अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 11
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यापरिहरणम्
छन्दः - त्रिपदासाम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
उदे॒णीव॑ वार॒ण्य॑भि॒स्कन्धं॑ मृ॒गीव॑। कृ॒त्या क॒र्तार॑मृच्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ए॒णीऽइ॑व । वा॒र॒णी । अ॒भि॒ऽस्कन्द॑म् । मृ॒गीऽइ॑व । कृ॒त्या । क॒र्तार॑म् । ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
उदेणीव वारण्यभिस्कन्धं मृगीव। कृत्या कर्तारमृच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । एणीऽइव । वारणी । अभिऽस्कन्दम् । मृगीऽइव । कृत्या । कर्तारम् । ऋच्छतु ॥१४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 11
विषय - शत्रु के विनाश का उपदेश।
पदार्थ -
(वारणी) हथिनी, अथवा (एणी इव) कृष्णमृगी के समान (मृगी इव) और मृगी के समान (अभिस्कन्दम्) धावा करनेवाले पुरुष पर, (कृत्या) शत्रुनाशक सेना (कर्तारम्) हिंसक को (उद्) उछल कर (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥११॥
भावार्थ - हमारी सेना शत्रुओं पर इस प्रकार शीघ्र धावा करे, जैसे घेरा हुआ पशु अपने आखेटक पर दौड़ता है ॥११॥
टिप्पणी -
११−(उत्) उद्गत्य (एणी) इण् गतौ−ण, णस्य नेत्वम्, ङीप्। कृष्णमृगी (इव) यथा (वारणी) वृञ् आवरणे−णिच्, ल्युट्, ङीष्। गजी (अभिस्कन्दम्) अभि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः−पचाद्यच्। प्रतिकूलगन्तारम् (मृगी) हरिणी (इव) यथा (कृत्या) शत्रुनाशिका सेना (कर्तारम्) कृञ् हिंसायाम्−तृच्। हिंसकम् (ऋच्छ) गच्छतु ॥