत्त्व को व्यक्त करते हुए प्रभु प्रजापति से प्रार्थना कराते हैं कि— १. ( मातरः आपः ) = हे मातृस्थानापन्न जल! माता के समान हित करनेवाले जल, हमारी प्राणशक्ति का निर्माण करनेवाले जल! [ आपोमयाः प्राणाः ] ( अस्मान् ) = हमें ( शुन्धयन्तु ) = शुद्ध कर डालें।
२. ये ( घृतप्वः ) = [ घृत+पू, घृ = क्षरण ] मलों के क्षरण द्वारा पवित्र करनेवाले जल ( नः ) = हमें ( घृतेन ) = अपनी मलक्षरण शक्ति से ( पुनन्तु ) = पवित्र करनेवाले हों। प्रातःकाल पिया हुआ जल मलक्षरण में अद्भुत क्षमता रखता है। इसी से आयुर्वेद में प्रातः जलपान का अत्यधिक महत्त्व है।
३. ( हि ) = निश्चय से ( देवीः ) = ये दिव्य गुणोंवाले जल ( विश्वं रिप्रम् ) = सम्पूर्ण मल को ( प्रवहन्ति ) = बहाकर ले-जाते हैं। इसीलिए ( आभ्यः ) = इन जलों के द्वारा ( शुचिरा ) = बाहर से पवित्र हुआ और ( आपूतः ) = अन्दर से समन्तात् पवित्र हुआ ( इत् ) = निश्चय से( उत् एमि ) = ऊपर उठता हूँ।
४. अब अन्दर-बाहर से पवित्र होकर मैं कह सकता हूँ कि ( दीक्षातपसोः ) = व्रत-संग्रहण व तप का ( तनूः असि ) = शरीर तू है, अर्थात् यह शरीर व्रत-संग्रहण और तप के लिए मिला है। ‘व्रातं जीवं सचेमहि’ में यही तो प्रार्थना थी कि हमारा जीवन व्रतमय हो। हम व्रती व तपस्वी हों। तप ही सब उत्थान का मूल है। तप का विलोम पतन है।
५. दीक्षा से—व्रत-ग्रहण से यह शरीर नीरोग होकर हमारे लिए ( शिवः ) = कल्याणकर होता है और तप हमें अध्यात्म-दृष्टि से उच्च भूमि में ले-जाकर ( शग्म ) = शान्ति प्राप्त कराता है, जिस शान्ति की चरम सीमा निर्वाण व मोक्ष है ‘शान्तिं निर्वाणपरमाम्’, अतः मन्त्र में कहते हैं कि ( तां त्वा ) = उस तुझ तनू [ शरीर ] को जोकि ( शिवां शग्माम् ) = ऐहिक व आमुष्मिक सुख से युक्त है ( परिदधे ) = मैं धारण करता हूँ।
६. इस शरीर में न रोग हैं न अशान्ति। यहाँ स्वास्थ्य है और शान्ति है। वह स्वास्थ्य और शान्ति ही इस उपासक के चेहरे पर ‘स्मित’ [ smile ] के रूप में प्रकट होते हैं और मन्त्र का ऋषि प्रजापति कहता है कि मैं सदा( भद्रं वर्णं पुष्यन् ) = भद्र वर्ण का पोषण किये रहता हूँ। मेरे चेहरे पर सदा एक मुस्कराहट होती है जो अन्दर के मनःप्रसाद को व्यक्त करती है।
भावार्थ
भावार्थ — जल दिव्य गुणयुक्त हैं, इनका ठीक प्रयोग शरीर व मन को स्वस्थ बनाता है, परिणामतः हमारे चेहरे पर सदा एक मुस्कराहट होती है।
विषय
आप्त जनों के कर्त्तव्य, दीक्षा और तप।
भावार्थ
( अस्मान् ) हम (आपः) जलों के समान स्वच्छ ( मातरः ) ज्ञान करने हारे या माता के समान पालन करने वाले आप्तजन ( शुन्ध- यन्तु ) शुद्ध करें, जैसे जलधाराएं शरीर को शुद्ध करती हैं और माताएं अपने स्नेह और उपकार से हृदय के पापको नष्ट करती हैं वैसे ही आप्त ज्ञानी पुरुष हमें आचार में पवित्र करें । वे ( घृतवः ) घृत, दीप्ति या तेजोमय अंश से पवित्र करने वाले आप्त जन (नः) हमें अपने ( घृतेन ) घृत से जिस प्रकार शरीर के विष नाश हो जाते हैं उसी प्रकार ( पुनन्तु ) पवित्र करें। ( देवीः ) दिव्य गुणवाली माताओं, जल- धाराओं, नदियों के समान और देवियों के समान आप्त जन भी ( विश्वम् रिप्रम् ) समस्त पाप को (हि) भी ( प्रवहन्ति ) धो बहाते हैं । ( आभ्यः इत् ) इनसे ही ( आपूतः ) सब प्रकार से पवित्र होकर मैं ( उत् एमि ) उत्कृष्ट पदको प्राप्त होऊं । जैसे जलों से स्नान करके मनुष्य शुद्ध वस्र पहनता है, वैसे ही आप्त -जनों से अपने पाप से मुक्त होकर अपने शरीर और आत्मा को स्वच्छ कर लेता है । हे वासः ! वस्त्र के समान अच्छादक शरीर ! आत्मा के वासस्थान ! तू ( दीक्षातपसो ) दीक्षा अर्थात् सत्पथ पर हृढ़ता से रहने के उत्तम व्रतधारण और तपस्= तपस्या का बना ( तनूः असि ) शरीर है । ( तां ) उस (त्वा) तुझको ( शिवाम् ) कल्याणकारिणी ( शग्माम् ) सुखदायिनी, आरोग्य पवित्र को मैं ( भद्रं वर्णं पुष्यन् ) सुख- कारी, उत्तम वर्ण को उत्कृष्ट जीवन स्थिति को पुष्ट करता हुआ ( परिदधे ) धारण करूं । स्नान के बाद पुरुष जैसे दीक्षा के निमित्त विशेष स्वच्छ वस्त्र पहने उसी प्रकार दीक्षा और तप से शरीर को शुद्ध करके अपने जीवन को उच्च करे और ज्ञान की नदी रूप आप्तजनों के उपदेशों में स्नान करे॥
राजा के पक्ष में- आप्त पुरुष हमारे माता के समान पालक अपने तेज से हमें पापों से बचावे । मैं राजा उन आप्तजनों द्वारा शुद्ध पवित्र होकर उदय को प्राप्तहोऊं । इस तप से प्राप्त पृथिवी को अपने शरीर के समान धारण करूं और उत्तम वर्ण को पुष्ट करूं ॥ शत० ३ । १ । २।१०-२० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आपो वासश्च देवताः । स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । अत्यष्टिर्वा छन्दः । धैवतः स्वरः ॥
विषय
फिर उन जलों से क्या-क्या करना चाहिये ।।
भाषार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (भद्रम्) सेवनीय (वर्णम्) ग्रहण करने योग्य अति सुन्दर रूप को (पुष्यन्) पुष्ट करता हुआ मैं (घृतप्वः) घृत को पवित्र करने वाले [देवी:] (आपः) दिव्य गुणयुक्त जल (विश्वम्) सारे जगत् को (रिप्रम्) जो व्यक्त वाणी से प्राप्त करने योग्य और जानने योग्य है [हि] निश्चय से (प्रवहन्ति) उत्तमतापूर्वक प्राप्त करते हैं। हे विद्वान् लोगो (मातरः) जो माता के समान पालन तथा जो (घृतप्वः) घृत को पवित्र करने वाले जल (घृतेन) घी से उत्पन्न होते हैं जिनसे आपः (नः) हमें सुख देते हैं उनसे (अस्मान्) हम मनुष्यादि प्राणियों को आप (शुन्धयन्तु ) बाह्य देश को शुद्ध करो और (पुनन्तु) अन्दर से भी पवित्र करो । जैसे मैं (उत्-इत्) उत्कृष्ट होकर (आभ्यः) इन जलों से (शुचिः) पवित्र एवं [पूतः] शुद्ध होकर जो (दीक्षातपसो:) दीक्षा अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन तथा तप अर्थात् धर्मानुष्ठान उन दोनों के (तनूः) सुखों के विस्तार के निमित्त शरीर (असि) है, (ताम्) उसे [आ एमि] सब ओर से प्राप्त करता हूँ [त्वा] इस (शिवाम् ) कल्याणकारक (शग्माम् ) सुखस्वरूप शरीर को (परिदधे) सब ओर से धारण करता हूँ वैसे उन जलों को और शरीर को तुम भी धारण करो ॥ ४ । २ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। जो सब सुखों को प्राप्त कराने वाले, प्राणों को धारण कराने वाले, माता के समान, पालक जल हैं, उनसे सब ओर से पवित्रता को सिद्ध करके और इनको शुद्ध करके मनुष्य नित्य सेवन करें । और--इनसे सुन्दर रूप तथा रोग रहित शरीर बनाकर नित्य प्रयत्नपूर्वक धर्म का आचरण करके पुरुषार्थ से आनन्द करें ।। ४ । २ ।।
प्रमाणार्थ
(रिप्रम्) यह शब्द 'लीरीङो ह्रस्वः' (उणा० ५ । ५५) सूत्र से सिद्ध है। (असि) अस्ति। यहाँ व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। १। २। १-११) में की गई है ।
भाष्यसार
१. जल से क्या करें--जल से वर्ण को सुन्दर बनावें तथा शरीर को रोग रहित करके पुष्ट करें, घृत को पवित्र करने वाले दिव्य गुणों से युक्त जलों से सब सुखों को प्राप्त करें। माता के समान पालक जलों से सब ओर से पवित्रता को सिद्ध करें। जल से शुद्ध पवित्र होकर दीक्षा (ब्रह्मचर्य आदि नियमों का सेवन) तथा तप (धर्माचरण) को विस्तृत करने के स्थान शरीर को प्राप्त करें और जल से कल्याणकारी तथा सुखसाधक शरीर को धारण करें। शरीर से नित्य प्रयत्नपूर्वक धर्माचरण करके पुरुषार्थ से आनन्द करें ।। २. अलंकार-- मन्त्र में उपमा वाचक शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।
विशेष
विश्वम्=सर्वम्। रिप्रम्=सुखम् । मातरः=मातृवत्पालनहेतवः। भद्रम्=सुन्दरम्।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, जल मातेप्रमाणे पालन करते. सुख देते व प्राण प्रदान करते. त्यासाठी अशा जलाने पवित्र बनावे. स्वच्छ जलाचे नित्य सेवन करावे. अशा जलामुळे वर्ण सुंदर व शरीर रोगरहित होईल, असा प्रयत्न करावा आणि धर्माचे पालन करून पुरुषार्थाने आनंद भोगावा.
विषय
त्या जलापासून कोणते लाभ घ्यावेत, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो जसे (भद्रं) सर्वांना अत्यंत सुंदर (वर्णम्) रूप वेणारे (पुष्यम्) पुष्ट करणारे (घृतप्वः) गृताला पवित्र करणारे (देवीः) दिव्यगुणमुक्त आणि (मातरः) मातेसमान पालन करणारेहे (आपः) जल आहे (रिप्रम्) वारीच्या उच्चारासाठी अथवा न त्याच्या (जलाच्या) गुणांचे ज्ञान देण्यासाठी (विश्वम्) सर्वांसाठी (प्रवहन्ति) ते जल वाहत आहे. या जलाने विद्वजन (अस्मान्) आम्हांला (शुन्थपन्तु) आणि बाह्यदेशाला पवित्र करोत. तसेच (गृतेन) गृताने पुष्ट होणारे जे जल आहे. ते (नः) आम्हांला (पुनन्तु) पवित्र करो (यज्ञाग्नीत आहुत घृत वृष्टी देणारे आणि जलाला शुद्ध करणारे असते) (उत्) चांगल्या रीतीने (इत्) या (आभ्यः) जलाद्वारे (शुचिः) पवित्र आणि (आपूतः) शुद्ध होऊन (दीक्षातपसोः) ब्रह्मचर्य आदी उत्तमोत्तम व्रतांचे पालन करण्यासाठी व धर्मानुष्ठानासाठी हा जो (तनूः) शरीर (असि) आहे, त्या (शिवाम्) कल्याणकारी (शग्माम्) सुखरूप शरीराला मी (एमि) प्राप्त करतो आणि (परिदधे) याचा निट सांभाळ करतो, त्याप्रमाणे तुम्ही लोक देखील त्या हितकारी जलाला व (ताम्) त्या (त्वाम्) अत्युत्तम शरीराला धारण करा (जलाव्दारे शरिराची शुद्धी करून शरीर स्वस्थ व उत्तम ठेवा) ॥2॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. (म्हणजे उपमा अलंकाराचा वाचक शब्द जे जसे ते तसे लुप्त आहे, पण उपमा अलंकार मात्र आहे) मनुष्यांनी हे जाणावे की जल हे सर्व सुखदायक आहे, प्राणधारण करण्यास आवश्यक आहे आणि मातेप्रमाणे सर्वांचे पालन करणारे आहे. अशा या महोपकारी जलाने पवित्र होऊन, जलाच्या गुणांचा शोध करून मनुष्यांनी त्याचा नित्य वापर करावा. जलामुळे शरिराचा वर्ण (रंगरूप) सुंदर होतो, रोगरहित होतो. यामुळे सर्वांनी निरंतर प्रयत्न करीत धर्माच्या पालनासह पुरूषार्थ करीत जलापासून आनंद उपभोगला पाहिजे. ॥2॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May waters, like mother, purify our bodies. May the waters purified by clarified butter, purify us through rain. Pure waters remove all our physical imperfections. May I advance in life, being bright and pure through waters. Through celibacy and abstemiousness may I possess a body, healthy, comfortable, excellent, beautiful and strong.
Meaning
Mother waters purify us: with their essence and efficacy, they sanctify us. The waters are sacred powers of nature: they wash off the entire dirt and let all the wanted health and knowledge flow in. Pure and sanctified by the waters, I come up. This body is a gift of Diksha and Tapas, commitment to health and laws of nature, and hard discipline of body, mind and soul. That body I bear as a blessing, lovely, strong and graceful, shining with the golden glow of good health.
Translation
May waters, the mothers of all, cleanse us. May the purifiers of butter purify us with melted butter. These divine waters carry off all the dirt of sins. Purified with these all around, I rise up clean and pure. (1) O Lord, you are the embodiment of consecration and penance. You the gracious and pleasing, I adopt and put on a nice appearance. (2)
Notes
Matarah, mothers; waters give birth to all living beings. Ripram, sin. (रपो रिप्रमिति पापानामनी भवत: ),
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তাভিরদ্ভিঃ কিং কর্তব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে সব জল দ্বারা কী কী করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ! যেমন (ভদ্রম্) অতি সুন্দর (বর্ণম্) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য রূপকে (পুষ্যন্) পুষ্ট করিয়া আমি যে (ঘৃতষ্ব) ঘৃত পবিত্র করিবার (দেবীঃ) দিব্যগুণযুক্ত (মাতরঃ) মাতা সমান পালনকারিণী (আপঃ) জল (রিপ্রম্) ব্যক্ত বাণী প্রাপ্ত করিবার বা জানিবার যোগ্য (বিশ্বম্) সকলকে (প্রবহন্তি) প্রাপ্ত করে, যদ্দ্বারা বিদ্বান্গণ (অস্মান্) আমা মনুষ্য দিগের (শুন্ধয়ন্তু) বাহ্য দেশকে পবিত্র করেন এবং যে (ঘৃতেন) ঘৃতবৎ পুষ্ট করিবার যোগ্য জল যদ্দ্বারা (নঃ) আমাদিগকে সুখী করিতে পারেন, তদ্দ্বারা (পুনন্তু) পবিত্র করেন । যেমন আমি (ইৎ) ও (উৎ) ভাল প্রকার (আভ্যঃ) এই সব জল দ্বারা (শুচিঃ) পবিত্র তথা (আপূতঃ) শুদ্ধ হইয়া (দীক্ষাতপসোঃ) ব্রহ্মচর্য্যাদি উত্তম-উত্তম নিয়ম সেবন দ্বারা যাহা ধর্মানুষ্ঠানের জন্য (তনূঃ) শরীর (অসি) হয়, যে (শিবাম্) কল্যাণকারী (শগ্মাম্) সুখ স্বরূপ শরীরকে (এমি) প্রাপ্ত হই এবং (পরিদধে) সকল প্রকার ধারণ করি সেইরূপ তোমরাও সেই জল এবং (তাম্) সেই (ত্বাম্) অত্যুত্তম শরীরকে ধারণ কর ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচক লুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, সকল সুখ প্রাপ্ত করিবার, প্রাণকে ধারণ করিবার তথা মাতা সমান, পালন হেতু যে জল তদ্দ্বারা সকল প্রকার পবিত্র হইয়া ইহাকে শোধন করিয়া মনুষ্যদিগের নিত্য সেবন করা উচিত যদ্দ্বারা সুন্দর বর্ণ, রোগরহিত শরীর সম্পাদন করিয়া নিরন্তর প্রযত্ন সহ ধর্মের অনুষ্ঠান করিয়া পুরুষকার পূর্বক আনন্দ ভোগ করা উচিত ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আপো॑ऽঅ॒স্মান্ মা॒তরঃ॑ শুন্ধয়ন্তু ঘৃ॒তেন॑ নো ঘৃত॒প্বঃ᳖ পুনন্তু । বিশ্ব॒ꣳ হি রি॒প্রং প্র॒বহ॑ন্তি দে॒বীরুদিদা॑ভ্যঃ॒ শুচি॒রা পূ॒তऽএ॑মি । দী॒ক্ষা॒ত॒পসো॑স্ত॒নূর॑সি॒ তাং ত্বা॑ শি॒বাᳬं শ॒গ্মাং পরি॑ দধে ভ॒দ্রং বর্ণং॒ পুষ্য॑ন্ ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আপো অস্মানিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । আপো দেবতা । স্বরাড্ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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