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यजुर्वेद अध्याय - 9

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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 10
    ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः देवता - इन्द्राबृहस्पती देवते छन्दः - विराट् उत्कृति, स्वरः - षड्जः
    74

    दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यस॑वसो॒ बृहस्पते॑रुत्त॒मं नाक॑ꣳ रुहेयम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यस॑वस॒ऽइन्द्र॑स्योत्त॒मं ना॑कꣳरुहेयम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवसो॒ बृह॒स्पते॑रुत्त॒मं नाक॑मरुहम्। दे॒वस्या॒हꣳ स॑वि॒तुः स॒वे स॒त्यप्र॑सवस॒ऽइन्द्र॑स्योत्त॒मं नाक॑मरुहम्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽस॑वसः। बृह॒स्पतेः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। रु॒हे॒य॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽसव॑सः। इन्द्र॑स्य। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। रु॒हे॒य॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सवस॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवसः। बृह॒स्पतेः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। अ॒रु॒ह॒म्। दे॒वस्य॑। अ॒हम्। स॒वि॒तुः। स॒वे। स॒त्यप्र॑सवस॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवसः। इन्द्र॑स्य। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। नाक॑म्। अ॒रु॒ह॒म् ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यसवसो बृहस्पतेरुत्तमन्नाकँ रुहेयम् । देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यसवस इन्द्रस्योत्तमन्नाकँ रुहेयम् । देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यप्रसवसो बृहस्पतेरुत्तमन्नाकमरुहम् । देवस्याहँ सवितुः सवे सत्यप्रसवस इन्द्रस्योत्तमन्नाकमरुहम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यसवस इति सत्यऽसवसः। बृहस्पतेः। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। रुहेयम्। देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यसवस इति सत्यऽसवसः। इन्द्रस्य। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। रुहेयम्। देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यप्रसवस इति सत्यऽप्रसवसः। बृहस्पतेः। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। अरुहम्। देवस्य। अहम्। सवितुः। सवे। सत्यप्रसवस इति सत्यऽप्रसवसः। इन्द्रस्य। उत्तममित्युत्ऽतमम्। नाकम्। अरुहम्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 10
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैर्विदुषामेवाऽनुकरणं कार्य्यं न मूढानामित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे प्रजाराजजनाः! यथाऽहं सत्यसवसो देवस्य बृहस्पतेः सवितुर्जगदीश्वरस्य सव उत्तमं नाकं रुहेयम्। हे राजामात्यपुरुषाः! यथाऽहं सत्यवसो देवस्य सवितुरिन्द्रस्य सम्राजः सव उत्तमं नाकं रुहेयम्। हे अध्येताध्यापका विद्याप्रिया जनाः! यथाऽहं सत्यप्रसवसः सवितुर्देवस्य बृहस्पतेरुत्तमं नाकमरुहम्। हे विजयाभिकांक्षिणो योद्धारो वीराः। यथाहं सत्यप्रसवसो देवस्य सवितुरिन्द्रस्य सव उत्तमं नाकमरुहं तथा यूयमप्यारोहत॥१०॥

    पदार्थः

    (देवस्य) सर्वतः प्रकाशमानस्य (अहम्) सभाध्यक्षो राजा (सवितुः) सकलजगत्प्रसवितुः परमेश्वरस्य (सवे) प्रसूते जगति (सत्यसवसः) सत्यं सव ऐश्वर्यं जगतः कारणं कार्यं च यस्य तस्य (बृहस्पतेः) बृहतां प्रकृत्यादीनां पालकस्य (उत्तमम्) सर्वथोत्कृष्टम् (नाकम्) अविद्यामानदुःखं सर्वसुखयुक्तं तत्स्वरूपं मोक्षपदम् (रुहेयम्) (देवस्य) सर्वसुखप्रदातुः (अहम्) परोपकारी (सवितुः) सकलैश्वर्यप्रसवितुः (सवे) ऐश्वर्य्ये (सत्यसवसः) सत्यन्याययुक्तस्य (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यसहितस्य सम्राजः (उत्तमम्) प्रशस्तम् (नाकम्) अविद्यामानदुःखं भोगम् (रुहेयम्) (देवस्य) अखिलविद्याशुभगुणकर्म्मस्वभावद्योतकस्य (अहम्) विद्यामभीप्सुः (सवितुः) समग्रविद्याबोधप्रसवितुः (सवे) विद्याप्रचारैश्वर्ये (सत्यप्रसवसः) सत्योऽविनाशी प्रसवः प्रकटो बोधो यस्मात् तस्य (बृहस्पतेः) बृहत्या वेदवाण्या पालकस्य (उत्तमम्) (नाकम्) सर्वदुःखप्रणाशकमानन्दम् (अरुहम्) आरूढोऽस्मि (देवस्य) धनुर्वेदादियुद्धविद्या प्रापकस्य (अहम्) योद्धा (सवितुः) शत्रुविजयप्रसवितुः (सवे) प्रेरणे (सत्यप्रसवसः) सत्यानां न्यायविजयादीनां प्रसवो यस्मात् तस्य (इन्द्रस्य) दुष्टशत्रुविदारकस्य (उत्तमम्) विजयाख्यम् (नाकम्) सर्वसुखप्रदम् (अरुहम्) आरूढोऽस्मि। अयं मन्त्रः (शत॰५। १। ५। २-५) व्याख्यातः॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजप्रजाजनैः परस्परविरोधेनेश्वरचक्रवर्त्तिराज्यसमग्रविद्याः सम्भज्य सर्वाण्युत्तमानि सुखानि प्राप्तव्यानि प्रापयितव्यानि च॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य लोगों को उचित है कि विद्वानों का अनुकरण करें, मूढ़ों का नहीं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजा और प्रजा के पुरुषो! जैसे (अहम्) मैं सभाध्यक्ष राजा (सत्यसवसः) जिसका ऐश्वर्य्य और जगत् का कारण सत्य है, उस (देवस्य) सब ओर से प्रकाशमान (बृहस्पतेः) बड़े प्रकृत्यादि पदार्थों के रक्षक (सवितुः) सब जगत् को उत्पन्न करनेहारे जगदीश्वर के (सवे) उत्पन्न किये जगत् में (उत्तमम्) सब से उत्तम (नाकम्) सब दुःखों से रहित सच्चिदानन्द स्वरूप को (रुहेयम्) आरूढ़ होऊं। हे राजा के सभासद् लोगो! जैसे (अहम्) मैं परोपकारी पुरुष (सत्यसवसः) सत्य न्याय से युक्त (देवस्य) सब सुख देने (सवितुः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेहारे (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्य के सहित चक्रवर्ती राजा के (सवे) ऐश्वर्य्य में (उत्तमम्) प्रशंसा के योग्य (नाकम्) दुःखरहित भोग को प्राप्त हो के (रुहेयम्) आरूढ़ होऊं। हे पढ़ने-पढ़ानेहारे विद्याप्रिय लोगो! जैसे (अहम्) मैं विद्या चाहनेहारा जन (सत्यप्रसवसः) जिससे अविनाशी प्रकट बोध हो, उस (देवस्य) सम्पूर्ण विद्या और शुभ गुण, कर्म और स्वभाव के प्रकाश से युक्त (सवितुः) समग्र विद्याबोध के उत्पन्नकर्त्ता (बृहस्पतेः) उत्तम वेदवाणी की रक्षा करनेहारे वेद, वेदाङ्गोपाङ्गों के पारदर्शी के (सवे) उत्पन्न किये विज्ञान में (उत्तमम्) सब से उत्तम (नाकम्) सब दुःखों से रहित आनन्द को (अरुहम्) आरूढ़ हुआ हूं। हे विजयप्रिय लोगो! जैसे (अहम्) मैं योद्धा मनुष्य (सत्यप्रसवसः) जिससे सत्य, न्याय, विनय और विजयादि उत्पन्न हों, उस (देवस्य) धनुर्वेद युद्धविद्या के प्रकाशक (सवितुः) शत्रुओं के विजय में प्रेरक (इन्द्रस्य) दुष्ट शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे पुरुष की (सवे) प्रेरणा में (उत्तमम्) विजयनामक उत्तम (नाकम्) सब सुख देनेहारे सङ्ग्राम को (अरुहम्) आरूढ़ हुआ हूं, वैसे आप भी सब लोग आरूढ़ हूजिये॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि परस्पर विरोध को छोड़, ईश्वर चक्रवर्ती राज्य और समग्र विद्याओं का सेवन करके, सब उत्तम सुखों को प्राप्त हों और दूसरों को प्राप्त करावें॥१०॥

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    विषय

    ज्ञानी व जितेन्द्रिय का स्वर्ग

    पदार्थ

    १. राजा के शासन के उत्तम होने पर राष्ट्र स्वर्गतुल्य बन जाता है। उस राष्ट्र में मूर्ख व अज्ञानियों का निवास नहीं होता, अतः वह स्वर्ग ‘बृहस्पति’ का कहलाता है तथा इसमें कोई भी व्यक्ति अजितेन्द्रिय नहीं होता, अतः यह ‘इन्द्र’ का स्वर्ग होता है। मन्त्र में कहते है कि— २. ( अहम् ) = मैं ( सवितुः देवस्य ) = प्रेरक प्रभु की, जो ( सत्यसवसः ) = सदा सत्य की ही प्रेरणा देते हैं ( सवे ) = प्रेरणा में, अनुज्ञा में ( बृहस्पतेः ) = बृहस्पति के ( उत्तमं नाकम् ) = उत्कृष्ट स्वर्ग को ( रुहेयम् ) = आरुढ़ होऊँ। बृहस्पति का स्वर्ग वह है जहाँ योग्यतम आचार्यों का निवास है। 

    ३. ( अहम् ) = मैं ( सत्यसवसः ) = उस सत्य-प्रेरणावाले ( सवितुः देवस्य ) = प्रेरक प्रभु की ( सवे ) = प्रेरणा में ( इन्द्रस्य ) = जितेन्द्रिय पुरुष के ( उत्तमं नाकम् ) = उत्कृष्ट स्वर्ग में ( रुहेयम् ) = आरुढ़ होऊँ। ‘इन्द्र’ का स्वर्ग वह है जहाँ कि सब पुरुष ‘जितेन्द्रिय’ हैं, जहाँ अजितेन्द्रियों का निवास नहीं। 

    ४. ‘आरुढ़ होऊँ’ इस प्रकार की कामना ही क्यों करता रहूँ—बस, अब तो मैं ‘आरूढ़ हो ही गया’। दृढ़ संकल्प का यह परिणाम होना ही चाहिए कि वह संकल्प क्रिया में परिणत हो जाए, अतः यहाँ कहते हैं कि ‘आरूढ़ हो जाऊँ, नहीं बस आरूढ़ हो ही गया’। 

    ५. ( अहम् ) =  मैं ( सत्यप्रसवसः ) = सत्य की उत्कृष्ट प्रेरणावाले ( सवितुः देवस्य ) = प्रेरक प्रभु की ( सवे ) = अनुज्ञा में ( बृहस्पतेः ) = बृहस्पति के ( उत्तमं नाकम् ) = उत्कृष्ट स्वर्ग में ( आरुहम् ) = आरूढ़ हुआ हूँ और ( सत्यप्रसवसः ) = उस उत्कृष्ट प्रेरणावाले ( सवितुः देवस्य ) = प्रेरक प्रभु की ( सवे ) = प्रेरणा में मैं ( इन्द्रस्य ) = जितेन्द्रिय के ( उत्तमं नाकम् ) = उत्कृष्ट स्वर्ग में ( अरुहम् ) = आरूढ़ हुआ हूँ। 

    ६. मन्त्रार्थ से ये बातें स्पष्ट हैं कि [ क ] स्वर्ग ‘बृहस्पति व इन्द्र’ का है, अर्थात् ज्ञानी व जितेन्द्रिय का है। स्वर्ग में पहुँचने के लिए हम जितेन्द्रिय व ज्ञानी बनें। जितेन्द्रयता व ज्ञान ही हमारे घर व जीवन को स्वर्ग बनाते हैं। [ ख ] जितेन्द्रिय व ज्ञानी बनने के लिए प्रभु की प्रेरणा में चलें। [ ग ] जीवन को स्वर्ग बनाने का संकल्प दृढ़ होगा तभी हम इसे स्वर्ग बना पाएँगे।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम सब प्रभु के निर्देशानुसार चलनेवाले हों। ज्ञानी व जितेन्द्रिय बनें और इस प्रकार हमारा जीवन ‘स्वर्ग’ हो।

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    विषय

    उत्तम राजा के शासन में सुख प्राप्ति।

    भावार्थ

     ( अहम् ) मैं ( सवितुः ) सर्वप्रेरक, ( सत्यसवसः ) सत्य मार्ग पर चलने की आज्ञा देने वाले, ( बृहस्पतेः ) बृहती, बढ़ी भारी सेना के पालक, सेनाध्यक्ष के ( सवे ) आज्ञा, अनुशासन में रह कर और उसी प्रकार सर्वप्रेरक, सत्यमार्ग या उचित मार्ग में आज्ञा करने वाले, ( इन्द्र- स्य ) ऐश्वर्यवान् राजा के ( सबे ) शासन में रह कर ( उत्तमम् नाकम् ) सब से उत्कृष्ट, सुखमय लोक और पद को ( रुहेयम् ) प्राप्त होऊं ॥ शत० ५।१।५।१-५ ॥ 

    परमेश्वर के पक्ष में- ( देवस्य ) सर्वतः प्रकाशमान, ( सवितु: ) सकल जगत् के उत्पादक ( सत्यसवस: ) सत्य ऐश्वर्यवान् (बृहस्पतेः ) बृहती वेदवाणी और महती प्रकृति यादि के पालक स्वामी परमेश्वर के ( सवे ) उत्पन्न किये संसार में और ( सत्यसवसः इन्द्रस्य ) सत्य न्याययुक्त शासन वाले, इन्द्र परमैश्वर्यवान् सम्राट् या राजा के ( सर्वे ) ऐश्वर्य पा समृद्ध शासन में रहकर मैं ( उत्तमं नाकम् अधिरुहेयम् ) उत्तम दुःखरहित और सुख- मय आनन्द को प्राप्त होऊं ! 
    इसी प्रकार ( अहम् ) मैं (सवितुः ) सकल ऐश्वर्योत्पादक ( सत्य- प्रसवसः) सत्य ज्ञान के प्रसव करनेवाले सकल बोधों के जनक (बृहस्पतेः सवे) वेदवाणी के पालक आचार्य, विद्या प्रकाशक आचार्य के शासन में रहकर मैं ( उत्तमं नाकम् अरुहम् ) उत्तम सुखमय स्थिति को प्राप्त करूं । इसी प्रकार ( देवस्य ) धनुर्विद्या में विज्ञ (सवितुः ) विजयोत्पादक(सत्यप्रसवसः ) सत्य व्यवहारों और विजयों के कर्ता ( इन्द्रस्य ) शत्रुनाशक सेनापति के ( सवे ) शासन में रहकर में ( उत्तमं नाकम् अचरम् ) उत्तम सुख को प्राप्त होऊं ॥
     

    टिप्पणी

     १० देवस्य वयं स ०, ० रुहेम्, '० 'मारुहम् । इन्द्रास्योत्तमं नाकमारुहाम इति काण्व० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रा बृहस्पती देवते । विराड् उत्कृतिः । षड्जः ॥ 

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा व प्रजा यांनी परस्पर विरोध सोडून ईश्वर, चक्रवर्ती राज्य व संपूर्ण विद्या यांचे ग्रहण करावे. उत्तम सुख प्राप्त करून इतरांनाही सुखी करावे.

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    विषय

    मनुष्यांसाठी उचित आहेकी त्यांनी विद्वानांचे अनुकरण करावे, मुर्खांचे नको. पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (या मंत्रात चार वक्ता अनुक्रमे चार व्यक्तीनां उद्देशून सांगत आहेत) (1) हे राज पुरुषहो आणि हे प्रजाजन हो, ज्याप्रमाणे (अहम्) मी-सभाध्यक्ष राजा-(सत्यसवस:) ज्या ईश्वराचे ऐश्वर्य सत्य आहे आणि जो एकमेव जगाचे कारण आहे, (देवस्य) जो प्रकाशमान (बृहस्पते:) महान् प्रकृती आदी पदार्थांचा रक्षक आहे आणि (सवितु:) जो सर्वजगदुत्पादक आहे, त्या परमेश्वराने (सवे) उत्पन्न केलेल्या जगामध्ये (उत्तमम्) सर्वोत्तम असलेल्या (नाक्म्) सर्व दु:खापासून रहित अशा सच्चिदानंद स्वरूपाला मी (रुहेयम्) आरूढ होतो (परमेश्वराचे ध्यान व उपासना करतो, त्याप्रमाणे तुम्हीही करा.) (2) हे राजाच्या सभासदजनहो, ज्याप्रमाणे (अहम्) मी - एक परोपकारी मनुष्य, (सत्यसवस:) सत्य आणि न्यायकारी (देवस्य) सर्वांना आनंद देणार्‍या आणि (सवितु:) ऐश्वर्याची वृद्धी करणार्‍या चक्रवर्ती राजाच्या (सवे) ऐश्वर्यामधे (उत्तमम्) प्रशंसनीय अशा (नाकम्) दु:खरहित भोगांना प्राप्त करून (सहेयम्) सुखांवर आरुढ होतो, (आनंदित होतो, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील व्हा) (3) हे अध्ययन-अध्यापनात रममाण होणार्‍या विद्याप्रिय जनहो, ज्याप्रमाणे (अहम्) मी- विद्या शिकण्यास इच्छुक असणारा एक मनुष्य (सत्यप्रसव स:) अविनाशी बोध देणार्‍या (देवस्य) संपूर्ण विद्या, गुण कर्म आणि स्वभावाने संपन्न अशा (सवितु:) विद्या-ज्ञानाचे उत्पत्तिकर्ता (बृहस्पते:) उत्तम वेदवाणीचे रक्षण करणार्‍या आणि वेद, वेदांग, वेदोपांग यांचे पारदर्शी विद्वानांने (सवे) शोधलेल्या ज्ञान-विज्ञानाद्वारे (उत्तमम्) सर्वोत्तम (नाकम्) दु:खरहित आनंदाला (असहम्) आरूढ झालो आहे. (विद्वानांनी सांगितलेल्या वेदज्ञानाच्या अर्थ आणि भाष्याला समजून घेऊन आनंदित होत आहे, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील व्हा) (4) हे विजय इच्छिणार्‍या लोकांनो, ज्याप्रमाणे (अहम्) मी एक योद्धा, (सत्यप्रवस:) सत्य, न्याय, विनय, विजय आदी गुणांनी संपन्न असणार्‍या (देवस्य) धनुर्वेदाचे जाणकार, (सवितु) युद्धात शत्रूवर विजय मिळवून देणार्‍या (इन्द्रस्य) विनाशक शत्रूंना छिन्न-विच्छिन्न करणार्‍या शूर सेनानीच्या (सवे) प्रेरणा आणि प्रोत्साहनामुळे (उत्तमम्) विजयरुप उत्तम अशा (नारुभ्) सर्वसुखकारी युद्धावर (अरुहम्) आरुढ झालो आहे (युद्धात प्रवीण आणि विजयासाठी सिद्ध झालो आहे) त्याप्रमाणे तुम्ही सर्वजण देखील तत्पर आणि सिद्ध व्हा ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. (तसेच देवस्य, बृहस्पते: सत्यप्रसवस:, सचितु: इन्द्रस्य, या पदांचे एकाहून अधिक अर्थ निघत आहेत, त्यामुळे या मंत्रात श्लेष-शब्दश्लेष, अलंकारदेखील आहे) राजा, राजपुरुष, प्रजाजन या सर्वांकरिता उचित कर्म आहे की त्यांनी आपसातील विरोध, द्वेषादींचा त्याग करून ईश्वराची उपासना करून चक्रवर्ती राज्याचा आश्रय घेऊन आणि समग्र विद्यांची प्राप्ती करून स्वत: उत्तमसुख मिळवावेत आणि इतरांना प्राप्त करून द्यावेत ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May I realise in this world, the nature of God free from pain and full of delight ; Who is lustrous, and generator of the universe. Whose cause and effect of the universe are true ; Who nourishes all material objects, and is most high. May I rise, through the prosperity, and excellent gifts of the king, the creator of riches, the giver of comforts, and dispenser of justice. May I rise through the highest pleasure I obtain from the knowledge imparted by my learned preceptor, the giver of imperishable knowledge, the embodiment of noble attributes and actions ; and the encyclopaedia of learning. May I rise through the victory-giving battle, and the persuasion of the commander, the subduer of wicked foes, the inciter to victory over opponents, the expert in the science of military warfare, the dispenser of justice and full of humility.

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    Meaning

    In this yajnic creation of glorious Savita, Lord of light and life, may I ascend to the highest heaven of freedom, knowledge and divine realization by the grace of Brihaspati, great and inviolable lord of truth and existence. In this yajnic creation of glorious Savita, Lord of light and life, may I ascend to the highest heaven of freedom, justice and prosperity by the grace of Indra, inexorable lord of truth, justice and magnificence. In this yajnic creation of glorious Savita, Lord of light and life, I have risen to the highest realization of freedom, knowledge and divine presence by the grace of Brihaspati, great and generous lord promoter of truth and existence. In this yajnic creation of glorious Savita, Lord of light and life, I have risen to the highest realization of freedom, justice and prosperity by the grace of Indra, generous and unfailing Lord promoter of truth, justice and magnificence.

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    Translation

    By impulsion of the creator God who is the true inspirer, may I ascend to the most excellent heaven of the Lord Supreme. (1) By impulsion of the creator God, who is the true inspirer, may I ascend to the most excellent heaven of the resplendent Lord. (2) By impulsion of the creator God, who is verily the true inspirer, I have ascended to the most excellent heaven of the Lord Supreme. (3) By impulsion of the creator God, who is verily the true inspirer, I have ascended to the most excellent heaven of the resplendent Lord. (4)

    Notes

    Savituh, of the creator God, or of the inspirer God, or the impeller God. Nakam, heaven; the sorrowless world. In the first mantras of this kandika the word ‘satyasavasah'ts used, while in the latter two the word used is 'satyaprasavasah, It is suggested that the first and the third mantras are to be used when the sacrificer is a Brahmana and the second and the fourth when the sacrificer is a Rajanya (Ksattriya).

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যৈর্বিদুষামেবাऽনুকরণং কার্য়্যং ন মূঢানামিত্যুপদিশ্যতে ॥
    মনুষ্যদিগের উচিত যে, বিদ্বান্দিগের অনুকরণ করুক, মূঢ়দের নহে । এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজা ও প্রজার পুরুষগণ ! যেমন (অহম্) আমি সভাধ্যক্ষ রাজা (সত্যসবসঃ) যাহার ঐশ্বর্য্য ও জগতের কারণ সত্য সেই (দেবস্য) সব দিক হইতে প্রকাশমান (বৃহস্পতেঃ) বৃহৎ প্রকৃত্যাদি পদার্থের রক্ষক (সবিতুঃ) সকল জগতের উৎপন্নকারী জগদীশ্বরের (সবে) উৎপন্ন কৃত জগতে (উত্তমম্) সর্বাপেক্ষা উত্তম (নাকম্) সকল দুঃখ হইতে রহিত সচ্চিদানন্দ স্বরূপে (রুহেয়ম্) আরূঢ় হই । হে রাজার সভাসদ্গণ । যেমন (অহম্) আমি পরোপকারী পুরুষ (সত্যসবসঃ) সত্য ন্যায় সহিত যুক্ত (দেবস্য) সকল সুখদাতা (সবিতুঃ) সম্পূর্ণ ঐশ্বর্য্য উৎপাদক (ইন্দ্রস্য) পরম ঐশ্বর্য্য সহিত চক্রবর্ত্তী রাজার (সবে) ঐশ্বর্য্যে (উত্তমম্) প্রশংসার যোগ্য (বাকম্) দুঃখরহিত ভোগ প্রাপ্ত হইয়া (রুহেয়ম্) আরূঢ় হই । হে পঠন-পাঠন কারী বিদ্যাপ্রিয় লোকগণ । যেমন (অহম্) আমি বিদ্যা কামনাকারী (সত্যপ্রসবসঃ) যদ্দ্বারা অবিনাশী প্রকট বোধ হয় সেই (দেবস্য) সম্পূর্ণ বিদ্যা ও শুভ গুণ কর্ম ও স্বভাবের প্রকাশ দ্বারা যুক্ত (সবিতুঃ) সমগ্র বিদ্যাবোধের উৎপন্নকর্ত্তা (বৃহস্পতেঃ) উত্তম বেদবাণীর রক্ষক বেদ বেদাঙ্গ-উপাঙ্গের পারদর্শীর (সবে) উৎপন্ন কৃত বিজ্ঞানে (উত্তমম্) সর্বাপেক্ষা উত্তম (নাকম্) সকল দুঃখ হইতে রহিত আনন্দকে (অরুহম্) আরূঢ় হইয়াছি । হে বিজয়প্রিয় লোকগণ ! যেমন (অহম্) আমি যোদ্ধা মনুষ্য (সত্যপ্রসবসঃ) যদ্দ্বারা সত্য, ন্যায়, বিনয় ও বিজয়াদি উৎপন্ন হয় সেই (দেবস্য) ধনুর্বেদ যুদ্ধবিদ্যার প্রকাশক (সবিতুঃ) শত্রুদিগের বিজয়ে প্রেরক (ইন্দ্রস্য) দুষ্ট শত্রুদিগকে বিদীর্ণকারী পুরুষের (সবে) প্রেরণায় (উত্তমম্) বিজয় নামক উত্তম (নাকম্) সকল দুঃখদাতা সংগ্রামকে (অরুহম্) আরূঢ় হইয়াছি সেইরূপ আপনারা সকলে আরূঢ় হউন ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । সকল রাজা ও প্রজার পুরুষদিগের উচিত যে, পরস্পর বিরোধ ত্যাগ করিয়া ঈশ্বর চক্রবর্ত্তী রাজ্য ও সমগ্র বিদ্যার সেবন করিয়া সকল উত্তম গুণ প্রাপ্ত হউক এবং অন্যকেও প্রাপ্ত করাক্ ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বস্যা॒হꣳ স॑বি॒তুঃ স॒বে স॒ত্যস॑বসো॒ বৃহ॒স্পতে॑রুত্ত॒মং নাক॑ꣳ রুহেয়ম্ । দে॒বস্যা॒হꣳ স॑বি॒তুঃ স॒বে স॒ত্যস॑বস॒ऽইন্দ্র॑স্যোত্ত॒মং না॑কꣳরুহেয়ম্ । দে॒বস্যা॒হꣳ স॑বি॒তুঃ স॒বে স॒ত্যপ্র॑সবসো॒ বৃহ॒স্পতে॑রুত্ত॒মং নাক॑মরুহম্ । দে॒বস্যা॒হꣳ স॑বি॒তুঃ স॒বে স॒ত্যপ্র॑সবস॒ऽইন্দ্র॑স্যোত্ত॒মং নাক॑মরুহম্ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবস্যাহমিত্যস্য বৃহস্পতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রাবৃহস্পতী দেবতে । বিরাডুৎকৃতিশ্ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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