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यजुर्वेद अध्याय - 9

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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - भूरिक पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    67

    शन्नो॑ भवन्तु वा॒जिनो॒ हवे॑षु दे॒वता॑ता मि॒तद्र॑वः स्व॒र्काः। ज॒म्भय॒न्तोऽहिं॒ वृक॒ꣳ रक्षा॑सि॒ सने॑म्य॒स्मद्यु॑यव॒न्नमी॑वाः॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम्। नः॒। भ॒व॒न्तु॒। वा॒जिनः॑। हवे॑षु। दे॒वता॒तेति॑ दे॒वऽताता॑। मि॒तद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः। ज॒म्भय॑न्तः। अहि॑म्। वृक॑म्। रक्षा॑सि। सने॑मि। अ॒स्मत्। यु॒य॒व॒न्। अमी॑वाः ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शन्नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवताता मितद्रवः स्वर्काः । जम्भयन्तो हिँ वृकँ रक्षाँसि सनेम्यस्मद्युयवन्नमीवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शम्। नः। भवन्तु। वाजिनः। हवेषु। देवतातेति देवऽताता। मितद्रव इति मितऽद्रवः। स्वर्का इति सुऽअर्काः। जम्भयन्तः। अहिम्। वृकम्। रक्षासि। सनेमि। अस्मत्। युयवन्। अमीवाः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    के प्रजापालने शत्रुविनाशने च शक्तिमन्तो भवन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    ये मितद्रवः स्वर्का अहिं वृकं रक्षांसि च जम्भयन्तो वाजिनो वीरा नो देवताता हवेषु सनेमि शम्भवन्तु, तेऽस्मदमीवा इव वर्त्तमानानरीन् युयवन्॥१६॥

    पदार्थः

    (शम्) सुखम् (नः) अस्माकम् (भवन्तु) (वाजिनः) प्रशस्तयुद्धविद्याविदः सुशिक्षितास्तुरङ्गा (हवेषु) सङ्ग्रामेषु (देवताता) देवानां विदुषां कर्मसु। अत्र देवात्तातिल्। (अष्टा॰४।४।१४२) सुपां सुलुक्॰। (अष्टा॰७।१।३९) इति डादेशश्च (मितद्रवः) ये परिमितं द्रवन्ति गच्छन्ति ते (स्वर्काः) शोभनोऽर्कोऽन्नं सत्कारो वा येषान्ते। अर्क इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२।७) (जम्भयन्तः) गात्राणि विनमयन्तः (अहिम्) मेघमिव चेष्टमानमुन्नतम् (वृकम्) चोरम् (रक्षांसि) हिंसकान् दस्यून् (सनेमि) सनातनम्। सनेमीति पुराणनामसु पठितम्। (निघं॰३।१७) (अस्मत्) (युयवन्) युवन्तु पृथक् कुर्वन्तु। अत्र लेटि शपः श्लुः (अमीवाः) ये रोगवद्वर्त्तमानाः शत्रवस्तान्। अयं मन्त्रः (शत॰५। १। ५। २२) व्याख्यातः॥१६॥

    भावार्थः

    ये श्रेष्ठाः प्रजापालने व्याधिवच्छत्रूणां विनाशका न्यायकारिणो राजजनाः सन्ति, त एव सर्वेषां सुखं कर्तुं शक्नुवन्ति॥१६॥

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    विषयः

    के प्रजापालने शत्रुविनाशने च शक्तिमन्तो भवन्तीत्याह ।।

    सपदार्थान्वयः

    ये मितद्रवः ये परिमितं द्रवन्ति=गच्छन्ति ते स्वर्काः शोभनोऽर्कः=अन्नं सत्कारो वा येषां ते अहिं मेघमिव चेष्टमानमुन्नतं वृकं चौंर रक्षांसि हिंसकान् दस्यून् च जम्भयन्तः गात्राणि विनमयन्तः वाजिनः=वीराः प्रशस्तयुद्धविद्याविदः सुशिक्षितास्तुरङ्गाः नः अस्माकं देवताता देवानां=विदुषां कर्मसु हवेषु संग्रामेषु सनेमि सनातनं शंसुखं भवन्तु, तेऽस्मदमीवाः इव वर्त्तमानानरीन् [अमीवाः=ये रोगवद् वर्त्तमाना: शत्रवस्तान्] युयवन् युवन्तु=पृथक् कुर्वन्तु ।। ९ । १६ ।। [ये........वीरा नो........शं भवन्तु, तेऽस्मदमीवा इव वर्तमानानरीन् युयवन्]

    पदार्थः

    (शम्) सुखम् (नः) अस्माकम् (भवन्तु) (वाजिनः) प्रशस्तयुद्धविद्याविदः सुशिक्षितास्तुरङ्गाः (हवेषु) सङ्ग्रामेषु (देवताता) देवानां विदुषां कर्मसु । अत्र देवत्तातिल् ॥ अ० ४ । ४ । १४२ ॥ सुपां सुलुक् ॥ अ० ७ । १ । ३९ ॥ इति डादेशश्च (मितद्रवः) ये परिमितं द्रवन्ति=गच्छन्ति ते (स्वर्काः) शोभनोऽर्कोऽन्नं सत्कारो वा येषान्ते। अर्क इत्यन्ननामसु पठितम्॥ निघं० २ । ७ ।। (जम्भयन्तः) गात्राणि विनमयन्तः (अहिम्) मेघमिव चेष्टमानमुन्नतम् (वृकम्) चौरम् (रक्षांसि) हिंसकान् दस्यून् (सनेमि) सनातनम्। सनेमीति पुराणनामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । १७ ॥ (अस्मत्) (युयवन्) युवन्तु=पृथक् कुर्वन्तु । अत्र लेटि शप: श्लु: (अमीवाः) ये रोगवद्वर्त्तमानाः शत्रवस्तान् ॥ अयं मन्त्रः शत० ५ । १।५ । २२ व्याख्यातः ॥ १६॥

    भावार्थः

    ये श्रेष्ठाः प्रजापालने तत्परा व्याधिवच्छत्रूणां विनाशका न्यायकारिणो राजजनाः सन्ति, त एव सर्वेषां सुखं कर्त्तुं शक्नुवन्ति।। ९ । १६ ।।

    विशेषः

    वसिष्ठः । बृहस्पतिः=राजा।।भुरिक् पंक्तिः । पञ्चमः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    कौन पुरुष प्रजा के पालने और शत्रुओं के विनाश करने में समर्थ होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जो (मितद्रवः) नियम से चलने (स्वर्काः) जिन का अन्न वा सत्कार सुन्दर हो, वे योद्धा लोग (अहिम्) मेघ के समान चेष्टा करते और बढ़े हुए (वृकम्) चोर और (रक्षांसि) दूसरों को क्लेश देनेहारे डाकुओं के (जम्भयन्तः) हाथ-पांव तोड़ते हुए (वाजिनः) श्रेष्ठ युद्धविद्या के जानने वाले वीर पुरुष (नः) हम (देवताता) विद्वान् लोगों के कर्मों तथा (हवेषु) सङ्ग्रामों में (सनेमि) सनातन (शम्) सुख को (भवन्तु) प्राप्त होवें (अस्मत्) हमारे लिये (अमीवाः) रोगों के समान वर्त्तमान शत्रुओं को (युयवन्) पृथक् करें॥१६॥

    भावार्थ

    श्रेष्ठ प्रजापुरुषों के पालने में तत्पर और रोगों के समान शत्रुओं के नाश करनेहारे राजपुरुष ही सब को सुख दे सकते हैं, अन्य नहीं॥१६॥

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    विषय

    ‘अहि-वृक-रक्षस्’ जम्भन

    पदार्थ

    १. ‘राष्ट्रपति की अध्यक्षता में काम करनेवाले राजपुरुष कैसे हों’, इस बात का वर्णन करते हुए कहते हैं कि १. ( वाजिनः ) = ये शक्तिशाली राजपुरुष ( हवेषु ) = हमारी प्रार्थनाओं पर [ पुकारों पर ] ( नः ) = हमारे लिए ( शम् ) = शान्ति व सुख प्राप्त करानेवाले ( भवन्तु ) = हों। 

    २. ( देवताताः ) = [ देवान् तन्वन्ति इति ] वे राजपुरुष दिव्य गुणों का विस्तार करनेवाले हों। 

    ३. ( मितद्रवः ) = ये नपी-तुली गतिवाले हों, प्रत्येक कर्म में युक्तचेष्ट हों। 

    ४. ( स्वर्काः ) = [ सु अर्च् ] ये प्रभु के उत्तम उपासक हों। ज्ञानी ही तो सर्वोत्तम उपासक है, अतः ये ज्ञानी बनें और प्रभु की उपासना करनेवाले हों। 

    ५. ये राष्ट्र में ( अहिम् ) = सर्प के समान कुटिल गति को ( वृकम् ) = भेड़िये के समान अत्यधिक खाने की वृत्ति को तथा ( रक्षांसि ) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करने की वृत्ति को ( जम्भयन्तः ) = [ नाशयन्तः—म० ] नष्ट करते हुए ६. ( सनेमि ) =  शीघ्र ही [ सनेमि = क्षिप्रम्—म० ] ( अस्मत् ) = हमसे ( अमीवाः ) = रोगों व व्याधियों को ( युयवन् ) = दूर करें। 

    ७. राज्य की व्यवस्था ऐसी सुन्दर होनी चाहिए कि उसमें धूर्तता, कुटिलता, ठगी [ अहि ], लोभ व उदरम्भरिता [ वृक ] तथा औरों की हानि करके मौज मारने की वृत्ति [ रक्षस् ] का नितान्त अभाव हो और लोग व्याधियों के शिकार न हों।

    भावार्थ

    भावार्थ — राज्य वही ठीक है १. जिसमें ‘अहि, वृक व रक्षसों’ का अभाव है। २. जिसमें लोग स्वस्थ हैं। ३. और जिसमें लोगों की चित्तवृत्ति शान्त है। इस व्यवस्था को लाने के लिए राष्ट्रपुरुष वे होने चाहिएँ जो शक्तिशाली, दिव्य गुणों का विस्तार करनेवाले, नपी-तुली गतिवाले तथा उत्तम उपासक हैं।

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    विषय

    अश्वारोहियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

     ( हवेषु ) संग्रामों में ( वाजिनः ) वेगवान् घोड़े और घुड़सवार (नः) हमें (शम् भवन्तु ) कल्याणकारी हो । और वे (देवताता ) देवों, युद्ध के विजय करनेवाले विजेता लोगों के कामों में ( मितद्रवाः ) परिमित गति से जानेवाले ( सु-अकी : ) उत्तम संस्कार वाले, खूब सजे सजाये हों। वे (अहिम् ) सर्प को, सर्प के समान कुटिलता से भागनेवाले या मेघ के समान वायु वेग से जाने या अपने ऊपर शर वर्षण करनेवाले शत्रु को और (वृकं) चोर या भेड़िये या भेड़िये के समान पीछे से आक्रमण करनेवाले और ( रक्षासि ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुष को और ( अमीवाः ) रोग के समान दुःखदायी शत्रुओं को ( सनेमि ) सदा या शीघ्र ही ( अस्मद् युवयन् ) हम से दूर करें ।। शत० ५ । १ । ५ । २२ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । अश्वो देवता । जगती निषादः ॥ 

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    विषय

    कौन पुरुष प्रजा के पालने और शत्रुओं के विनाश करने में समर्थ होते हैं, यह उपदेश किया है

    भाषार्थ

    जो (मितद्रवः) परिमित गति करने वाले (स्वर्काः) उत्तम अन्न वाले वा सत्कार के योग्य योद्धा हैं वे (अहिम्) मेघ के समान चेष्टा करने वाले उच्च कोटि के (वृकम्) चोर के और (रक्षांसि) हिंसक दस्युओं के (जम्भयन्तः) शरीरों को मरोड़ते हुये (वाजिनः) प्रशस्त युद्ध विद्या को जानने वाले वीर पुरुष एवं सुशिक्षित घोड़े (नः) हमारे (देवदाता) विद्वान् लोगों के कर्त्तव्य कर्म (हवेषु) संग्रामों में (सनेमि) सनातन (शम्) सुख को देने वाले (भवन्तु) हों, और वे (अस्मत्) हमारे (अमीवाः) रोगों के समान वर्त्तमान शत्रुओं को (युयवन्) पृथक् करें ॥९ । १६ ॥

    भावार्थ

    जो श्रेष्ठ, प्रजा के पालन में तत्पर, रोगों के तुल्य शत्रुओं का विनाश करने वाले, न्यायकारी राजपुरुष हैं, वे ही सबको सुख प्रदान कर सकते हैं ॥९ । १६ ॥

    प्रमाणार्थ

    (देवताता) यहां 'देवत्तातिल्' (अ० ४ । ४ । १४२) इस सूत्र से तातिल् और 'सुपां सुलुक्०' (अ० ७ । १ । ३९) इस सूत्र से 'डा' आदेश है। (स्वर्काः) 'अर्क'शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न-नामों में पढ़ा है । (सनेमि) यह शब्द निघं० (३ । १७) में पुराण-नामों में पढ़ा है (युवयन) यहाँ लेट्-लकार में 'शप्' के 'श्लु' है । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२।१। ५ । २२) में की गई है ॥९ । १६ ॥

    भाष्यसार

    प्रजा के पालन और शत्रुओं के विनाश में कौन समर्थ हैं--जो वीर योद्धा लोग परिमित गति करने वाले हैं, जो उत्तम अन्न का सेवन करने वाले तथा सत्कार के योग्य हैं, मेघ के समान चेष्टा करने वाले चोर और डाकुओं के गात्रों को मरोड़ने वाले और युद्ध विद्या में कुशल हैं वे संग्रामों में सनातन सुख प्रदान करने वाले होते हैं, और वे ही प्रजा का पालन और शत्रुओं का विनाश करने में समर्थ होकर सबको सुख प्रदान कर सकते हैं; दूसरे नहीं ॥ ९। १६ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    रोगांचा जसा नाश केला जातो तसे शत्रूंना नष्ट करणारे व प्रजेचे पालन करण्यात तत्पर असणारे राजपुरुषच सर्वांना सुख देऊ शकतात, इतर लोक असे सुख देऊ शकत नाहीत.

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    विषय

    प्रजापालन आणि शत्रुविनाश या कामात कोण कोण लोक यशस्वी होतात, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वज्जन आणि प्रजाजनांची वीर सैनिकांप्रति प्रार्थना) (मितद्रव:) नियमबद्धरीतीने संचलन करणारे (स्वर्का:) पौष्टिक स्वादिष्ट अन्न खाणारे आणि सत्कार करण्यास पात्र असे जे वीर योद्धा आहेत, ते (अहिम्) ढगाप्रमाणे कर्म करीत व पुढे पुढे जात (गडगडाटाप्रमाणे वीर घोषणा करीत व पुढे जात) (वृकम्) उद्दण्ड चोरांचे आणि (रक्षांसि) क्लेशकारक लुटारू-दरोडेखोरांचे (जम्भयन्ट:) हात-पाय तोडतात. तसेच ते (वाजिन:) युद्धकलाप्रवीण वीर सैनिक (व:) आम्हा (देवताता) विद्वज्जनांच्या सत्कर्मासाठी प्राप्त व्हावेत. (अशी आम्ही कामना करतो) आणि (हवेषु) संग्रामामध्ये (सनेमि) सनातन (राम्) सुखाच्या प्राप्तीसाठी (आम्हांस नित्य सुखी ठेवण्यासाठी आम्हांस) प्राप्त व्हावेत. (अस्मत्) त्या वीर सैनिकांनी (अस्मत्) आम्हा प्रजाजनांपासून (अमीवा) रोगाप्रमाणे दुखदायक शत्रूंना (युयवन्) दूर ठेवावे (आम्हास निर्भय करावे ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - श्रेष्ठ प्रजाजनांच्या पालन-रक्षणकार्यात तत्पर असलेल्या आणि रोगांचा नाश करतात, त्याप्रमाणे शत्रूंचा विनाश करणारे जे राजपुरुष असतात, तेच सर्वांना आनंदी व समाधान देऊ शकतात, अन्य जन नाही. ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the heroes expert in the science of warfare, marching uniformly, well respected and well fed, breaking the bodies of strong thieves and rascals, attain to everlasting happiness in battles, through the deeds of us the learned. May they banish for us all disease-like foes.

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    Meaning

    Passionate but controlled, brilliant, esteemed and well-maintained warriors with their horses, swift in action, seizing by the neck the serpents, wolves and demons of the society, be good and auspicious to us, saving us from social pollution and giving us lasting peace and security in the noble men’s yajnas and battles of life for development and progress.

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    Translation

    May the speedy horses (of the sun) be for our comfort at our call. Moving pleasantly in the sacrifice, beautiful in appearance, destroying snakes, wolves and pests, may they quickly banish all the calamities from us. (1)

    Notes

    Sanemi,क्षिप्रम् , quickly. Amivah, व्याधीन्, calamities.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কে প্রজাপালনে শত্রুবিনাশনে চ শক্তিমন্তো ভবন্তীত্যাহ ॥
    কোন্ পুরুষ প্রজা পালন করিতে এবং শত্রুদের বিনাশ করিতে সক্ষম হয়, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যাহারা (মিত্রদ্রবঃ) নিয়মপূর্বক চলে (স্বর্কাঃ) যাহাদের অন্ন বা সৎকার সুন্দর, সেইসব যোদ্ধাগণ (অহিম্) মেঘ সদৃশ চেষ্টা করে এবং বৃদ্ধি প্রাপ্ত (বৃকম্) চোর এবং (রক্ষাংসি) অন্যকে ক্লেশ প্রদানকারী ডাকাতদেরকে (জম্ভয়ন্তঃ) হস্ত-পদ ভঙ্গ করিয়া (বাজিনঃ) শ্রেষ্ঠ যুদ্ধ বিদ্যার জ্ঞাতা বীরপুরুষ (নঃ) আমা (দেবতাতা) বিদ্বান্ লোকদিগের কর্ম তথা (হবেষু) সংগ্রামে (সনেমি) সনাতন (শম্) সুখকে (ভবন্তু) প্রাপ্ত হউক । (অস্মৎ) আমাদিগের জন্য (অমীবাঃ) রোগের সমান বর্ত্তমান শত্রুদিগকে (য়ুয়বন্) পৃথক্ করিবে ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- শ্রেষ্ঠ প্রজাপুরুষদিগের পালনে তৎপর এবং রোগের সমান শত্রুদিগের নাশকারী রাজপুরুষই সকলকে সুখ প্রদান করিতে পারে, অন্যে নহে ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    শং নো ভবন্তু বা॒জিনো॒ হবে॑ষু দে॒বতা॑তা মি॒তদ্র॑বঃ স্ব॒র্কাঃ ।
    জ॒ম্ভয়॒ন্তোऽহিং॒ বৃক॒ꣳ রক্ষা॑ᳬंসি॒ সনে॑ম্য॒স্মদ্যু॑য়ব॒ন্নমী॑বাঃ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    শন্ন ইত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বৃহস্পতির্দেবতা । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বর ॥

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