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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 6
    ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः देवता - अश्वो देवता छन्दः - भूरिक जगती, स्वरः - निषादः
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    अ॒प्स्वन्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम॒पामु॒त प्रश॑स्ति॒ष्वश्वा॒ भव॑त वा॒जिनः॑। देवी॑रापो॒ यो व॑ऽऊ॒र्मिः प्रतू॑र्तिः क॒कुन्मा॑न् वाज॒सास्तेना॒यं वाज॑ꣳ सेत्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अ॒मृत॑म्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। भे॒ष॒जम्। अ॒पाम्। उ॒त। प्रश॑स्ति॒ष्विति॒ प्रऽश॑स्तिषु। अश्वाः॑। भव॑त। वा॒जिनः॑। देवीः॑। आ॒पः॒। यः। वः॒। ऊ॒र्मिः। प्रतू॑र्त्तिरिति॒ प्रऽतू॑र्त्तिः। क॒कुन्मा॒निति॑ क॒कुत्ऽमा॑न्। वा॒ज॒सा इति॑ वाज॒ऽसाः। तेन॑। अ॒यम्। वाज॑म्। से॒त् ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तिष्वश्वा भवत वाजिनः । देवीरापो यो वऽऊर्मिः प्रतूर्तिः ककुन्मान्वाजसास्तेनायं वाजँ सेत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप्स्वित्यप्ऽसु। अन्तः। अमृतम्। अप्स्वित्यप्ऽसु। भेषजम्। अपाम्। उत। प्रशस्तिष्विति प्रऽशस्तिषु। अश्वाः। भवत। वाजिनः। देवीः। आपः। यः। वः। ऊर्मिः। प्रतूर्त्तिरिति प्रऽतूर्त्तिः। ककुन्मानिति ककुत्ऽमान्। वाजसा इति वाजऽसाः। तेन। अयम्। वाजम्। सेत्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 6
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    पदार्थ -
    हे (देवीः) दिव्यगुण वाली (आपः) अन्तरिक्ष में व्यापक स्त्री-पुरुष लोगो। तुम (यः) जो (वः) तुम्हारा (समुद्रस्य) सागर के (ककुन्मान्) प्रशस्त चञ्चल गुणों से युक्त (वाजसाः) सङ्ग्रामों के सेवने के हुेतु (प्रतूर्त्तिः) अतिशीघ्र चलने वाला समुद्र के (ऊर्मिः) आच्छादन करनेहारे तरङ्गों के समान पराक्रम और जो (अप्सु) प्राण के (अन्तः) मध्य में (अमृतम्) मरणधर्मरहित कारण और जो (अप्सु) जलों के मध्य अल्पमृत्यु से छुड़ाने वाला (भेषजम्) रोगनिवारक ओषध के समान गुण है, जिससे (अयम्) यह सेनापति (वाजम्) सङ्ग्राम और अन्न का प्रबन्ध करे (तेन) उससे (अपाम्) उक्त प्राणों और जलों की (प्रशस्तिषु) गुण प्रशंसाओं में (वाजिनः) प्रशंसित बल और पराक्रम वाले (अश्वाः) कुलीन घोड़ों के समान वेगवाले (भवत) हूजिये॥६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्रियों को चाहिये कि समुद्र के समान गम्भीर, जल के समान शान्तस्वभाव, वीरपुत्रों को उत्पन्न करने, नित्य ओषधियों को सेवने और जलादि पदार्थों को ठीक-ठीक जानने वाली होवें। इसी प्रकार जो पुरुष वायु और जल के गुणों के वेत्ता पुरुषों से संयुक्त होते हैं, वे रोगरहित होकर विजयकारी होते हैं॥६॥

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