यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्ति,विकृति
स्वरः - पञ्चमः, मध्यमः
12
ध्रु॒व॒सदं॑ त्वा नृ॒षदं॑ मनः॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। अ॒प्सुषदं॑ त्वा घृत॒सदं॑ व्योम॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। पृ॒थि॒वि॒सदं॑ त्वाऽन्तरिक्ष॒सदं॑ दिवि॒सदं॑ देव॒सदं॑ नाक॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्॥२॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒व॒सद॒मिति॑ ध्रु॒व॒ऽसद॑म्। त्वा॒। नृ॒षद॑म्। नृ॒सद॒मिति॑ नृ॒ऽसद॑म्। म॒नः॒सदमिति॑ मनःऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। अ॒प्सु॒षद॑म्। अ॒प्सु॒सद॒मित्य॑प्सु॒ऽसद॑म्। त्वा॒। घृ॒त॒सद॒मिति॑ घृत॒ऽसद॑म्। व्यो॒म॒सद॒मिति॑ व्योम॒ऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। पृ॒थि॒वि॒सद॒मिति॑ पृथिविऽसद॑म्। त्वा॒। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒सद॒मित्यन्त॑रिक्ष॒ऽसद॑म्। दि॒वि॒सद॒मिति॑ दिवि॒ऽसद॑म्। दे॒वसद॒मिति॑ देव॒ऽसद॑म्। ना॒क॒सद॒मिति॑ नाक॒ऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृही॑तः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम् ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
धु्रवसदन्त्वा नृषदम्मनः सदमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् । अप्सुषदन्त्वा घृतसदँव्योमसदमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् । पृथिवीसदन्त्वान्तरिक्षसदन्दिविसदन्देवसदन्नाकसदमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
ध्रुवसदमिति ध्रुवऽसदम्। त्वा। नृषदम्। नृसदमिति नृऽसदम्। मनःसदमिति मनःऽसदम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्। अप्सुषदम्। अप्सुसदमित्यप्सुऽसदम्। त्वा। घृतसदमिति घृतऽसदम्। व्योमसदमिति व्योमऽसदम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्। पृथिविसदमिति पृथिविऽसदम्। त्वा। अन्तरिक्षसदमित्यन्तरिक्षऽसदम्। दिविसदमिति दिविऽसदम्। देवसदमिति देवऽसदम्। नाकसदमिति नाकऽसदम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्॥२॥
विषय - फिर मनुष्य लोग किस प्रकार के पुरुष को राज्याऽधिकार में स्वीकार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे चक्रवर्ति राजन्! मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) योगविद्या के प्रसिद्ध अङ्ग यम के सेवने वाले पुरुषों से स्वीकार किये (असि) हो। उस (ध्रुवसदम्) निश्चल विद्या विनय और योगधर्मों में स्थित (नृषदम्) नायक पुरुषों में अवस्थित (मनःसदम्) विज्ञान में स्थिर (जुष्टम्) प्रीतियुक्त (त्वा) आपको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) सुखनिमित्त है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त सेवनीय (त्वा) आपका (गृह्णामि) धारण करता हूं। हे राजन्! मैं (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य धारण के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) प्रजा और राजपुरुषों ने स्वीकार किये (असि) हो। उस (अप्सुसदम्) जलों के बीच चलते हुए (घृतसदम्) घी आदि पदार्थों को प्राप्त हुए और (व्योमसदम्) विमानादि यानों से आकाश में चलते हुए (जुष्टम्) सब के प्रिय (त्वा) आपका (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं। हे सब की रक्षा करनेहारे सभाध्यक्ष राजन्! जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) सुखदायक घर है, उस (जुष्टतमम्) अति प्रसन्न (त्वा) आपको (इन्द्राय) दुष्ट शत्रुओं के मारने के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। हे सब भूमि में प्रसिद्ध राजन्! मैं (इन्द्राय) विद्या योग और मोक्षरूप ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) साधन-उपसाधानों से युक्त (असि) हो, उस (पृथिविसदम्) पृथिवी में भ्रमण करते हुए (अन्तरिक्षसदम्) आकाश में चलने वाले (दिविसदम्) न्याय के प्रकाश में नियुक्त (देवसदम्) धर्मात्मा और विद्वानों के मध्य में अवस्थित (नाकसदम्) सब दुःखों से रहित परमेश्वर और धर्म्म में स्थिर (जुष्टम्) सेवनीय (त्वा) आपको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। हे सब सुख देने और प्रजापालन करनेहारे राजपुरुष! जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) रहने का स्थान है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त प्रिय (त्वा) आपको (इन्द्राय) समग्र सुख देने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥२॥
भावार्थ - हे राजप्रजाजनो! जैसे सर्वव्यापक परमेश्वर सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य भोगने के लिये जगत् रच के सब के लिये सुख देता, वैसा ही आचरण तुम लोग भी करो कि जिस से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों की प्राप्ति सुगम होवे॥२॥
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