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यजुर्वेद अध्याय - 9

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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 3
    ऋषिः - तापस ऋषिः देवता - सम्राड् देवता छन्दः - निचृत् अति शक्वरी, स्वरः - पञ्चमः
    179

    अ॒पा रस॒मुद्व॑यस॒ꣳ सूर्ये॒ सन्त॑ꣳ स॒माहि॑तम्। अ॒पा रस॑स्य॒ यो रस॒स्तं वो॑ गृह्णाम्युत्त॒ममु॑पया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। रस॑म्। उद्व॑यस॒मित्युत्ऽवय॑सम्। सूर्ये॑। सन्त॑म्। स॒माहि॑त॒मिति॑ स॒म्ऽआहि॑तम्। अ॒पाम्। रस॑स्य। यः। रसः॑। तम्। वः॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम् ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाँ रसमुद्वयसँ सूर्ये सन्तँ समाहितम् अपाँ रसस्य यो रसस्तँवो गृह्णाम्युत्तममुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। रसम्। उद्वयसमित्युत्ऽवयसम्। सूर्ये। सन्तम्। समाहितमिति सम्ऽआहितम्। अपाम्। रसस्य। यः। रसः। तम्। वः। गृह्णामि। उत्तममित्युत्ऽतमम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः प्रजाजनैः कथंभूतो जनो राजा माननीय इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे राजन्नहमिन्द्राय वः सूर्य्ये सन्तं समाहितमुद्वयसमपां रसं गृह्णामि। योऽपां रसस्य रसस्तमुत्तमं वो गृह्णामि, यस्यैष ते योनिरस्ति तमिन्द्राय जुष्टतमं त्वा गृह्णामि॥३॥

    पदार्थः

    (अपाम्) जलानाम् (रसम्) सारम् (उद्वयसम्) उत्कृष्टं वयो जीवनं यस्मात् तम् (सूर्य्ये) सवितृप्रकाशे (सन्तम्) वर्त्तमानम् (समाहितम्) सम्यक् सर्वतो धृतम् (अपाम्) जलानाम् (रसस्य) सारस्य (यः) (रसः) वीर्य्यं धातुः (तम्) (वः) युष्मभ्यम् (गृह्णामि) (उत्तमम्) श्रेयांसम् (उपयामगृहीतः) साधनोपसाधनैः स्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमेश्वराय (त्वा) (जुष्टम्) प्रीत्या वर्त्तमानम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (एषः) (ते) तव (योनिः) गृहम् (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) (जुष्टतमम्)। अयं मन्त्रः (शत॰५। १। २। ७) व्याख्यातः॥३॥

    भावार्थः

    राजा स्वभृत्यप्रजाजनान् शरीरात्मबलवर्धनाय ब्रह्मचर्य्याौषधविद्यायोगाभ्याससेवने नियुञ्जीत, यतः सर्वे रोगरहिताः सन्तः पुरुषार्थिनः स्युः॥३॥

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    विषयः

    पुनः प्रजाजनैः कथंभूतो जनो राजा माननीय इत्युपदिश्यते ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे राजन् ! अहमिन्द्राय परमेश्वराय वः युष्मभ्यं सूर्येअस सवितृप्रकाशे सन्तं वर्तमानंसमाहितं सम्यक् सर्वतो धृतम् उद्वयसम् उत्कृष्टं वयः=जीवनं यस्मात्तम् अपां जलानां रसं सारं गृह्णामि स्वीकरोमि । योऽपां जलानां रसस्य सारस्य रसः वीर्य्यं धातुः तमुत्तमं श्रेयांसं वः युष्मभ्यं गृह्णामि स्वीकरोमि । [यस्त्वमुपयामगृहीतः] साधनोपसाधनैः संयुक्त: [असि] यस्यैष ते तव योनिः गृहम् अस्ति,तं [जुष्टं] प्रीत्या वर्त्तमानम् इन्द्राय परमैश्वर्याय जुष्टतमं त्वा गृह्णामि स्वीकरोमि ॥ ९ । ३ ॥ [हे राजन् ! अहमिन्द्राय.........अपां रसं गृह्णामि,योऽपां रसस्य रसस्तमुत्तमं वो गृह्णामि]

    पदार्थः

    (अपाम्) जलानाम् (रसम्) सारम् (उद्वयसम्) उत्कृष्टं वयो=जीवनं यस्मात्तम् (सूर्य्ये) सवितृप्रकाशे (सन्तम्) वर्त्तमानम् (समाहितम्) सम्यक् सर्वतो धृतम् (अपाम्) जलानाम् (रसस्य) सारस्य (यः) (रसः) वीर्य्यं धातुः (तम्) (वः) युष्मभ्यम् (गृह्णामि) (उत्तमम्) श्रेयांसम् (उपयामगृहीतः) साधनोपसाधनैः स्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमेश्वराय (त्वा) (जुष्टम्) प्रीत्या वर्तमानम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (एषः) (ते) तव (योनिः) गृहम् ( इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) (जुष्टतमम् ) ॥ अयं मन्त्रः शत० ५ । १ ।२ । ७ व्याख्यातः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    राजा स्वभृत्यप्रजाजनान् शरीरात्मबलवर्धनाय ब्रह्मचर्यौषधविद्यायोगाभ्याससेवनेनियुञ्जीत, यतः सर्वे रोगरहिताः सन्तः पुरुषार्थिनः स्युः।।९।३॥

    विशेषः

    बृहस्पतिः । इन्द्रः=राजा। प्रतिशक्वरी। पञ्चमः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर प्रजाजनों को कैसा पुरुष राजा मानना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजन्! मैं (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्राप्ति के लिये (वः) तुम्हारे लिये (सूर्य्ये) सूर्य के प्रकाश में (सन्तम्) वर्त्तमान (समाहितम्) सर्व प्रकार चारों ओर धारण किये (उद्वयसम्) उत्कृष्ट जीवन के हेतु (अपाम्) जलों के (रसम्) सार का ग्रहण करता हूं, (यः) जो (अपाम्) जलों के (रसस्य) सार का (रसः) वीर्य धातु है, (तम्) उस (उत्तमम्) कल्याणकारक रस का तुम्हारे लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं, जो आप (उपयामगृहीतः) साधन तथा उपसाधनों से स्वीकार किये गये (असि) हो, उस (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये (जुष्टम्) प्रीतिपूर्वक वर्त्तनेवाले आप का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं, जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) घर है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त सेवनीय (त्वा) आप को (इन्द्राय) परम सुख होने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥३॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि अपने नौकर प्रजापुरुषों को शरीर और आत्मा के बल बढ़ाने के लिये ब्रह्मचर्य, ओषधि, विद्या और योगाभ्यास के सेवन में नियुक्त करे, जिससे सब मनुष्य रोगरहित होकर पुरुषार्थी होवें॥३॥

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    विषय

    प्रजा में सर्वोत्तम

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में राजा का वर्णन था। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि राजा किसे चुनें? जो ( अपाम् ) = प्रजाओं का ( रसम् ) = रस—सारभूत व्यक्ति हो—अर्थात् प्रजाओं में जो सर्वोत्कृष्ट हो। 

    २. ( उद्वयसम् ) = उत्कृष्ट जीवनवाले को, अर्थात् राजा का चरित्र ऊँचा होना चाहिए, आयु के दृष्टिकोण से भी बड़ी आयुवाला ही ठीक है, क्योंकि इसे पर्याप्त अनुभव होगा। 

    ३. ( सूर्ये सन्तम् ) = जो सदा प्रकाश में निवास करता है। पिछले मन्त्र में ‘दिविषदं’ शब्द इसी भावना को व्यक्त कर रहा था [ दिवि = सूर्ये षदं = सन्तम् ] ४. ( समाहितम् ) = एकाग्रचित्तवृत्तिवाले को। यही भावना ‘ध्रुवसदम्’ शब्द से पहले मन्त्र में कही गई थी। 

    ५. ( अपाम् ) = प्रजाओं के ( रसस्य यः रसः ) = रस का भी जो रस है, अर्थात् जो प्रजाओं में सर्वोत्तम जीवनवाला हो ( तम् ) = उस तुझे ( वः ) = तुम्हारे लिए, प्रजाओं के हित के लिए ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ। ( उपयामगृहीतः असि ) = तू उपासना द्वारा स्वीकृत यम-नियमोंवाला है। ( जुष्टम् ) = प्रीतिपूर्वक राष्ट्र की सेवा करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ। ( एषः ) = यह राष्ट्र ही ( ते योनिः ) = तेरा घर है। ( जुष्टतमम् ) = राष्ट्र का सर्वाधिक प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए ग्रहण करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा उसे चुना जाए जो १. प्रजाओं में सर्वोत्तम जीवनवाला हो २. कुछ बड़ी आयु का हो। ३. सदा प्रकाश में निवास करनेवाला हो। ४. एकाग्रचित्तवृत्ति का हो ५. राष्ट्र को ही अपना घर समझनेवाला और उसकी प्रीतिपूर्वक सेवा करनेवाला हो।

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    विषय

    इन्द्र की स्थापना ।

    भावार्थ

    ( उद्वयसम् ) उत्कृष्ट दीर्घ जीवन को देने वाले ( सूर्ये सन्तम् ) सूर्य में सदा वर्त्तमान, सूर्य की रश्मियों द्वारा प्राप्त और ( सम् आहितम् ) उनके बल पर सर्वत्र व्याप्त ( अपाम् ) जलों के ( रसम् ) वीर्य, ररूप जीवन को और ( अपां रसस्य ) जलों के रस अर्थात् सार- रूप भाग का भी ( या रसः ) जो रस, सारिष्ठ, सब से अधिक साररूप वीर्य धातु है, विद्वान् पुरुष जिस प्रकार  हे( आपः ) जलो ! ( वः ) आप के उसको ( तम् ) उस ( उत्तमम् ) सब से उत्कृष्ट वीर्य को ( गृहामि ) ग्रहण करता हूँ उसी प्रकार हे ( आपः ) प्राप्त प्रजाजनो ! ( अपाम् ) आप्त प्रजारूप ( वः ) आप लोगों का ( उद्वयसम् ) उत्कृष्ट, उन्नत जीवन वाले, दीर्घायु, अनुभवी ( सूर्ये ) सर्व प्रेरक राजा के आश्रय पर (सन्तम् ) विद्यमान एवं ( समाहितम् ) उसके प्रति एकाग्र चित्त होकर रहने वाले ( रसम् ) वीर्यवान् राजबल को और ( अपां रसस्य ) प्रजाओं के बलवान् भाग में से भी जो ( रसः) उत्तम बल है ( वः तम् उत्तमम् रसम् ) अप लोगों के उस सर्वोत्कृष्ट रस या बल को मैं राष्ट्र का पुरोहित ( गृह्णामि ) प्राप्त करता हूं और उसे राष्ट्र के कार्य में नियुक्त करता हूं । ( उपयामगृहीतः असि० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥ शत० ५ । १ । २ । ७ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो देवता । अतिशक्वरी । पञ्चमः ॥ 

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    विषय

    फिर प्रजाजनों को कैसा पुरुष राजा मानना चाहिये, यह उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे राजन् ! मैं (इन्द्राय) परमेश्वर-प्राप्ति के लिये (वः) तथा आपके लिये (सूर्य) सूर्य के प्रकाश में (सन्तम्) वर्तमान, (समाहितम्) सब ओर विद्यमान (उद्वयसम्) उत्कृष्ट आयु=जीवन के साधन (अपाम्) जलों के (रसम्) सार को (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। जो (अपाम्) जलों के (रसस्य) सार के (रसः) रस रूप वीर्य धातु है, उस (उत्तमम्) श्रेष्ठ धातु को (वः) आपके लिए (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। जो आप [उपयामगृहीतः] साधन उपसाधनों से युक्त [असि] हो, सो (एषः) यह गुणवृन्द (ते) आपका (योनिः) निवास है, सो (जुष्टम्) प्रीतियुक्त एवं (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (जुष्टतमम्) प्रीति औरसेवा के योग्य (त्वा) आपको (गृहामि) स्वीकार करता हूँ ॥ ९ । ३॥

    भावार्थ

    राजा अपने सेवकों एवं प्रजा जनों को शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाने केलिये ब्रह्मचर्य, औषधि, विद्या और योगाभ्यास के सेवन करने में लगाये, जिससे सब रोग-रहित होकर पुरुषार्थी हों ॥ ९ । ३॥

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५ । १।२। ७) में की गई है ॥९ । ३ ॥

    भाष्यसार

    प्रजा कैसे पुरुष को राजा मानें--प्रजाजन सूर्य के प्रकाश में विद्यमान, उत्तम रीति से सब ओर से धारण-पोषण करने वाले, उत्कृष्ट जीवन के हेतु जलों के सार को ग्रहण करें, जलों के सारभूत वीर्य को शरीर-बल की वृद्धि के लिये धारण करें, यम-नियम आदि साधन-उपसाधनों से आत्मबल की वृद्धि के लिये योगाभ्यास किया करें। जो राजा सब प्रजाजनों को शरीर और आत्मा के बल की वृद्धि के लिये ब्रह्मचर्य, औषध, विद्या और योगाभ्यास के सेवन में लगाये, उसे ही उक्त शरीर बल आदि परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये प्रीतिपूर्वक राजा मानें । जिससे सब प्रजाजन नीरोग होकर पुरुषार्थी बनें ॥९। ३ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजाने शरीर व आत्म्याचे बल वाढविण्यासाठी राज्यातील कर्मचाऱ्यांना ब्रह्मचर्य, औषधविद्या व योगाभ्यासात युक्त करावे, त्यामुळे सर्व माणसे रोगरहित व पुरुषार्थी होतील.

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    विषय

    प्रजाजनांनी कशाप्रकारच्या पुरुषाला राजा करावा (राजा म्हणून निवडावे वा मान्यता द्यावी) पुढील मंत्रात हा विषय वर्णिला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वानाचे वचन राजाप्रती) हे राजा, (व:) तुमच्या (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी मी (सूर्ये) सूर्याच्या प्रकाशात (सन्तम्) विद्यमान (समाहितम्) आणि (सूर्याने) सर्व प्रकारे चारही दिशांत (सर्वत्र) जे (उद्वयसम्) जीवनाचे उत्कृष्ट कारण आहे, त्या (अपाम्) जलांचे (रसम्) सार मी ग्रहण करतो (यज्ञाद्वारे त्या सर्वत्र विद्यमान जलाला वृष्टिरुपात परिवर्तित करतो) तसेच (य:) जो (अपाम्) जलाचे (रसस्य) सार आहे त्या रसाच्या (रस:) सार असलेल्या (तम्) त्या वीर्या--तूला मी (उतमम्) कल्याणकारी रसाचे तुमच्यासाठी (गृह्णमि) स्वीकार करतो (पाणी आणि वीर्य, हे जीवन हेतू आहेत, त्यांच्या संरक्षण-पालनासाठी, मी प्रजाजनांस व तुम्हांस सांगत आहे) आपण (उपमामगृहीत:) अनेक साधन-उपसाधनांनी समृद्ध (असि) आहात. (त्या इन्द्राथ) परमेश्वर-प्राप्तीसाठी (जुष्टम्) प्रीतीपूर्वक वर्तनाच्या आपले मी (गृह्णामि) ग्रहण करीत आहे (ते) आपले (एष:) हे (योनि:) घर आहे, त्यात (जुष्टतम्) राहणार्‍या आपल्या सुख-समाधानासाठी (त्वा) आपणांला (इन्द्राय) परम सुखप्राप्तीसाठी (गृह्णामि) मी स्वीकारीत आहे (या घरात आपणांस सर्वप्रकारे सुरू मिळावे, अशी इच्छा करीत आहे) (तसेच आपल्याप्रमाणे प्रजेला देखील ऐश्वर्यप्राप्ती, ब्रह्मचर्य, यज्ञ जलसंवर्धन यांसाठी आवाहन करीत आहे) ॥3॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राजाचे कर्तव्य आहे की त्याने आपले सेवक, राजपुरुष, प्रजाजन या सर्वांना आपापले, आपल्या शारीरिक व आत्मिक बळ वाढविण्यासाठी ब्रह्मचर्यधारण, औषधीशास्त्र, आणि योगाभ्यास करण्यासाठी प्रवृत्त करावे वा अवश्यपणे नियुक्त करावे. यामुळे सर्व मनुष्य निरोगी आणि पुरुषार्थी होतील. ॥3॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king, I utilise the essence of waters, that infuse life, are gathered in the sun, and spread in all directions. I advise thee to preserve the essence of waters essence for thy own good, Thou hast legally been elected. I accept thee, full of affection, as my lord, for the attainment of God. This kingdom is thy home. I accept thee most affectionate, for the attainment of happiness.

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    Meaning

    For the sake of Indra, lord of glory, and for you, I take the life-giving essence of the waters (juices) collected and ripened in the sun. And I take the finest essence of the essences of waters and hold the quintessence of vitality for the glow of health and life. By virtue of your discipline and values and the means at your command, you are accepted and consecrated for the sake of honour and prosperity of the nation. Loved and respected as you are, I accept and elect you. This choice and consecration is now your haven and home. Most loved and respected, you are now committed and dedicated to the glory of Indra and his people.

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    Translation

    The essence of the waters, from which the foodgrains grow, and which is gathered in the sun; the most excellent essence of that essence of waters I take for you. (1) О devotional bliss, you have been duly acceped. I take you pleasingto the resplendent Lord. (2) This is your abode. You, the most pleasing, to the resplendent Lord. (3)

    Notes

    Udvayasam, उद्गतं वयोऽन्नं यस्मात् from which the food grains grow. Rasam, essence.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ প্রজাজনৈঃ কথংভূতো জনো রাজা মাননীয় ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনঃ প্রজাগণ কেমন পুরুষকে রাজা মানিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজন্ ! আমি (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্য প্রাপ্তি হেতু (বঃ) আপনার জন্য (সূর্য়) সূর্য্যের প্রকাশে (সন্তম্) বর্ত্তমান (সমাহিতম্) সর্বপ্রকার চতুর্দিক হইতে ধারণ করিয়া (উদ্বয়সম্) উৎকৃষ্ট জীবনের জন্য (অপাম্) জলের (রসম্) সার গ্রহণ করি, (যঃ) যাহা (অপাম্) জলের (রসস্য) সারের (রসঃ) বীর্য্য ধাতু (তম্) সেই (উত্তমম্) কল্যাণকারক রসের আপনাদিগের জন্য (গৃহ্ণামি) স্বীকার করি, আপনি যাহা (উপয়ামগৃহীতঃ) সাধন তথা উপসাধন দ্বারা স্বীকৃত সেই (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের প্রাপ্তি হেতু (জুষ্টম্) প্রীতিপূর্বক ব্যবহারকারী আপনাকে (গৃহ্নাণি) গ্রহণ করি, যাহা (তে) আপনার (এষঃ) এই (য়োনিঃ) গৃহ সেই (জুষ্টতমম্) অত্যন্ত সেবনীয় (ত্বা) আপনার (ইন্দ্রায়) পরম সুখ হইবার জন্য (গৃহ্ণামি) গ্রহণ করি ॥ ৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজার কর্ত্তব্য যে, স্বীয় সেবক রাজপুরুষদিগের শরীর ও আত্মার বল বৃদ্ধি করিবার জন্য ব্রহ্মচর্য্য ওষধি বিদ্যা ও যোগাভ্যাস সেবনে তিনি নিযুক্ত করুন, যদ্দ্বারা সকল মনুষ্য রোগরহিত হইয়া পুরুষকার সম্পন্ন হয় ॥ ৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒পাᳬं রস॒মুদ্ব॑য়স॒ꣳ সূর্য়ে॒ সন্ত॑ꣳ স॒মাহি॑তম্ । অ॒পাᳬं রস॑স্য॒ য়ো রস॒স্তং বো॑ গৃহ্ণাম্যুত্ত॒মমু॑পয়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্টং॑ গৃহ্ণাম্যে॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্ট॑তমম্ ॥ ৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অপামিত্যস্য বৃহস্পতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃদ্ অতিশক্বরী ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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