अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ प्रथ॒मो व्या॒नः सेयं भूमिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । प्र॒थ॒म: । वि॒ऽआ॒न: । सा । इ॒यम् । भूमि॑: ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य प्रथमो व्यानः सेयं भूमिः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । प्रथम: । विऽआन: । सा । इयम् । भूमि: ॥१७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
विषय - व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (प्रथमः) पहिला (व्यानः) व्यान [शरीर में फैला वायु] है, (सा) सो (इयम् भूमिः)यह भूमि है [अर्थात् वह भूगर्भविद्या, राज्यपालन आदि विद्या का उपदेश करता है]॥१॥
भावार्थ - सत्यव्रतधारी महात्माअतिथि संन्यासी अपने प्रत्येक व्यान वायु की चेष्टा में संसार का उपकार करताहै, जैसे वह प्रथम व्यान में भूमिविद्या, दूसरे में अन्तरिक्षविद्या, तीसरे मेंसूर्यविद्या वा आकाशविद्या, चौथे में नक्षत्रविद्या, पाँचवें में वसन्त आदिऋतुविद्या, छठे में ऋतुओं में उत्पन्न पुष्प फल आदि पदार्थविद्या और सातवें मेंसंवत्सर अर्थात् काल की उपभोगविद्या का उपदेश करता है ॥१-७॥
टिप्पणी -
१−(व्यानः)सर्वशरीरव्यापको वायुः (भूमिः) भूगर्भविद्या राज्यपालनादिविद्या च। अन्यत्पूर्ववत् स्पष्टं च ॥