अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 12
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इन्द्र॑म् । वा॒ज॒या॒म॒सि॒ । म॒हे । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे ॥ स: । वृषा॑ । वृ॒ष॒भ: । भु॒व॒त् ॥१३७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे। स वृषा वृषभो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥१३७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 12
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (महे) बड़े (वृत्राय) रोकनेवाले वैरी के (हन्तवे) मारने को (वाजयामसि) हम बलवान् करते हैं [उत्साही बनाते हैं], (सः) वह (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठ वीर (भुवत्) होवे ॥१२॥
भावार्थ - प्रजागण राजा को शत्रुओं के मारने के लिये सहाय करें और राजा भी प्रजा की भलाई के लिये प्रयत्न करे ॥१२॥
टिप्पणी -
मन्त्र १२-१४ आचुके हैं-अथ० २०।४७।१-३ ॥ १२-१४−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० २०।४७।१-३ ॥