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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 37
    ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    अ॒यं नो॑ऽअ॒ग्निर्वरि॑वस्कृणोत्व॒यं मृधः॑ पु॒रऽए॑तु प्रभि॒न्दन्। अ॒यं वाजा॑ञ्जयतु॒ वाज॑साताव॒यꣳ शत्रू॑ञ्जयतु॒ जर्हृ॑षाणः॒ स्वाहा॑॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। नः॒। अ॒ग्निः। वरि॑वः। कृ॒णो॒तु॒। अ॒यम्। मृधः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒भि॒न्दन्निति॑ प्रऽभि॒न्दन्। अ॒यम्। वाजा॑न्। ज॒य॒तु॒। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ। अ॒यम्। शत्रू॑न्। ज॒य॒तु॒। जर्हृ॑षाणः। स्वाहा॑ ॥३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्नोऽअग्निर्वरिवस्कृणोत्वयम्मृधः पुर एतु प्रभिन्दन् । अयँ वाजाञ्जयतु वाजसातावयँ शत्रूञ्जयतु जर्हृषाणः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। नः। अग्निः। वरिवः। कृणोतु। अयम्। मृधः। पुरः। एतु। प्रभिन्दन्निति प्रऽभिन्दन्। अयम्। वाजान्। जयतु। वाजसाताविति वाजऽसातौ। अयम्। शत्रून्। जयतु। जर्हृषाणः। स्वाहा॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 37
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    पदार्थ -
    (अयम्) यह परमेश्वर का उपासक जन (नः) हम प्रजास्थ जीवों की (वरिवः) निरन्तर रक्षा (कृणोतु) करे। जैसे कोई वीर पुरुष अपनी सेना को लेकर संग्राम में (मृधः) निन्दित दुष्ट वैरियों को पहिले ही जा घेरता है, वैसे (अयम्) यह युद्ध करने में कुशल सेनापति (वाजसातौ) संग्राम में दुष्ट शत्रुओं को (पुरः) पहिले ही (एतु) जा घेरे और जैसे (अयम्) यह वीरों को हर्ष देनेवाला सेनापति दुष्ट शत्रुओं को (प्रभिन्दन्) छिन्न-भिन्न करता हुआ (वाजान्) संग्रामों को (जयतु) जीते (अयम्) यह विजय कराने वाला सेनापति (जर्हृषाणः) निरन्तर प्रसन्न होकर (स्वाहा) युद्ध के प्रबन्ध की श्रेष्ठ बोलियों को बोलता हुआ (जयतु) अच्छी तरह जीते॥३७॥

    भावार्थ - जो लोग परमेश्वर की उपासना नहीं करते हैं, उनका विजय सर्वत्र नहीं होता। जो अच्छी शिक्षा देकर शूरवीर पुरुषों का सत्कार करके सेना नहीं रखते हैं, उनका सब जगह सहज में पराजय हो जाता है। इससे मनुष्यों को चाहिये कि दो प्रबन्ध अर्थात् एक तो परमेश्वर की उपासना और दूसरा वीरों की रक्षा सदा करते रहें॥३७॥

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