यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
9
अग्ने॑ व्रतपा॒स्त्वे व्र॑तपा॒ या तव॑ त॒नूरि॒यꣳ सा मयि॒ यो मम॑ त॒नूरे॒षा सा त्वयि॑। स॒ह नौ॑ व्रतपते व्र॒तान्यनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑ति॒र्मन्य॑ता॒मनु॒ तप॒स्तप॑स्पतिः॥६॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। त्वेऽइति॑ त्वे। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रतऽपाः। या। तव॑। त॒नूः। इ॒यम्। सा। मयि॑। योऽइति॒ यो। मम॑। त॒नूः। ए॒षा। त्वयि॑। स॒ह। नौ॒। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तानि॑। अनु॑। मे॒। दी॒क्षाम्। दी॒क्षाप॑ति॒रिति॒ दी॒क्षाऽप॑तिः॒। मन्य॑ताम्। अनु॑। तपः॑। तप॑स्पति॒रिति॒ तपः॑ऽपतिः ॥६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने व्रतपास्त्वे व्रतपा या तव तनूरियँ सा मयि यो मम तनूरेषा सा त्वयि । सह नौ व्रतपते व्रतान्यनु मे दीक्षान्दीक्षापतिर्मन्यतामनु तपस्तपस्पतिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। व्रतपा इति व्रतऽपाः। त्वेऽइति त्वे। व्रतपा इति व्रतऽपाः। या। तव। तनूः। इयम्। सा। मयि। योऽइति यो। मम। तनूः। एषा। त्वयि। सह। नौ। व्रतपत इति व्रतऽपते। व्रतानि। अनु। मे। दीक्षाम्। दीक्षापतिरिति दीक्षाऽपतिः। मन्यताम्। अनु। तपः। तपस्पतिरिति तपःऽपतिः॥६॥
विषय - फिर वह परमात्मा और बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
जिसलिये हे (अग्ने) (व्रतपते) जगदीश्वर! आप वा बिजुली सत्यधर्मादि नियमों के (व्रतपाः) पालन करने वाले हैं, इसलिये (त्वे) उस आप वा बिजुली में मैं (व्रतपाः) पूर्वोक्त व्रतों के पालन करने वाली क्रिया वाला होता हूं (या) जो (इयम्) यह (तव) आप और उसकी (तनूः) विस्तृत व्याप्ति है (सा) वह (मयि) मुझमें (यो) जो (एषा) यह (मम) मेरा (तनूः) शरीर है (सा) सो (त्वयि) आप वा उसमें है (व्रतानि) जो ब्रह्मचर्य्यादि व्रत हैं, वे मुझ में हों और जो (मे) मुझ में हैं, वे (त्वयि) तुम्हारे में हैं, जो आप वा वह (तपस्पतिः) जितेन्द्रियत्वादिपूर्वक धर्मानुष्ठान के पालन निमित्त हैं, सो (मे) मेरे लिये (तपः) पूर्वोक्त तप को (अनुमन्यताम्) विज्ञापित कीजिये वा करती है और जो आप वा वह (दीक्षापतिः) व्रतोपदेशों के रक्षा करने वाले हैं, सो (मे) मेरे लिये (दीक्षाम्) व्रतोपदेश को (अनुमन्यताम्) आज्ञा कीजिये वा करती हैं, इसलिये भी (नौ) मैं और आप पढ़ने- पढ़ाने हारे दोनों प्रीति के साथ वर्त्त कर विद्वान् धार्मिक हों कि जिससे दोनों की विद्यावृद्धि सदा होवे॥६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को परस्पर प्रेम वा उपकार बुद्धि से परमात्मा वा बिजुली आदि का विज्ञान कर वा कराके धर्मानुष्ठान से पुरुषार्थ में निरन्तर प्रवृत्त होना चाहिये॥६॥
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