Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 9

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 40
    ऋषिः - देवावत ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - स्वराट ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    210

    इ॒मं दे॑वाऽअस॒पत्नꣳ सु॑वध्वं मह॒ते क्ष॒त्राय॑ मह॒ते ज्यैष्ठ्या॑य मह॒ते जान॑राज्या॒येन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॑। इ॒मम॒मुष्य॑ पु॒त्रम॒मुष्यै॑ पु॒त्रम॒स्यै वि॒शऽए॒ष वो॑ऽमी॒ राजा॒ सोमो॒ऽस्माकं॑ ब्राह्म॒णाना॒ राजा॑॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। दे॒वाः॒। अ॒स॒प॒त्नम्। सु॒व॒ध्व॒म्। म॒ह॒ते। क्ष॒त्राय॑। म॒ह॒ते। ज्यैष्ठ्या॑य। म॒ह॒ते। जान॑राज्या॒येति॒ जान॑ऽराज्याय। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒याय॑। इ॒मम्। अ॒मुष्य॑। पु॒त्रम्। अ॒मुष्यै॑। पु॒त्रम्। अ॒स्यै। वि॒शे। ए॒षः। वः॒। अ॒मी॒ऽइत्य॑मी। राजा॑। सोमः॑। अ॒स्माक॑म्। ब्रा॒ह्म॒णाना॑म्। राजा॑ ॥४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमन्देवा ऽअसुपत्नँ सुवध्वम्महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रय । इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विशऽएष वोमी राजा सोमो स्माकम्ब्राह्मणानाँ राजा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। देवाः। असपत्नम्। सुवध्वम्। महते। क्षत्राय। महते। ज्यैष्ठ्याय। महते। जानराज्यायेति जानऽराज्याय। इन्द्रस्य। इन्द्रियाय। इमम्। अमुष्य। पुत्रम्। अमुष्यै। पुत्रम्। अस्यै। विशे। एषः। वः। अमीऽइत्यमी। राजा। सोमः। अस्माकम्। ब्राह्मणानाम्। राजा॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 40
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    कस्मै कस्मै प्रयोजनाय कथंभूतो राजा स्वीकार्य्य इत्याह॥

    अन्वयः

    हे प्रजास्था देवाः! यूयं त एष सोमो वोऽस्माकं च ब्राह्मणानां राजा येऽमी परोक्षे वर्त्तन्ते तेषाञ्च राजाऽस्ति, तमिमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विश इममेव महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियायाऽसपत्नं सुवध्वम्॥४०॥

    पदार्थः

    (इमम्) समक्षे वर्त्तमानम् (देवाः) धार्मिका विद्वांसः (असपत्नम्) अजातशत्रुम् (सुवध्वम्) निष्पादयत (महते) महागुणविशिष्टाय (क्षत्राय) क्षत्रियाणां पालनाय (महते) (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठत्वाय (महते) (जानराज्याय) जनानां राजसु भवाय (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्तस्य पुरुषस्य (इन्द्रियाय) धनाय (इमम्) (अमुष्य) (पुत्रम्) प्रतिष्ठितस्य धार्मिकस्य विदुषः सन्तानम् (अमुष्यै) अमुष्या धार्मिकाया विदुष्याः (पुत्रम्) पवित्रमपत्यम् (अस्यै) वर्त्तमानायाः (विशे) प्रजायाः (एषः) सर्वैः स्वीकृतः (वः) युष्माकं क्षत्रियादीनाम् (अमी) परोक्षे वर्त्तमानाः (राजा) न्यायप्रकाशकः (सोमः) सोम इव प्रजासु वर्त्तमानाः (अस्माकम्) (ब्राह्मणानाम्) ब्रह्मणः परमेश्वरस्य वेदचतुष्टयस्य वा सेवकानाम् (राजा)। अयं मन्त्रः (शत॰५। ३। ३। ११॥ व्याख्यात॥४०॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजनाः! यो विद्वद्भ्यां मातापितृभ्यां सुशिक्षितः कुलीनो महागुणकर्मस्वभावो जितेन्द्रियत्वादिगुणयुक्तः सेविताऽष्टचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्यविद्यासुशिक्षः पूर्णशरीरात्मबलः प्रजापालनप्रियो विद्वानस्ति, तं सभाध्यक्षं राजानं कृत्वा साम्राज्यं सेवध्वम्॥४०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    कस्मै कस्मै प्रयोजनाय कथंभूतो राजा स्वीकार्य इत्याह ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे प्रजास्था देवाः धार्मिका विद्वांसः ! यूयं एषः सर्वैः स्वीकृतः सोमः सोम इव प्रजासु वर्त्तमानः वः युष्माकं क्षत्रियादीनाम् अस्माकं च ब्राह्मणानां ब्राह्मणः=परमेश्वरस्य वेदचतुष्टय्यस्य वा सेवकानां राजा न्यायप्रकाशकः, येऽमी परोक्षे वर्त्तन्ते परोक्षे वर्त्तमानाः तेषाञ्च राजाऽस्ति, तमिमं समक्षे वर्त्तमानम् अमुष्य पुत्रं प्रतिष्ठितस्य धार्मिकस्य विदुषः सन्तानम् अमुष्यै अमुष्या धार्मिकाया विदुष्याः पुत्रं पवित्रमपत्यम्,अस्यै वर्त्तमानाया: विशे प्रजाया:,इममेव महते महागुणविशिष्टाय क्षत्राय क्षत्रियाणां पालनाय, महते महागुणविशिष्टाय ज्यैष्ठ्याय ज्येष्ठत्वाय, महते महागुणविशिष्टाय जानराज्याय जनानां राजसु भवाय, इन्द्रस्य परमैश्वर्ययुक्तस्य पुरुषस्य इन्द्रियाय धनाय, असपत्नम् अजातशत्रुं सुवध्वं निष्पादयत ।। ९ । ४० ।। [हे प्रजास्था देवाः! यूयं य एष सोमो वोऽस्माकं च ब्राह्मणानां राजा.......अस्ति, तमिममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रं महते क्षत्राय, ज्यैष्ठ्याय, जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियायासपत्न सुवध्वम्]

    पदार्थः

    (इमम्) समक्षे वर्तमानम् (देवाः) धार्मिका विद्वांसः (असपत्नम्) अजातशत्रुम् (सुवध्वम्) दिष्पादयत (महते) महागुणविशिष्टाय (क्षत्राय) क्षत्रियाणां पालनाय (सहते) (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठत्वाय (महते) (जानराज्याय) जनानां राजसु भवाय (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्तस्य पुरुषस्य (इन्द्रियाय)धनाय (इमम्) (अमुष्यपुत्रम्) प्रतिष्ठितस्य धार्मिकस्य विदुषः सन्तानम् (अमुष्यै) अमुष्या धार्मिकाया विदुष्या: (पुत्रम्) पवित्रमपत्यम् (अस्यै) वर्त्तमानायाः (विशे) प्रजायाः (एषः) सर्वैः स्वीकृतः (वः) युष्माकं क्षत्रियादीनाम् (अमी) परोक्षे वर्त्तमाना: (राजा) न्यायप्रकाशक: (सोमः) सोम इव प्रजासु वर्त्तमान: (अस्माकम्) (ब्राह्मणानाम्) ब्रह्मणः=परमेश्वरस्य वेदचतुष्टयस्य वा सेवकानाम् (राजा) ॥ अयं मन्त्रः शत० ५ । ३ । ३ । ११ व्याख्यातः ॥ ४०॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजनाः! यो विद्वद्भ्यां मातापितृभ्यां सुशिक्षितः, कुलीनो, महागुणकर्मस्वभावो, जितेन्द्रियतादिगुणयुक्तः, सेविताऽष्टाचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्यविद्यासुशिक्षः, पूर्णशरीरात्मबलः, प्रजापालनप्रियो विद्वानस्ति तं सभाध्यक्षं राजानं कृत्वा साम्राज्यं सेवध्वम् ॥ ९। ४० ॥

    विशेषः

    देववातः । यजमान:=¬ स्पष्टम्।। भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः ॥ [पूर्वापराध्यायार्थसंगतिमाह] अस्मिन्नध्याये राजधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति जानन्तु ॥ ९॥ इति श्रीयुतपण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते दयानन्द-यजुर्वेदभाष्य-भास्करे नवमोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    किस-किस प्रयोजन के लिये कैसे राजा का स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे प्रजास्थ (देवाः) विद्वान् लोगो! तुम जो (एषः) यह (सोमः) चन्द्रमा के समान प्रजा में प्रियरूप (वः) तुम क्षत्रियादि और हम ब्राह्मणादि और जो (अमी) परोक्ष में वर्त्तमान हैं, उन सब का राजा है, उस (इमम्) इस (अमुष्य) उस उत्तम पुरुष का (पुत्रम्) पुत्र (अमुष्यै) उस विद्यादि गुणों से श्रेष्ठ धर्मात्मा विद्वान् स्त्री के पुत्र को (अस्यै) इस (विशे) प्रजा के लिये इसी पुरुष को (महते) बड़े (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसा के योग्य (महते) बड़े (जानराज्याय) धार्मिक जनों के राज्य करने (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त (इन्द्रियाय) धन के वास्ते (असपत्नम्) शत्रु रहित (सुवध्वम्) कीजिये॥४०॥

    भावार्थ

    हे राजा और प्रजा के मनुष्यो! तुम जो विद्वान् माता और पिता से अच्छे प्रकार सुशिक्षित, कुलीन, बड़े उत्तम-उत्तम गुण, कर्म और स्वभावयुक्त जितेन्द्रियादि गुणयुक्त, ४८ अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण विद्या से सुशील, शरीर और आत्मा के पूर्ण बलयुक्त, धर्म से प्रजा का पालक, प्रेमी, विद्वान् हो, उसको सभापति राजा मान कर चक्रवर्त्तिराज्य का सेवन करो॥४०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    चुनाव

    पदार्थ

    पुरोहित चुनाव के समय एकत्र विद्वानों से कहता है कि १. हे ( देवाः ) = ज्ञान से दीप्त प्रजा के प्रतिनिधियो! ( इमम् ) = इस निर्दिश्यमान व्यक्ति को ( असपत्नम् ) = ऐकमत्य से, बिना किसी सपत्न rival के ( सुवध्वम् ) = चुनो। ऐकमत्य से चुना गया राजा ही सारी प्रजा की शक्ति को अपने में केन्द्रित कर पाता है। वही कुछ कार्य कर पाएगा। 

    २. इसे चुनो ( महते क्षत्राय ) = क्षतों से त्राणरूप महान् कार्य के लिए। यह राजा राष्ट्र को सब प्रकार के आघातों से बचाएगा। 

    ३. ( महते ज्यैष्ठ्याय ) = महान् बड़प्पन के लिए। यह राजा राष्ट्र को संसार में उच्च स्थान प्राप्त कराएगा। 

    ४. ( महते जानराज्याय ) = महान् जनराज्य के लिए। यह राजा जनहित के दृष्टिकोण से ही राज्य करेगा। 

    ५. ( इन्द्रस्य इन्द्रियाय ) = इन्द्र के वीर्य के लिए। इस राजा ने स्वयं जितेन्द्रिय बनकर शक्ति का सम्पादन किया है। यह राष्ट्र में ऐसा ही वातावरण उत्पन्न करने का ध्यान करेगा कि लोग जितेन्द्रिय बनकर शक्तिशाली बनें। एवं, यह राजा आपसे चुना जाकर [ क ] राष्ट्र को आघातों से बचाएगा। [ ख ] ज्येष्ठता प्राप्त कराएगा। [ ग ] शासन में लोकहित के दृष्टिकोण को अपनाएगा। [ घ ] और यह प्रयत्न करेगा कि लोग जितेन्द्रिय बनकर शक्तिशाली बनें। 

    ६. अतः आप सब ( इमम् ) = इसे [ इस नामवाले को ] ( अमुष्यपुत्रम् ) = अमुक पिता के पुत्र को ( अमुष्यै पुत्रम् ) = अमुक माता के पुत्र को ( अस्यै विशे ) = इस प्रजा के हित के लिए चुनो। 

    ७. ( एषः ) = आपसे चुना जाकर ( अमी ) = हे प्रजाओ! यह ( वः ) = आपका ( राजा ) = राजा है। आपने इसके आदेशों के अनुसार चलना है। ( अस्माकं ब्राह्मणानाम् ) = हम ब्राह्मणों का ( राजा ) = नियन्ता तो ( सोमः ) = वह सर्वज्ञ शान्त प्रभु ही है। राजा इन ब्रह्मनिष्ठ लोगों के निर्देशानुसार शासन करने का प्रयत्न करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा का चुनाव सर्वसम्मति से हो तो अच्छा है। वह राष्ट्र को आघातों से बचाये, ज्येष्ठ बनाये, लोकहित के दृष्टिकोण से राज्य करे और प्रयत्न करे कि लोग इन्द्रियों के दास न होकर शक्ति-सम्पन्न बनें। ब्रह्मनिष्ठ व्यक्तियों के कथनानुसार चलें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा या इन्द्र आदि उच्च पदों पर स्थापना और सिंहासनारोहण।

    भावार्थ

    ( महते क्षत्राय ) बड़े भारी क्षात्रबल के लिये ( महते ज्यैष्ठ्याय ) बड़े भारी सर्वश्रेष्ठ राजपद के लिये ( महते जानराज्याय ) बड़े भारी जनों के ऊपर राजा होजाने के लिये और ( इन्द्रस्य ) परम ऐश्वर्यवान् राजा के ( इन्द्रियाय ) ऐश्वर्यप्राप्ति के लिये ( देवाः ) विजयी वीरगण और विद्वान् शासक पुरुष ( असपत्नम् ) शत्रुओं से रहित (इमम् ) इस वीर विजयी, योग्य पुरुष को ( सुवध्वम् ) अभिषिक्त करें। (इमम् ) इस ( अमुष्य पुत्रम् ) अमुक पिता के पुत्र, ( अमुष्यै पुत्रम् ) अमुक माता के पुत्र को ( अस्यै विशे ) इस प्रजा के लिये राज्याभिषिक्त किया जाता है । हे ( अमी) अमुक २ प्रजाओ ! ( वः एषः राजा ) आप लोगों का यह राजा ( सोमः ) सोम चन्द्र के समान आह्लादक और सोमलता के समान आनन्द, तृप्ति और हर्षजनक और प्रवर्त्तक है। वह ( अस्माकम् ) हम ( ब्राह्मणानाम् ) वेद-ज्ञान के विद्वान् ब्राह्मणों का भी ( राजा ) राजा है । हमारे बीच में भी शोभायमान हो ॥ शत० २। ३ । ३ । १२ ॥ 
     

    टिप्पणी

    ४० - ० महते ज्यैष्ठ्याय इमममु०, ० अमुष्याः पुत्र० । एष वः कुरवो राजैष वः पञ्चालानांराजासोमो ०' इति काण्व० । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर किस प्रयोजन के लिये कैसे राजा को स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे प्रजा में स्थित (देवाः) धार्मिक विद्वानो! तुम लोग जो (एषः) यह सब प्रजाजनों से स्वीकृत (सोमः) चन्द्र के समान प्रजा में वर्तमान (वः) तुम क्षत्रिय आदि जनों का और हम (ब्राह्मणानाम्) ब्रह्म=परमेश्वर अथवा चारों वेदों के सेवकों का (राजा) न्यायप्रकाशक राजा है, और जो (अमी) परोक्ष में विद्यमान प्रजाजन हैं, उनका भी (राजा) राजा है, सो (इमम्) इस (अमुष्य) प्रतिष्ठित धार्मिक विद्वान् के (पुत्रम्) पुत्र को, (अमुष्यै) प्रतिष्ठित धार्मिक विदुषी के (पुत्रम्) पवित्र पुत्र को, (अस्यै) इस (विशे) प्रजा के पालन के लिये, (इमम्) इसे ही (महते) महान् गुणों से युक्त (क्षत्राय) क्षत्रियों के पालन के लिये, (महते) महान् गुणों से युक्त (ज्यैष्ठ्याय) बड़प्पन की प्राप्ति के लिये, (महते) महान् गुणों से युक्त (जानराज्याय) प्रजा-जनों के राजा बनने के लिए, (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य से युक्त पुरुष के (इन्द्रयाय) धन की वृद्धि के लिये (असपत्नम्) अजातशत्रु (सुवध्वम्) बनाओ॥ ९। ४० ॥

    भावार्थ

    हे राजपुरुष और प्रजाजनो ! जो विदुषी माता और विद्वान् पिता से सुशिक्षित, कुलीन, महान् गुण-कर्म-स्वभाव वाला, जितेन्द्रियता आदि गुणों से युक्त, अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य सेवन से विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त, शरीर, बल और आत्मबल से परिपूर्ण, प्रजापालन में प्रीतिमान् विद्वान् है, उसे सभाध्यक्ष राजा बनाकर साम्राज्य का सेवन करो ॥ ९। ४० ॥

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५ । ३ । ३ । ११) में की गई है ॥९ । ४० ॥

    भाष्यसार

    किस-किस प्रयोजन के लिये कैसे राजा को स्वीकार करें--क्षत्रिय अर्थात् राजपुरुष और परमेश्वर तथा वेद के सेवक ब्राह्मण अर्थात् धार्मिक विद्वान् एवं प्रजाजन, जो पुरुष सोम्य गुणों से युक्त हो उसे सब मिलकर राजा स्वीकार करें । वह राजा धार्मिक विदुषी माता का तथा प्रतिष्ठित धार्मिक विद्वान् का सुशिक्षित पुत्र हो। वह कुलीन, गुण-कर्म-स्वभाव से महान्, जितेन्द्रिय, विद्या और सुशिक्षा से युक्त, शरीरबल और आत्मबल से परिपूर्ण, प्रजापालन में प्रीतिमान् विद्वान् हो । उसे प्रजापालन के लिये, महान् गुणों से युक्त क्षत्रियों की रक्षा के लिये, महान् गुणों से युक्त ज्येष्ठभाव (बड़प्पन) की प्राप्ति के लिये, महान् गुणों से युक्त जनों के राज्य की प्राप्ति के लिए, परम ऐश्वर्यवान् पुरुषों के धन की प्राप्ति के लिये उक्त गुणों से युक्त राजा को स्वीकार करें।

    अन्यत्र व्याख्यात

    (क) हे (देवाः) विद्वानो राजप्रजाजनो ! तुम (इमम्) इस प्रकार के पुरुष को (महते क्षत्राय) बड़े चक्रवर्त्तिराज्य (महते ज्यैष्ठ्याय) सबसे बड़े (महते जानराज्याय) बड़े-बड़े विद्वानों से युक्त राज्य पालने और (इन्द्रस्येन्द्रियाय) परम ऐश्वर्ययुक्त राज्य और धन के पालने के लिए (असपत्नं सुवध्वम्) सम्मति करके सर्वत्र पक्षपातरहित पूर्णविद्याविनययुक्त सब के मित्र सभापति राजा को सर्वाधीश मान के सब भूगोल को शत्रुरहित करो (सत्यार्थ० समु० ६) ॥ (ख) देखो ग्रहों का चक्र कैसा चलाया हैकि जिसने विद्या-हीन मनुष्यों को ग्रस लिया है । "इमं देवा असपत्नं सुवध्वम्" यह मन्त्र राज-गुण विधायक है (सत्यार्थ० समु० ११) ॥ (ग) "इमं देवा असपत्नम्०" अब ईश्वर सब मनुष्यों को राज-व्यवस्था के विषय में आज्ञा देता है कि--हे विद्वान् लोगो ! तुम इस राजधर्म को यथावत् जानकर अपने राज्य का ऐसा प्रबन्ध करोकि जिससे तुम्हारे देश पर कोई शत्रु न आ जाए। (महते क्षत्राय) हे शूरवीर लोगो ! अपने क्षत्रिय-धर्म, चक्रवर्त्ति राज्य, श्रेष्ठकीर्ति, सर्वोत्तम राज्य-प्रबन्ध के अर्थ (महते जानराज्याय) सब प्रजा को विद्वान् करके ठीक-ठीक राज्य-व्यवस्था में चलाने के लिए तथा (इन्द्रस्येन्द्रियाय) बड़े ऐश्वर्य, सत्य, न्याय के प्रकाश करने के अर्थ (सुवध्वम्) अच्छे-अच्छे राज्य-सम्बन्धी प्रबन्ध करो, कि जिनसे सब मनुष्यों को उत्तम सुख बढ़ता जाए (ऋ० भू० राजप्रजाधर्मविषयः) ॥ (घ) इसी प्रकार से अल्पबुद्धि मनुष्यों ने 'इमं देवा असपत्नम्०' इत्यादि मन्त्रों का सूर्यादि ग्रहपीड़ा की शान्ति के लिये ग्रहण किया है। सो उनको केवल भ्रम-मात्र हुआ है। मूल अर्थ से कुछ सम्बन्ध नहीं। क्योंकि उन मन्त्रों में ग्रह-पीड़ा-निवारण करना यह अर्थ ही नहीं है। 'इमं देवा०' इसका अर्थ राजधर्म विषय में लिख दिया है (ऋ० भू० ग्रन्थप्रामाण्याऽप्रामाण्यविषयः) ॥ ९ । ४० ॥

    विशेष

    [पूर्वापराध्यायार्थसंगतिमाह--] इस अध्याय में राजधर्म का वर्णन होने से पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानो॥९॥ इति श्रीयुतपण्डितसुदर्शनदेवाचार्य विरचिते दयानन्द-यजुर्वेदभाष्य-भास्करे नवमोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे प्रजाजन हो । ज्याचे माता पिता विद्वान आहेत व जो सुशिक्षित, कुलीन, उत्तम गुण, कर्म, स्वभावयुक्त, जितेन्द्रिय, अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य पालन करून पूर्ण विद्यायुक्त व सुशील बनलेला आहे तसेच याचे शरीर व आत्मा बलवान आहे आणि तो प्रजेचा पालक असून प्रेमळ व विद्वान आहे अशा व्यक्तीला तुम्ही राजा मानून चक्रवर्ती राज्य भोगा.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कोणत्या कारणांसाठी वा उद्देश्यासाठी कशा प्रकारच्या राजाला प्रजेने स्वीकार करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - प्रजाजनांमधील हे (देवा:) विद्वान मनुष्यांनो, (एष:) हा जो (सोम:) चंद्राप्रमाणे सुखशांतिदायक आणि प्रजाप्रिय राजा आहे, तो (व:) तुम्हां क्षत्रियादी जनांना आणि आम्हा ब्राह्मण आदी जनांना तसेच जे (अभी) लोक इथे नसून परोक्ष आहेत, त्या सर्वांना प्रिय व मान्य आहे. (अयुष्य) श्रेष्ठ पुरुषाच्या (इमम्) (पुत्रम्) या पुत्राला आणि (अमुष्यै) विदुषी, धर्मात्मा स्त्रीच्या या पुत्राला (महते) महान (ज्येष्ठ्याय) प्रशंसनीय कार्यांसाठी (महते) महान (जानराज्याय) धार्मिक जनांचे राज्य स्थापित होण्यासाठी (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवान (इन्द्रियाय) धन-संपदेच्या प्राप्तीसाठी (या राजाला) (असपत्नम्) शत्रुविहीन (सुवध्वम्) करा. तुम्हा सर्वांनी या राजास सर्वतोपरी सहकार्य द्या) ॥40॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे राज पुरुषांनो आणि प्रजाजनहो, जो मनुष्य विद्वान आई-वडिलांद्वारे उत्तमप्रकारे सुशिक्षित व संस्कारित आहे, जो कुलीन, महान गुण कर्म आणि स्वभाव असणारा आहे, जितेंद्रिय असून अठ्ठेचाळीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य धारण करून पूर्ण विद्यावान, सुशील आणि शारीरिक आत्मिक शक्तीने संपन्न आहे, प्रजेचा पालक, प्रजेवर स्नेह करणारा विद्वान मनुष्य आहे, त्यासच तुम्ही आपला सभपाती राजा म्हणून मान्यता द्यावी आणि अशाप्रकारे चक्रवर्ती राजाच्या आश्रयास रहावे. ॥40॥

    टिप्पणी

    या नवव्या अध्यायात राजधर्माचे वर्णन केले असून या अध्यायातील संगती पूर्वीच्या अध्यायाशी जाणावी.^नववा अध्याय समाप्त 

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    0 learned people, this lover of his subjects, is the King of you the Kshatriyas, and us the Brahmanas, and the people living afar. Him, the son of that father, and that mother, (for the protection of the people, for great supremacy), for sovereignty over the virtuous, and for obtaining huge wealth, do ye render free from foes.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Noble people of the land/world, this man (first among us all), son of a noble father, son of a noble mother, graceful as the moon and inspiring as soma, accepted and anointed as he is as the ruler, yours, ours, and others’, Brahmanas, all, cooperate and render him free from conflict and opposition for the sake of a mighty republic, supreme sovereignty, the highest government of the people, the glory of the order of the world.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O enlightened ones, inspire this sacrificer to great supremacy unrivalled, to lordship over people and to the virtues of the resplendent Lord; this sacrificer, son of such and such man, son of such and such woman, and of such and such tribe. O people of such and such land, let him be your sovereign. The blissful Lord is the sovereign of us, the intellectuals. (1)

    Notes

    Suvadhvam, may you inspire. Janarajyaya, for lordship over people. Indrasya indriyaya, for the virtues of the resplendent Lord. Amusya putram, him, the son of so and so (name ofthe father to be mentioned hejan” Amusyai putram, अमुष्या: पष्ठ्यर्थे चतुर्थी. son of so and so (name of the mother to be mentioned here). Asyai vise, for अस्या: विश:, of such and such tribe. Апи, О people of such and such land (name of the land to be mentioned here). Somah, the blissful Lord. Brahmaranam, of the intellectuals.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    কস্মৈ কস্মৈ প্রয়োজনায় কথংভূতো রাজা স্বীকার্য়্য ইত্যাহ ॥
    কোন্ কোন্ প্রয়োজনের জন্য কেমন রাজাকে স্বীকার করিবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে প্রজাস্থ (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ ! তোমরা যে (এষঃ) এই (সোমঃ) চন্দ্র সমান প্রজায় প্রিয়রূপ (বঃ) তোমরা ক্ষত্রিয়াদি এবং আমরা ব্রাহ্মণাদি এবং যে (অমী) পরোক্ষে বর্ত্তমান সে সকলের রাজা । সেই (ইমম্) এই (অমুষ্য) সেই উত্তম পুরুষের (পুত্রম্) পুত্র (অমুষ্যৈ) সেই বিদ্যাদি গুণে শ্রেষ্ঠ ধর্মাত্মা বিদ্বান্ নারীর পুত্রকে (অস্যৈ) এই (বিশে) প্রজার জন্য এই পুরুষকে (মহতে) অত্যন্ত (জ্যৈষ্ঠ্যায়) প্রশংসার যোগ্য (মহতে) অত্যন্ত (জানরাজ্যায়) ধার্মিক গণের রাজ্য করিবার জন্য (ইন্দ্রস্য) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত (ইন্দ্রিয়ায়) ধনের কারণে (অসপত্নম্) শত্রু রহিত (সুবধ্বম্) করুন ॥ ৪০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে রাজা ও প্রজার মনুষ্যগণ ! তোমরা যে বিদ্বান্ মাতা ও পিতা হইতে উত্তম, সুশিক্ষিত কুলীন, অত্যন্ত উত্তমগুণ-কর্ম-স্বভাব যুক্ত জিতেন্দ্রিয়াদি গুণযুক্ত আটচল্লিশ বর্ষ পর্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য দ্বারা পূর্ণ বিদ্যা দ্বারা, সুশীল শরীর এবং আত্মার পূর্ণ বলযুক্ত ধর্ম দ্বারা প্রজ্ঞার পালক প্রেমী বিদ্বান্ হয় তাহাকে সভাপতি রাজা মানিয়া চক্রবর্ত্তী রাজ্যের সেবন কর ॥ ৪০ ॥
    এই অধ্যায়ে রাজধর্মের বর্ণন দ্বারা এই অর্থের পূর্ব অধ্যায়ের অর্থ সহ সঙ্গতি জানিতে হইবে ॥
    ইতি শ্রীমৎপরিব্রাজকাচার্য়্যেণ শ্রীয়ুতমহাবিদুষাং বিরজানন্দ সরস্বতীস্বামিনাং
    শিষ্যেণ দয়ানন্দসরস্বতী স্বামিনা বিরচিতে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
    সুপ্রমানয়ুক্তে য়জুর্বেদভাষ্যে নবমোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒মং দে॑বাऽঅস॒পত্নꣳ সু॑বধ্বং মহ॒তে ক্ষ॒ত্রায়॑ মহ॒তে জ্যৈষ্ঠ্যা॑য় মহ॒তে জান॑রাজ্যা॒য়েন্দ্র॑স্যেন্দ্রি॒য়ায়॑ । ই॒মম॒মুষ্য॑ পু॒ত্রম॒মুষ্যৈ॑ পু॒ত্রম॒স্যৈ বি॒শऽএ॒ষ বো॑ऽমী॒ রাজা॒ সোমো॒ऽস্মাকং॑ ব্রাহ্ম॒ণানা॒ᳬं রাজা॑ ॥ ৪০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইমং দেবা ইত্যস্য দেববাত ঋষিঃ । য়জমানো দেবতা । স্বরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top