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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - याजुषी पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ तृ॒तीयो॑ व्या॒नः सा द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । तृ॒तीय॑: । वि॒ऽआ॒न: । सा । द्यौ: ॥१७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य तृतीयो व्यानः सा द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । तृतीय: । विऽआन: । सा । द्यौ: ॥१७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (तृतीयः) तीसरा (व्यानः) व्यान [शरीर में फैला हुआ वायु] है, (सा) वह (द्यौः)सूर्य वाआकाश है [अर्थात् वह सूर्य के ताप आकर्षण आदि और आकाश के फैलाव आदि कीविद्या को जताता है] ॥३॥

    भावार्थ - सत्यव्रतधारी महात्माअतिथि संन्यासी अपने प्रत्येक व्यान वायु की चेष्टा में संसार का उपकार करताहै, जैसे वह प्रथम व्यान में भूमिविद्या, दूसरे में अन्तरिक्षविद्या, तीसरे मेंसूर्यविद्या वा आकाशविद्या, चौथे में नक्षत्रविद्या, पाँचवें में वसन्त आदिऋतुविद्या, छठे में ऋतुओं में उत्पन्न पुष्प फल आदि पदार्थविद्या और सातवें मेंसंवत्सर अर्थात् काल की उपभोगविद्या का उपदेश करता है ॥१-७॥

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