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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - त्रिपदा प्रतिष्ठार्ची छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य। स॑मा॒नमर्थं॒ परि॑ यन्ति दे॒वाः सं॑वत्स॒रं वा ए॒तदृ॒तवो॑ऽनु॒परि॑यन्ति॒ व्रात्यं॑ च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मा॒नम् । अर्थ॑म् । परि॑ । य॒न्ति॒ । दे॒वा: । स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । वै । ए॒तत् । ऋ॒तव॑: । अ॒नु॒ऽपरि॑यन्ति । व्रात्य॑म् । च॒॥१७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य। समानमर्थं परि यन्ति देवाः संवत्सरं वा एतदृतवोऽनुपरियन्ति व्रात्यं च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समानम् । अर्थम् । परि । यन्ति । देवा: । सम्ऽवत्सरम् । वै । एतत् । ऋतव: । अनुऽपरियन्ति । व्रात्यम् । च॥१७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] के−(समानम्) एक से अर्थात् धार्मिक (अर्थम्) अर्थ [विचार] को (देवाः) विद्वान् लोग (परि) सब ओर से (यन्ति) प्राप्तकरते हैं, (च) और (व्रात्यम्) उस व्रात्य [सत्यव्रतधारी पुरुष] के (वै) निश्चयकरके (एतत्) इस प्रकार से (अनुपरियन्ति) पीछे घिर कर चलते हैं, [जैसे] (ऋतवः)ऋतुएँ (संवत्सरम्) वर्षकाल के [पीछे चलते हैं] ॥८॥

    भावार्थ - जो सत्यव्रतधारीपरोपकारी संन्यासी हो, सब विद्वान् लोग उसी के न्याययुक्त वेदानुकूल मार्ग परचलें और सब मिलकर उसी से प्रीति करें, जैसे सब ऋतुएँ और महीने आदि वर्ष मेंमिले रहते हैं ॥८॥

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