अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 2
प॒दा प॒णीँर॑रा॒धसो॒ नि बा॑धस्व म॒हाँ अ॑सि। न॒हि त्वा॒ कश्च॒न प्रति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप॒दा । प॒णीन् । अ॒रा॒धस॑: । नि । बा॒ध॒स्व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥ न॒हि । त्वा॒ । क: । च॒न । प्रति॑ ॥९३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
पदा पणीँरराधसो नि बाधस्व महाँ असि। नहि त्वा कश्चन प्रति ॥
स्वर रहित पद पाठपदा । पणीन् । अराधस: । नि । बाधस्व । महान् । असि ॥ नहि । त्वा । क: । चन । प्रति ॥९३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 2
विषय - परमेश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ -
[हे परमेश्वर !] तू (पदा) अपनी व्याप्ति से (अराधसः) आराधना न करनेवाले (पणीन्) कुव्यवहारी पुरुषों को (नि बाधस्व) रोकता रह, तू (महान्) महान् (असि) है। (कः चन) कोई भी (त्वा प्रति) तेरे समान (नहि) नहीं है ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा सर्वव्यापक होकर दुष्टों का नाश और धर्मात्माओं की रक्षा करता है ॥२॥
टिप्पणी -
२−(पदा) पद गतौ स्थैर्ये च-क्विप्। गत्या। व्याप्त्या (पणीन्) कुव्यवहारिणः पुरुषान् (अराधसः) अराधसमनाराधयन्तम्-निरु० ।१७। अनाराधनाशीलान् (नि) नितराम् (बाधस्व) विलोडय। अपवृणु (महान्) (असि) (नहि) (कश्चन) कश्चिदपि (त्वा प्रति) त्वया सदृशः ॥