Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 137

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 3
    सूक्त - वामदेवः देवता - दधिक्राः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १३७

    द॑धि॒क्राव्णो॑ अकारिषं जि॒ष्णोरश्व॑स्य वा॒जिनः॑। सु॑र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धि॒ऽक्राव्ण॑: । अ॒का॒रि॒ष॒म् । जि॒ष्णो: । अश्व॑स्य । वा॒जिन॑: ॥ सु॒र॒भि । न॒: । मुखा॑ । क॒र॒त् । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥१३७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधिऽक्राव्ण: । अकारिषम् । जिष्णो: । अश्वस्य । वाजिन: ॥ सुरभि । न: । मुखा । करत् । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥१३७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (दधिक्राव्णः) चढ़ाकर चलनेवाले वा हींसनेवाले (जिष्णोः) जीतनेवाले, (वाजिनः) वेगवान् (अश्वस्य) घोड़े के (अकारिषम्) कर्म को मैंने किया है। वह [कर्म] (नः) हमारे (मुखा) मुखों को (सुरभि) ऐश्वर्ययुक्त (करत्) करे और (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को (प्र तारिषत्) बढ़ावे ॥३॥

    भावार्थ - जैसे शीघ्रगामी घोड़ा मार्ग को जीतकर अश्ववार को लेकर ठिकाने पर पहुँचकर सुख पाता है, वैसे ही विद्वान् पराक्रमी अपना कर्तव्य पूरा करके यश प्राप्त करे ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top