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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 14
    ऋषिः - दधिक्रावा ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - जगती, स्वरः - निषादः
    9

    ए॒ष स्य वा॒ज क्षि॑प॒णिं तु॑रण्यति ग्री॒वायां॑ ब॒द्धोऽअ॑पिक॒क्षऽआ॒सनि॑। क्रतुं॑ दधि॒क्राऽअनु॑ स॒ꣳसनि॑ष्यदत् प॒थामङ्का॒स्यन्वा॒पनी॑फण॒त् स्वाहा॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः। स्यः। वा॒जी। क्षि॒प॒णिम्। तु॒र॒ण्य॒ति॒। ग्री॒वाया॑म्। ब॒द्धः। अ॒पि॒क॒क्ष इत्य॑पिऽक॒क्षे। आ॒सनि॑। क्रतु॑म्। द॒धि॒क्रा इति॑ दधि॒ऽक्राः। अनु॑। स॒ꣳसनि॑ष्यदत्। स॒ꣳसनि॑स्यद॒दिति॑ स॒म्ऽसनि॑स्यदत्। प॒थाम्। अङ्का॑सि। अनु॑। आ॒पनी॑फण॒दित्या॒ऽपनी॑फणत्। स्वाहा॑ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष स्य वाजी क्षिपणिन्तुरण्यति ग्रीवायाम्बद्धो अपिकक्षऽआसनि । क्रतुन्दधिक्राऽअनु सँसनिष्यदत्पथामङ्गाँस्यन्वापनीपणत्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः। स्यः। वाजी। क्षिपणिम्। तुरण्यति। ग्रीवायाम्। बद्धः। अपिकक्ष इत्यपिऽकक्षे। आसनि। क्रतुम्। दधिक्रा इति दधिऽक्राः। अनु। सꣳसनिष्यदत्। सꣳसनिस्यददिति सम्ऽसनिस्यदत। पथाम्। अङ्कासि। अनु। आपनीफणदित्याऽपनीफणत्। स्वाहा॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    जैसे (स्यः) वह (एषः) और यह (वाजी) वेगयुक्त (आसनि) मुख और (ग्रीवायाम्) कण्ठ में (बद्धः) बंधा (क्रतुम्) कर्म अर्थात् गति को (संसनिष्यदत्) अतीव फैलाता हुआ (पथाम्) मार्गों के (अङ्कांसि) चिह्नों को (अनु) समीप (आपनीफणत्) अच्छे प्रकार चलता हुआ (दधिक्राः) धारण करनेहारों का चलानेहारा घोड़ा (क्षिपणिम्) सेना को जाता है, वैसे ही (अपिकक्षे) इधर-उधर के ठीक-ठीक अवयवों में सेनापति अपनी सेना को (स्वाहा) सत्य वाणी से (तुरण्यति) वेगयुक्त करता है॥१४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सेनापति से रक्षा को प्राप्त हुए वीरपुरुष घोड़ों के समान दौड़ते हुए शीघ्र शत्रुओं को मार सकते हैं। जो सेनापति उत्तम कर्म्म करनेहारे अच्छे शिक्षित वीर पुरुषों के साथ ही युद्ध करता हुआ, प्रशंसित होता हुआ विजय को प्राप्त होता है, अन्यथा पराजय ही होता है॥१४॥

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