यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 10
ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्राबृहस्पती देवते
छन्दः - विराट् उत्कृति,
स्वरः - षड्जः
9
दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यस॑वसो॒ बृहस्पते॑रुत्त॒मं नाक॑ꣳ रुहेयम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यस॑वस॒ऽइन्द्र॑स्योत्त॒मं ना॑कꣳरुहेयम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवसो॒ बृह॒स्पते॑रुत्त॒मं नाक॑मरुहम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवस॒ऽइन्द्र॑स्योत्त॒मं नाक॑मरुहम्॥१०॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽस॑वसः। बृह॒स्पतेः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। रु॒हे॒य॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽसव॑सः। इन्द्र॑स्य। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। रु॒हे॒य॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सवस॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवसः। बृह॒स्पतेः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। अ॒रु॒ह॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सवस॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवसः। इन्द्र॑स्य। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। अ॒रु॒ह॒म् ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यसवसो बृहस्पतेरुत्तमन्नाकँ रुहेयम् । देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यसवस इन्द्रस्योत्तमन्नाकँ रुहेयम् । देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यप्रसवसो बृहस्पतेरुत्तमन्नाकमरुहम् । देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यप्रसवस इन्द्रस्योत्तमन्नाकमरुहम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यसवस इति सत्यऽसवसः। बृहस्पतेः। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। रुहेयम्। देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यसवस इति सत्यऽसवसः। इन्द्रस्य। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। रुहेयम्। देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यप्रसवस इति सत्यऽप्रसवसः। बृहस्पतेः। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। अरुहम्। देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यप्रसवस इति सत्यऽप्रसवसः। इन्द्रस्य। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। अरुहम्॥१०॥
विषय - मनुष्य लोगों को उचित है कि विद्वानों का अनुकरण करें, मूढ़ों का नहीं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे राजा और प्रजा के पुरुषो! जैसे (अहम्) मैं सभाध्यक्ष राजा (सत्यसवसः) जिसका ऐश्वर्य्य और जगत् का कारण सत्य है, उस (देवस्य) सब ओर से प्रकाशमान (बृहस्पतेः) बड़े प्रकृत्यादि पदार्थों के रक्षक (सवितुः) सब जगत् को उत्पन्न करनेहारे जगदीश्वर के (सवे) उत्पन्न किये जगत् में (उत्तमम्) सब से उत्तम (नाकम्) सब दुःखों से रहित सच्चिदानन्द स्वरूप को (रुहेयम्) आरूढ़ होऊं। हे राजा के सभासद् लोगो! जैसे (अहम्) मैं परोपकारी पुरुष (सत्यसवसः) सत्य न्याय से युक्त (देवस्य) सब सुख देने (सवितुः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेहारे (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्य के सहित चक्रवर्ती राजा के (सवे) ऐश्वर्य्य में (उत्तमम्) प्रशंसा के योग्य (नाकम्) दुःखरहित भोग को प्राप्त हो के (रुहेयम्) आरूढ़ होऊं। हे पढ़ने-पढ़ानेहारे विद्याप्रिय लोगो! जैसे (अहम्) मैं विद्या चाहनेहारा जन (सत्यप्रसवसः) जिससे अविनाशी प्रकट बोध हो, उस (देवस्य) सम्पूर्ण विद्या और शुभ गुण, कर्म और स्वभाव के प्रकाश से युक्त (सवितुः) समग्र विद्याबोध के उत्पन्नकर्त्ता (बृहस्पतेः) उत्तम वेदवाणी की रक्षा करनेहारे वेद, वेदाङ्गोपाङ्गों के पारदर्शी के (सवे) उत्पन्न किये विज्ञान में (उत्तमम्) सब से उत्तम (नाकम्) सब दुःखों से रहित आनन्द को (अरुहम्) आरूढ़ हुआ हूं। हे विजयप्रिय लोगो! जैसे (अहम्) मैं योद्धा मनुष्य (सत्यप्रसवसः) जिससे सत्य, न्याय, विनय और विजयादि उत्पन्न हों, उस (देवस्य) धनुर्वेद युद्धविद्या के प्रकाशक (सवितुः) शत्रुओं के विजय में प्रेरक (इन्द्रस्य) दुष्ट शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे पुरुष की (सवे) प्रेरणा में (उत्तमम्) विजयनामक उत्तम (नाकम्) सब सुख देनेहारे सङ्ग्राम को (अरुहम्) आरूढ़ हुआ हूं, वैसे आप भी सब लोग आरूढ़ हूजिये॥१०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि परस्पर विरोध को छोड़, ईश्वर चक्रवर्ती राज्य और समग्र विद्याओं का सेवन करके, सब उत्तम सुखों को प्राप्त हों और दूसरों को प्राप्त करावें॥१०॥
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