अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 24
ऋषिः - प्रचेताः
देवता - दुःस्वप्ननाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
62
अपे॑हि मनसस्प॒तेऽप॑ क्राम प॒रश्च॑र। प॒रो निरृ॑त्या॒ आ च॑क्ष्व बहु॒धा जीव॑तो॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒हि॒ । म॒न॒स॒: । प॒ते॒ । अप॑ । क्रा॒म॒ । प॒र: । च॒र ॥ प॒र: । नि:ऽऋ॑त्यै । आ । च॒क्ष्व॒ । ब॒हु॒धा । जीव॑त: । मन॑:॥९६.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेहि मनसस्पतेऽप क्राम परश्चर। परो निरृत्या आ चक्ष्व बहुधा जीवतो मनः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इहि । मनस: । पते । अप । क्राम । पर: । चर ॥ पर: । नि:ऽऋत्यै । आ । चक्ष्व । बहुधा । जीवत: । मन:॥९६.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
स्वास्थ्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(मनसः पते) हे मन के गिरानेवाले ! [दुष्ट स्वप्न आदि रोग] (अप इहि) निकल जा, (अप क्राम) पैर उठा, (परः) परे (चर) चला जा। (निर्ऋत्यै) अलक्ष्मी [महामारी, दरिद्रता आदि] को (परः) दूर [जाने के लिये] (आ चक्ष्व) कह दे, (जीवतः) जीवित मनुष्य का (मनः) मन (बहुधा) बहुत प्रकार से [बहुत विषयों में उत्सुक] होता है ॥२४॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम विचार के साथ स्वास्थ्य की रक्षा करें और निरालसी होकर शुभ कर्मों को सोचते हुए ऐश्वर्यवान् होवें ॥२४॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१०।१६४।१ ॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥ २४−(अप इहि) अप गच्छ। निर्गच्छ (मनसः) चित्तस्य (पते) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। पत्लृ पतने-इन्। अधोगमयितः (अपक्राम) पादौ विक्षिप (परः) परस्तात्। दूरे (चर) गच्छ (परः) परस्तात् (निर्ऋत्यै) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तये (आ) आभिमुख्येन (चक्ष्व) ब्रूहि (बहुधा) बहुप्रकारेण। बहुषु विषयेषूत्सुकम् (जीवतः) जीवितस्य (मनः) चित्तम् ॥
विषय
पाप-संकल्प को दूर भगाना
पदार्थ
१. हे (मनसस्पते) = मन का पति बन जानेवाले पाप संकल्प! तू (अप इहि) = यहाँ से दूर भाग जा। (अपक्राम) = तेरा पादविक्षेप हमसे सुदूर प्रदेशों में ही हो। (पर:चर) = तू दूर जंगलों में भटकनेवाला हो। २. (निर्ऋत्यै) = इस निर्ऋति-दुर्गति-दुराचार के लिए (पर:) = हमसे दूर होकर (आचश्व) = कथन कर, अर्थात् तू हमें पाप के लिए प्रेरित मत कर । (जीवतः मन:) = प्राणशक्ति को धारण करनेवाला मेरा मन (बहुधा) = बहुत बातों का धारण करनेवाला है। घर के कितने ही कार्यों-गौ आदि की सेवा व वेदवाणी के अध्ययन में मेरा मन व्याप्त है, अत: हे पाप-संकल्प! तू मुझसे दूर जा मुझे अवकाश नहीं कि तेरी बातों को सुनें।
भावार्थ
हम मन पर प्रभुत्व पा लेनेवाले पाप-संकल्प को दूर भगाएँ। धारणात्मक कार्यों में मन को लगाये रक्खें, जिससे इसमें पाप-संकल्प उत्पन्न ही न हों। पाप-संकल्पों को पराजित करनेवाला यह वीर 'कलि' कहलाता है [कलि-Ahew]। यही अगले सूक्त का ऋषि है- अथ नवमोऽनुवाकः
भाषार्थ
हे रोगी! तू दृढ-संकल्प से (आ चक्ष्व) कह कि (मनसस्पते) हे मन के स्वामी बने हुए पाप! तू (अपेहि) जुदा हो जा, (अप क्राम) हट जा, (परः चर) परे हो जा। (निऋर्त्यै) पाप-जन्य कष्ट के प्रति भी (आ चक्ष्व) तू दृढ़-संकल्प से कह कि (परः) तू भी परे हो जा; यद्यपि (जीवतः) जीवित मनुष्य का (मनः) मन (बहुधा) बहुत प्रकार का होता है।
टिप्पणी
[चिकित्सक रोगी से कहता है कि यद्यपि जीवित मनुष्य का मन बहुत प्रकार का होता है, वह कभी पाप की ओर झुकता है और कभी पुण्य की ओर, तब भी हे रोगी! तू मनोनिष्ठ पाप के साथ लड़, इस आसुरी प्रवृत्ति को हटाने के लिए दृढ़ संकल्प का आश्रय ले, मानसिक पाप की जड़ उखेड़ने के लिए पाप को मानसिक भूमि से उखाड़ फैंक। इसी प्रकार पापजन्य कष्टों और रोगों को दूर करने के लिए भी तू कटिबद्ध हो जा। उनके प्रति भी तू उपर्युक्त दृढ़ भावना को अपने में जागरित कर। इस प्रकार तू मानसिक पापों और तज्जन्य रोगों से छुटकारा पा लेगा। वैदिक दृष्टि से रोग प्रायः करके परिणाम हैं—पापों के, विशेषतया मानसिक-पापों के, दुश्चिन्ताओं के। मानसिक-पापों के प्रति दृढ़-संकल्प की भावना का वर्णन निम्नलिखित मन्त्र में विशेषरूप से हुआ है। यथा— “परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परेहि न त्वा कामये॥” अथर्व০ ६.४५.१॥ होम्योपेथिक चिकित्सा में रोगों की चिकित्सा के लिए, रोगी की मानसिक अवस्थाओं पर भी विशेष बल दिया है। क्योंकि मानसिक-अवस्था, भिन्न-भिन्न रोगों के उत्पादन में, एक विशेष कारण है। वर्त्तमान सूक्त में यक्ष्मा का विस्तृत वर्णन कर, और २३ वें मन्त्र में “कश्यप के वीबर्ह” के पश्चात् ही जो २४ वें मन्त्र में “मनसस्पति” या “मनस्पाप” का वर्णन किया है, और उसे और उससे प्रकट होनेवाले कष्टों और रोगों के हटाने में जो “दृढ़-संकल्प” का वर्णन किया है, इससे स्वभावतः यह सूचित किया है कि “कश्यप का वीबर्ह” दृढ़-संकल्प है, जो कि कश्यप=पश्यक अर्थात् सर्वद्रष्टा परमात्मा की परम कृपा द्वारा प्राप्त होता है।]
विषय
राजा,आत्मा और परमेश्वर।
भावार्थ
हे (मनसः पते) मन को नीचे गिराने वाले ! दुष्ट विचार एवं दुःस्वप्न ! तू (अपेहि) दूर हो। (अप क्राम) परे हट। (परः श्चर) परे चला जा। (निर्ऋत्यै) दुष्ट पापप्रवृत्ति को भी (परः) दूर से ही (आा चक्ष्व) हबः विनष्ट कर क्योंकि (जीवतः) जीवनधारी पुरुष का (मनः) मन (बहुधा) बहुत प्रकार के विषयों में लग जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-५ पूरणो वैश्वामित्रः। ६-१० यक्ष्मनाशनः प्राजापत्यः। ११-१६ रक्षोहा ब्राह्मः। १७-२३ विवृहा काश्यपः। २४ प्रचेताः॥ १-५ इन्द्रो देवता। ६-१० राजयक्ष्मघ्नम्। ११-१६ गर्भसंस्रावे प्रायश्चितम्। १७-२३ यक्ष्मघ्नम्। २४ दुःस्वप्नघ्नम्॥ १-१० त्रिष्टुभः। ११-२४ अनुष्टुभः। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Off with you, hypnosis of the mind, disturb not, get away and wander far around with death and adversity, and there proclaim that I am not for you, I am alive, awake and alert, my mind is wakeful and versatile.
Translation
Let this dream having its impact on mind depart and vanquish away. Let destruction be seen away from us. The mind of living man has manifold activities.
Translation
Let this dream having its impact on mind depart and vanquish away. Let destruction be seen away from us. The mind of living man has manifold activities.
Translation
In this world, we (the devotee) enhanced the glory of this Lord of Destruction and Fortune yesterday (i.e., in the past) let us even today (i.e., at the present time) with one mind, offer our devotional activity for Him alone. Certainly you shall grace yourself in Vedic learning.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१०।१६४।१ ॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥ २४−(अप इहि) अप गच्छ। निर्गच्छ (मनसः) चित्तस्य (पते) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। पत्लृ पतने-इन्। अधोगमयितः (अपक्राम) पादौ विक्षिप (परः) परस्तात्। दूरे (चर) गच्छ (परः) परस्तात् (निर्ऋत्यै) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तये (आ) आभिमुख्येन (चक्ष्व) ब्रूहि (बहुधा) बहुप्रकारेण। बहुषु विषयेषूत्सुकम् (जीवतः) जीवितस्य (मनः) चित्तम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
স্বাস্থ্যরক্ষোপদেশঃ
भाषार्थ
(মনসঃ পতে) হে ক্ষীণমতি প্রদায়ী ! [দুষ্ট স্বপ্ন আদি রোগ] (অপ ইহি) দূর হও, (অপ ক্রাম) পদবিক্ষেপ করো, (পরঃ) দূর-দূরান্তে (চর) গমন করো। (নির্ঋত্যৈ) অলক্ষ্মীকে [মহামারী, দরিদ্রতা আদি] (পরঃ) দূরে [যাওয়ার জন্য] (আ চক্ষ্ব) বলো, (জীবতঃ) জীবিত মানুষের (মনঃ) মন (বহুধা) বহু প্রকারে [বহু বিষয়ে উৎসুক] থাকে ॥২৪॥
भावार्थ
মনুষ্যের উচিত উত্তম বিচারের সহিত স্বাস্থ্যরক্ষা করা এবং নিরলস হয়ে শুভ কর্ম সম্পাদন-বাস্তবায়ন পূর্বক ঐশ্বর্যবান্ হওয়া ॥২৪॥ এই মন্ত্র রয়েছে ঋগ্বেদ-১০।১৬৪।১॥ ইত্যষ্টমোঽনুবাকঃ ॥
भाषार्थ
হে রোগী! তুমি দৃঢ়-সঙ্কল্প দ্বারা (আ চক্ষ্ব) বলো, (মনসস্পতে) হে মনের স্বামী হয়ে থাকা পাপ! তুমি (অপেহি) প্রস্থান করো, (অপ ক্রাম) সরে যাও, (পরঃ চর) দূরে যাও। (নিঋর্ত্যৈ) পাপ-জন্য কষ্টের প্রতিও (আ চক্ষ্ব) তুমি দৃঢ়-সঙ্কল্প দ্বারা বলো, (পরঃ) তুমিও দূরে যাও; যদ্যপি (জীবতঃ) জীবিত মনুষ্যের (মনঃ) মন (বহুধা) অনেক প্রকারের হয়।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal