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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 37
    ऋषिः - देवावत ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    अग्ने॒ सह॑स्व॒ पृ॑तनाऽअ॒भिमा॑ती॒रपा॑स्य। दु॒ष्टर॒स्तर॒न्नरा॑ती॒र्वर्चो॑ धा य॒ज्ञवा॑हसि॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। सह॑स्व। पृत॑नाः। अ॒भिमा॑ती॒रित्य॒भिऽमा॑तीः। अप॑। अ॒स्य॒। दु॒ष्टरः॑। दु॒ष्तर॒ इति॑ दुः॒ऽतरः॑। तर॒न्। अरा॑तीः। वर्चः॑। धाः॒। य॒ज्ञवा॑ह॒सीति॑ य॒ज्ञऽवा॑हसि ॥३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने सहस्व पृतनाऽअभिमातीरपास्य । दुस्टरस्तरन्नरातीर्वर्चाधा यज्ञवाहसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। सहस्व। पृतनाः। अभिमातीरित्यभिऽमातीः। अप। अस्य। दुष्टरः। दुष्तर इति दुःऽतरः। तरन्। अरातीः। वर्चः। धाः। यज्ञवाहसीति यज्ञऽवाहसि॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 37
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) सब विद्या जानने वाले विद्वान् राजन्! (दुष्टरः) दुःख से तरने योग्य (तरन्) शत्रु सेना को अच्छे प्रकार तरते हुए आप (यज्ञवाहसि) जिसमें राजधर्मयुक्त राज्य में (अभिमातीः) अभिमान आनन्दयुक्त (पृतनाः) बल और अच्छी शिक्षायुक्त वीरसेना को (सहस्व) सहो (अरातीः) दुःख देने वाले शत्रुओं को (अपास्य) दूर निकालिये और (वर्चः) विद्या बल और न्याय को (धाः) धारण कीजिये॥३७॥

    भावार्थ - राजादि सभा सेना के स्वामी लोग अपनी दृढ़ विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त सेना के सहित आप अजय और शत्रुओं को जीतते हुए भूमि पर उत्तम यज्ञ का विस्तार करें॥३७॥

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