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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पूरणः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९६
    64

    अनु॑स्पष्टो भवत्ये॒षो अ॑स्य॒ यो अ॑स्मै रे॒वान्न सु॒नोति॒ सोम॑म्। निर॑र॒त्नौ म॒घवा॒ तं द॑धाति ब्रह्म॒द्विषो॑ ह॒न्त्यना॑नुदिष्टः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ऽस्पष्ट: । भ॒व॒ति॒ । ए॒ष: । अ॒स्य॒ । य: । अ॒स्मै॒ । रे॒वान् । न । सु॒नोति॑ । सोम॑म् ॥ नि: । अ॒र॒त्नौ । म॒घऽवा॑ । तम् । द॒धा॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑: । ह॒न्ति॒ । अन॑नुऽदिष्ट: ॥९६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुस्पष्टो भवत्येषो अस्य यो अस्मै रेवान्न सुनोति सोमम्। निररत्नौ मघवा तं दधाति ब्रह्मद्विषो हन्त्यनानुदिष्टः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽस्पष्ट: । भवति । एष: । अस्य । य: । अस्मै । रेवान् । न । सुनोति । सोमम् ॥ नि: । अरत्नौ । मघऽवा । तम् । दधाति । ब्रह्मऽद्विष: । हन्ति । अननुऽदिष्ट: ॥९६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (एषः) वह [मनुष्य] (अस्य) इस [शूर पुरुष] का (अनुस्पष्टः) सर्वथा स्पष्ट [दृष्टिगोचर] (भवति) होता है, (यः) जो [मनुष्य] (रेवान् न) धनवान् के समान (अस्मै) उस [शूर] के लिये (सोमम्) सोम [तत्त्व रस] (सुनोति) निचोड़ता है। (मघवा) धनवान् [शूर] (तम्) उस [मनुष्य] को (अरत्नौ) अपनी गोद में (निः) निश्चय करके (दधाति) बैठालता है, और (अननुदिष्टः) विना कहा हुआ [वह शूर] (ब्रह्मद्विषः) वेदविरोधियों को (हन्ति) मारता है ॥४॥

    भावार्थ

    राजा बुद्धिमान् राजभक्तों पर सदा दया दृष्टि रक्खे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अनुस्पष्टः) निरन्तरस्पष्टः। दृष्टिगोचरः (भवति) (एषः) स मनुष्यः (अस्य) प्रसिद्धस्य शूरस्य (यः) मनुष्यः (अस्मै) शूराय (रेवान्) धनवान् (न) इव (सुनोति) निष्पादयति (सोमम्) तत्त्वरसम् (निः) निश्चयेन (अरत्नौ) ऋतन्यञ्जि०। उ० ४।२। ऋ गतौ-कत्निच्, रत्निर्बद्धमुष्टिकरः स नास्ति यत्र। विस्तृतकनिष्ठाङ्गुलिमुष्टिकहस्ते। हस्ते। क्रोडे (मघवा) धनवान् (तम्) पुरुषम् (दधाति) स्थापयति (ब्रह्मद्विषः) वेदद्वेष्टॄन् (हन्ति) नाशयति (अननुदिष्टः) अनुदेशमप्राप्तः। अनुक्तः। अप्रार्थितः ॥

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    विषय

    विलास का दुष्परिणाम

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (रेवान्) = धनवान् होता हुआ (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (सोमं न सुनोति) = सोम का अभिषव नहीं करता-विलासमय जीवन बिताता हुआ जो सोम का नाश करता है, (एष:) = यह व्यक्ति (अस्य) = इस प्रभु की (अनुस्पष्टः) = भवति दृष्टि में स्थापित होता है [स्पश् to see] | प्रभु की इसपर दृष्टि होती है, उसी प्रकार जैसेकि एक अशुभ आचरणवाला व्यक्ति राजपुरुषों की दृष्टि में होता है। २. यदि यह एकदम विलासमय जीवनवाला हो जाता है तो (तम्) = उस विलासी धनी पुरुष को (मघवा) = ऐश्वर्यशाली प्रभु (अरत्नौ) = मुट्ठी में (नि: दधाति) = निश्चय से धारण करता है, अर्थात् उसे कैद में डाल देता है और भी अधिक विलास के बढ़ने पर इस (ब्रह्मद्विषः) = वेद के शत्रुओं को-ज्ञान से विपरीत मार्ग पर चलनेवालों को वे प्रभु (हन्ति) = विनष्ट कर देते हैं। (अनानुदिष्ट:) = ये प्रभु कभी अनुदिष्ट नहीं होते। प्रभु तक कोई सिफ़ारिश नहीं पहुंचाई जा सकती।

    भावार्थ

    विलासी पुरुष प्रभु से 'अनुस्पष्ट, धृत व दण्डित' होता है। हम विलास के मार्ग पर न चलकर तप के ही मार्ग पर चलें।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (रेवान्) धनिक व्यक्ति, (अस्मै) इस परमेश्वर के लिए, (सोमम्) भक्तिरस (न सुनोति) नहीं रखता, अर्थात् भक्ति नहीं करता, (एषः) यह परमेश्वर (अस्य) इस भक्तिहीन के लिए (अनुस्पष्टः) प्रकट नहीं (भवति) होता; (मघवा) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर (तम्) उसे (निररत्नौ) अपने से कुछ दूर ही (दधाति) रखता है; (ब्रह्मद्विषः) और जो ब्रह्मद्वेषी हैं उसका, (अनानुदिष्टः) विना किसी द्वारा निर्दिष्ट किये (हन्ति) स्वयं हनन करता है।

    टिप्पणी

    [व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं—भक्त, भक्तिविहीन, और भक्तिद्वेषी। मन्त्र में भक्तिविहीन और भक्तिद्वेषियों का वर्णन है। गरीब व्यक्ति, जो कि आजीविका के लिए दिनभर लगा रहता है, और थकामान्दा रात को सो जाता है, वह फिर भी क्षमा योग्य है। परन्तु धनिक व्यक्ति, जिसे कि आजीविकार्जन की चिन्ता नहीं, वह भी यदि भक्ति के लिए तत्पर नहीं होता, तो परमेश्वर उसके प्रति प्रकट नहीं होता, उसे अपने से कुछ दूर ही रखता है। परन्तु जो भक्तिद्वेषी हैं, और अनाचार में लिप्त हैं, उनका विनाश तो उनके कर्मानुसार स्वतःसिद्ध है। अनुस्पष्टः=अन+उ+स्पष्ट। निररत्नौ=अरत्नि पैमाना है—कोहनी से लेकर खुले हाथ की छोटी अंगुली तक। अभिप्राय है “कुछ दूर” नकि बहुत दूर। ऐसे धनिक व्यक्ति, किसी भी चोट पर, भक्ति-परायण हो सकते हैं। परन्तु जो भक्ति के विद्वेषी हैं, ऐसे व्यक्ति आचार-विहीन होकर नष्ट ही हो जाते हैं उनका भविष्य अन्धकारमय होता है। अनानुदिष्टः=अन्+आ+अनुदिष्टः। अनुस्पष्टः=अन्+उ+स्पष्टः; अथवा अनु (हीन)+स्पष्टः=स्पष्टता से विहीन।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    The lord keeps in close and direct vicinity the person who, like a generous prosperous man, creates and offers the soma of sincere dedication to him. He, lord of all power and glory, protects him in full security without the shackles, and even without prayer, destroys the enemies of positivity and divinity in the social order.

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    Translation

    The mighty ruler becomes clearly favourable to this man who like a rich man passes soma juice for him. He supports the man (Pressor of juice) in his bended arms and slays him who stands against God and Knowledge.

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    Translation

    The mighty ruler becomes clearly favorable to this man who like a rich man prasses soma juice for him. He supports the man (pressor of juice) in his bended arms and slays him who stands against God and knowledge.

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    Translation

    O Mighty Lord of fortunes, we (the devotees) desirous of horses or action organs’ agility, cows or sense-organs’ perception, and food or power, knowledge and wealth, wanting to approach Thee, invoke Thee, Enhancing Thy Glory and being in Thy new Good Will, we call Thy Peaceful and Bounteous-self.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अनुस्पष्टः) निरन्तरस्पष्टः। दृष्टिगोचरः (भवति) (एषः) स मनुष्यः (अस्य) प्रसिद्धस्य शूरस्य (यः) मनुष्यः (अस्मै) शूराय (रेवान्) धनवान् (न) इव (सुनोति) निष्पादयति (सोमम्) तत्त्वरसम् (निः) निश्चयेन (अरत्नौ) ऋतन्यञ्जि०। उ० ४।२। ऋ गतौ-कत्निच्, रत्निर्बद्धमुष्टिकरः स नास्ति यत्र। विस्तृतकनिष्ठाङ्गुलिमुष्टिकहस्ते। हस्ते। क्रोडे (मघवा) धनवान् (तम्) पुरुषम् (दधाति) स्थापयति (ब्रह्मद्विषः) वेदद्वेष्टॄन् (हन्ति) नाशयति (अननुदिष्टः) अनुदेशमप्राप्तः। अनुक्तः। अप्रार्थितः ॥

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