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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 24
    सूक्त - प्रचेताः देवता - दुःस्वप्ननाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९६

    अपे॑हि मनसस्प॒तेऽप॑ क्राम प॒रश्च॑र। प॒रो निरृ॑त्या॒ आ च॑क्ष्व बहु॒धा जीव॑तो॒ मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । इ॒ह‍ि॒ । म॒न॒स॒: । प॒ते॒ । अप॑ । क्रा॒म॒ । प॒र: । च॒र ॥ प॒र: । नि:ऽऋ॑त्यै । आ । च॒क्ष्व॒ । ब॒हु॒धा । जीव॑त: । मन॑:॥९६.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेहि मनसस्पतेऽप क्राम परश्चर। परो निरृत्या आ चक्ष्व बहुधा जीवतो मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । इह‍ि । मनस: । पते । अप । क्राम । पर: । चर ॥ पर: । नि:ऽऋत्यै । आ । चक्ष्व । बहुधा । जीवत: । मन:॥९६.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 24

    पदार्थ -
    (मनसः पते) हे मन के गिरानेवाले ! [दुष्ट स्वप्न आदि रोग] (अप इहि) निकल जा, (अप क्राम) पैर उठा, (परः) परे (चर) चला जा। (निर्ऋत्यै) अलक्ष्मी [महामारी, दरिद्रता आदि] को (परः) दूर [जाने के लिये] (आ चक्ष्व) कह दे, (जीवतः) जीवित मनुष्य का (मनः) मन (बहुधा) बहुत प्रकार से [बहुत विषयों में उत्सुक] होता है ॥२४॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम विचार के साथ स्वास्थ्य की रक्षा करें और निरालसी होकर शुभ कर्मों को सोचते हुए ऐश्वर्यवान् होवें ॥२४॥

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