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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 93

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
    सूक्त - देवजामयः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-९३

    त्वमि॑न्द्रासि वृत्र॒हा व्यन्तरि॑क्ष॒मति॑रः। उद्द्याम॑स्तभ्ना॒ ओज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । वृत्र॒ऽहा । वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒: ॥ उत् । द्याम् । अ॒स्त॒भ्ना॒ : । ओजसा ॥९३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्रासि वृत्रहा व्यन्तरिक्षमतिरः। उद्द्यामस्तभ्ना ओजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । इन्द्र । असि । वृत्रऽहा । वि । अन्तरिक्षम् । अतिर: ॥ उत् । द्याम् । अस्तभ्ना : । ओजसा ॥९३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (त्वम्) तू (वृत्रहा) अन्धकारनाशक (असि) है, (अन्तरिक्षम्) आकाश को (वि अतिरः) तूने फैलाया है, और (ओजसा) पराक्रम के साथ (द्याम्) चमकते हुए सूर्य को (उत्) उत्तम रीति से (अस्तभ्नाः) थाँभा है ॥६॥

    भावार्थ - परमेश्वर ही आकर्षण नियम से सूर्य आदि लोकों को अपने-अपने स्थान पर आकाश में स्थिर रखता है ॥६॥

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