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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्रः देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    सु॑प॒र्णस्त्वान्व॑विन्दत्सूक॒रस्त्वा॑खनन्न॒सा। दिप्सौ॑षधे॒ त्वं दिप्स॑न्त॒मव॑ कृत्या॒कृतं॑ जहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्ण: । त्वा॒ । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒त् । सू॒क॒र: । त्वा॒ । अ॒ख॒न॒त् । न॒सा । दिप्स॑ । ओ॒ष॒धे॒ । त्वम् । दिप्स॑न्तम् । अव॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । ज॒हि॒ ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णस्त्वान्वविन्दत्सूकरस्त्वाखनन्नसा। दिप्सौषधे त्वं दिप्सन्तमव कृत्याकृतं जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्ण: । त्वा । अनु । अविन्दत् । सूकर: । त्वा । अखनत् । नसा । दिप्स । ओषधे । त्वम् । दिप्सन्तम् । अव । कृत्याऽकृतम् । जहि ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (सुपर्णः) सुन्दर पक्षवाले वा शीघ्रगामी [गरुड़, गिद्ध आदि पक्षी के समान दूरदर्शी पुरुष] ने (त्वा) तुझ को, (अनु=अन्विष्य) ढूँढ़ कर (अविन्दत्) पाया है, (सूकरः) सूकर [सुअर पशु के समान तीव्र बुद्धि और बलवान् पुरुष] ने (त्वा) तुझको (नसा) नासिका से (अखनत्) खोदा है। (ओषधे) हे तापनाशक पुरुष (त्वम्) तू (दिप्सन्तम्) मारने की इच्छा करनेवाले को (दिप्स) मारना चाह, और (कृत्याकृतम्) हिंसाकारी पुरुष को (अव जहि) मार डाल ॥१॥

    भावार्थ - गिद्ध मोर आदि पक्षी बड़े तीव्रदृष्टि होते हैं, और सूअर एक बलवान् तीव्रबुद्धि पशु अपनी नासिका से खाद्य तृण को भूमि से खोद कर खा जाता है। इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुषार्थी बलवान् पुरुष अपने शत्रुओं को खोज कर नाश करता है ॥१॥

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