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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - त्रिपदानुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स यत्प्राचीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒न्मारु॑तं॒ शर्धो॑ भू॒त्वानु॒व्यचल॒न्मनो॑ऽन्ना॒दं कृ॒त्वा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । प्राची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । मारु॑तम् । शर्ध॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । मन॑: । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यत्प्राचींदिशमनु व्यचलन्मारुतं शर्धो भूत्वानुव्यचलन्मनोऽन्नादं कृत्वा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । प्राचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । मारुतम् । शर्ध: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । मन: । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (प्राचीम्) पूर्व वा सामनेवाली (दिशम् अनु) दिशा की ओर (व्यचलत्) विचरा, वह (मारुतम्) [शत्रुओं के मारनेवाले] शूरों का (शर्धः) बल (भूत्वा) होकर और (मनः) मन को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्)लगातार चला गया ॥१॥

    भावार्थ - ब्रह्मज्ञानी विद्वान्अतिथि अपने लगातार सदुपदेशों सत्कर्मों और सत्पराक्रमों से लोगों को बलवान् करकेसंसार की रक्षा करता है ॥१, २॥

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