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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 22
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - राजप्रजे देवते छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    य॒कास॒कौ श॑कुन्ति॒काहल॒गिति॒ वञ्च॑ति। आह॑न्ति ग॒भे पसो॒ निग॑ल्गलीति॒ धार॑का॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒का। अ॒स॒कौ। श॒कु॒न्ति॒का। आ॒हल॑क्। इति॑। वञ्च॑ति। आ। ह॒न्ति॒। ग॒भे। पसः॑। निग॑ल्गलीति। धार॑का ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यकासकौ शकुन्तिकाहलगिति वञ्चति । आऽहन्ति गभे पसो निगल्गलीति धारका ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यका। असकौ। शकुन्तिका। आहलक्। इति। वञ्चति। आ। हन्ति। गभे। पसः। निगल्गलीति। धारका॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 22
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    अन्वयः - यस्यां गभे राजा पसो राष्ट्रमाहन्ति सा धारका प्रजा निगल्गलीति, यतो यकाऽसकौ शकुन्तिका शकुन्तिकेव वर्त्तते, तस्मादिमामाहलग्राजा वञ्चतीति॥२२॥

    पदार्थः -
    (यका) यः (असकौ) असौ प्रजा (शकुन्तिका) अल्पा पक्षिणीव निर्बला (आहलक्) समन्ताद्धलं विलेखनमञ्चति सः (इति) अनेन प्रकारेण (वञ्चति) प्रलम्भते (आ) (हन्ति) (गभे) प्रजायाम् (पसः) राष्ट्रम् (निगल्गलीति) भृशं निगलतीव वर्त्तते (धारका) सुखस्य धर्त्री॥२२॥

    भावार्थः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजा न्यायेन प्रजाया रक्षणं न कुर्यादकृत्वा करं गृह्णीयात् तर्हि यथा प्रजाः क्रमशः क्षीणा भवन्ति तथा राजापि नष्टो भवति। यदि विद्याविनयाभ्यां प्रजाः संरक्षेत् तर्हि राजप्रजे सर्वतो वर्द्धेताम्॥२२॥

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