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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ द्वि॒तीयो॑ व्या॒नस्तद॒न्तरि॑क्षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । द्व‍ि॒तीय॑: । वि॒ऽआ॒न: । तत् । अ॒न्तरि॑क्षम् ॥१७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य द्वितीयो व्यानस्तदन्तरिक्षम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । द्व‍ितीय: । विऽआन: । तत् । अन्तरिक्षम् ॥१७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (द्वितीयः) दूसरा (व्यानः) व्यान [शरीर में फैला हुआ वायु] है, (तत्) वह (अन्तरिक्षम्) मध्यलोक है [अर्थात् वह वायुमण्डल, मेघमण्डल आदि का ज्ञान देताहै] ॥२॥

    भावार्थ - सत्यव्रतधारी महात्माअतिथि संन्यासी अपने प्रत्येक व्यान वायु की चेष्टा में संसार का उपकार करताहै, जैसे वह प्रथम व्यान में भूमिविद्या, दूसरे में अन्तरिक्षविद्या, तीसरे मेंसूर्यविद्या वा आकाशविद्या, चौथे में नक्षत्रविद्या, पाँचवें में वसन्त आदिऋतुविद्या, छठे में ऋतुओं में उत्पन्न पुष्प फल आदि पदार्थविद्या और सातवें मेंसंवत्सर अर्थात् काल की उपभोगविद्या का उपदेश करता है ॥१-७॥

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