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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 11
    सूक्त - रक्षोहाः देवता - गर्भसंस्रावप्रायश्चित्तम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९६

    ब्रह्म॑णा॒ग्निः सं॑विदा॒नो र॑क्षो॒हा बा॑धतामि॒तः। अमी॑वा॒ यस्ते॒ गर्भं॑ दु॒र्णामा॒ योनि॑मा॒शये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑णा । अ॒ग्नि: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । र॒क्ष॒:ऽहा । बा॒ध॒ता॒म् । इ॒त: ॥ अमी॑वा । य: । ते॒ । गर्भ॑म् । दु॒:ऽनामा॑ । योनि॑म् । आ॒ऽशये॑ ॥९६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मणाग्निः संविदानो रक्षोहा बाधतामितः। अमीवा यस्ते गर्भं दुर्णामा योनिमाशये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मणा । अग्नि: । सम्ऽविदान: । रक्ष:ऽहा । बाधताम् । इत: ॥ अमीवा । य: । ते । गर्भम् । दु:ऽनामा । योनिम् । आऽशये ॥९६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    [हे गर्भिणी !] (ब्रह्मणा) विद्वान् वैद्य से (संविदानः) मेल रखता हुआ, (रक्षोहा) राक्षसों [रोगों] का नाश करनेवाला (अग्निः) अग्नि [अग्नि के समान रोग भस्म करनेवाला औषध] (इतः) यहाँ से [उस रोग को] (बाधताम्) हटावे, (यः) जो कोई (दुर्णामा) दुर्नामा [दुष्ट नामवाले बवासीर आदि रोग का कीड़ा] (अमीवा) पीड़ा होकर (ते) तेरे (गर्भम्) गर्भाशय [कोख] और (योनिम्) योनि [गुप्त उत्पत्तिमार्ग] को (आशये) घेर लेता है ॥११॥

    भावार्थ - स्त्री की कोख और योनि के रोगजन्तुओं को विद्वान् वैद्यों की सम्मति से दूर करना चाहिये ॥११॥

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