अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 17
अ॒क्षीभ्यां॑ ते॒ नासि॑काभ्यां॒ कर्णा॑भ्यां॒ छुबु॑का॒दधि॑। यक्ष्मं॒ शीर्ष॒ण्यं म॒स्तिष्का॑ज्जि॒ह्वाया॒ वि वृ॑हामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्षीभ्या॑म् । ते॒ । नासि॑काभ्याम् । कर्णा॑भ्याम् । छुबु॑कात् । अधि॑ ॥ यक्ष्म॑म् । शी॒र्ष॒ण्य॑म् । म॒स्तिष्का॑त् । जि॒ह्वाया॑: । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥९६.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि। यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षीभ्याम् । ते । नासिकाभ्याम् । कर्णाभ्याम् । छुबुकात् । अधि ॥ यक्ष्मम् । शीर्षण्यम् । मस्तिष्कात् । जिह्वाया: । वि । वृहामि । ते ॥९६.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 17
विषय - शारीरिक विषय में शरीररक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
[हे प्राणी !] (ते) तेरी (अक्षीभ्याम्) दोनों आँखों से, (नासिकाभ्याम्) दोनों नथनों से, (कर्णाभ्याम्) दोनों कानों से, (छुबुकात् अधि=चुबुकात् अधि) ठोड़ी में से, (ते) तेरे (मस्तिष्कात्) भेजे से और (जिह्वायाः) जिह्वा से (शीर्षण्यम्) शिर में के (यक्ष्मम्) क्षयी [क्षयी रोग] को (वि वृहामि) मैं उखाड़े देता हूँ ॥१७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में शिर के अवयवों का वर्णन है। जैसे सद्वैद्य उत्तम औषधों से रोगों की निवृत्ति करता है, ऐसे ही मनुष्य अपने आत्मिक और शारीरिक दोषों को विचारपूर्वक नाश करे ॥१७॥
टिप्पणी -
मन्त्र १७-२३ आ चुके हैं-अ० २।३३।१-७ ॥ १७-२३−व्याख्याताः-अ० २।३३।१-७ ॥