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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 30
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - ईश्वरसभाध्यक्षौ देवते छन्दः - आर्ची उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    इन्द्र॑स्य॒ स्यूर॒सीन्द्र॑स्य ध्रु॒वोऽसि ऐ॒न्द्रम॑सि वैश्वदे॒वम॑सि॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। स्यूः। अ॒सि॒। इन्द्र॑स्य। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ऐ॒न्द्रम्। अ॒सि॒। वै॒श्व॒दे॒वमिति॑ वैश्वऽदे॒वम्। अ॒सि॒ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य स्यूरसीन्द्रस्य धु्रवोसि ऐन्द्रमसि वैश्वदेवमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। स्यूः। असि। इन्द्रस्य। ध्रुवः। असि। ऐन्द्रम्। असि। वैश्वदेवमिति वैश्वऽदेवम्। असि॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -
    हे जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष! जैसे (वैश्वदेवम्) समस्त पदार्थों का निवास स्थान अन्तरिक्ष है, वैसे आप (ऐन्द्रम) सब के आधार हैं, इसी से हम लोगों को (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य का (स्यूः) संयोग करने वाले (असि) हैं और (इन्द्रस्य) सूर्य आदि लोक वा राज्य को (ध्रुवः) निश्चल करने वाले (असि) हैं॥३०॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। सकल ऐश्वर्य्य का देने वाला जगदीश्वर है, वैसे सभाध्यक्षादि मनुष्यों को होना चाहिये॥३०॥

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