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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 42
    ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् अत्यष्टि, स्वरः - धैवतः
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    अत्य॒न्याँ२ऽअगां॒ नान्याँ२ऽउपा॑गाम॒र्वाक् त्वा॒ परे॒भ्योऽवि॑दं प॒रोऽव॑रेभ्यः। तं त्वा॑ जुषामहे देव वनस्पते देवय॒ज्यायै॑ दे॒वास्त्वा॑ देवय॒ज्यायै॑ जुषन्तां॒ विष्ण॑वे त्वा। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑। अ॒न्यान्। अगा॑म्। उप॑। अ॒गा॒म्। अ॒र्वाक्। त्वा॒। परे॑भ्यः। अवि॑दम्। प॒रः॒। अव॑रेभ्यः। तम्। त्वा॒। जु॒षा॒म॒हे॒। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। दे॒व॒य॒ज्याया॒ इति॑ देवऽय॒ज्यायै॑। दे॒वाः। त्वा॒। दे॒व॒य॒ज्याया इति देवऽय॒ज्यायै॑। जु॒ष॒न्ता॒म्। विष्ण॑वे। त्वा॒। ओष॑धे। त्रा॑यस्व। स्वधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यन्याँ अगान्नान्याँ उपागामर्वाक्त्वा परेभ्योविदम्परो वरेभ्यः । तन्त्वा जुषामहे देव वनस्पतेदेवयज्यायै देवास्त्वा देवयज्यायै जुषन्ताँ विष्णवे त्वा । ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनँ हिँसीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अति। अन्यान्। अगाम्। उप। अगाम्। अर्वाक्। त्वा। परेभ्यः। अविदम्। परः। अवरेभ्यः। तम्। त्वा। जुषामहे। देव। वनस्पते। देवयज्याया इति देवऽयज्यायै। देवाः। त्वा। देवयज्याया इति देवऽयज्यायै। जुषन्ताम्। विष्णवे। त्वा। ओषधे। त्रायस्व। स्वधिते। मा। एनम्। हिꣳसीः॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 42
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    पदार्थ -
    हे (वनस्पते) सब बूटियों के रखने वाले (देव) विद्वान् जन! जैसे तू (अन्यान्) विद्वानों के विरोधी मूर्ख जनों को छोड़ के (अन्यान्) मूर्खों के विरोधी विद्वानों के समीप जाता है, वैसे मैं भी विद्वानों के विरोधियों को छोड़ (उप) समीप (अगाम्) जाऊं। जो तू (परेभ्यः) उत्तमों से (परः) उत्तम और (अवरेभ्यः) छोटों से (अर्वाक्) छोटे हों (तम्) उन्हें मैं (अविदम्) पाऊं। जैसे (देवाः) विद्वान् लोग (देवयज्यायै) उत्तम गुण देने के लिये (त्वा) तुझ को चाहते हैं, वैसे हम लोग भी (त्वा) तुझे (जुषामहे) चाहें और हम लोग (देवयज्यायै) अच्छे-अच्छे गुणों का संग होने के लिये (त्वा) तुझे चाहते हैं, वैसे और भी ये लोग चाहें। जैसे ओषधियों का समूह (विष्णवे) यज्ञ के लिये सिद्ध होकर सब की रक्षा करता है, वैसे हे रोगों को दूर करने और (स्वधिते) दुःखों का विनाश करने वाले विद्वान् जन! हम लोग (त्वा) तुझे यज्ञ के लिये चाहते हैं। श्रेष्ठ विद्वान् जन! जैसे मैं इस यज्ञ का विनाश करना नहीं चाहता, वैसे तू भी (एनम्) इस यज्ञ को (मा) मत (हिंसीः) बिगाड़॥४२॥

    भावार्थ - यहां वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि नीच व्यवहार और नीच पुरुषों को छोड़ के अच्छे-अच्छे व्यवहार तथा उत्तम विद्वानों को नित्य चाहें और उत्तमों से उत्तम तथा न्यूनों से न्यून शिक्षा का ग्रहण करें। यज्ञ और यज्ञ के पदार्थों का तिरस्कार कभी न करें तथा सब को चाहिये कि एक-दूसरे के मेल से सुखी हों॥४२॥

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