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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    वृषे॑व यू॒थे सह॑सा विदा॒नो ग॒व्यन्न॒भि रु॑व संधनाजित्। शु॒चा वि॑ध्य॒ हृद॑यं॒ परे॑षां हि॒त्वा ग्रामा॒न्प्रच्यु॑ता यन्तु॒ शत्र॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ऽइव । यू॒थे । सह॑सा । वि॒दा॒न: । ग॒व्यन् । अ॒भि । रु॒व॒ । सं॒ध॒न॒ऽजि॒त् । शु॒चा । वि॒ध्य॒ । हृद॑यम् । परे॑षाम् । हि॒त्वा । ग्रामा॑न् । प्रऽच्यु॑ता: । य॒न्तु॒ । शत्र॑व: ॥२०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषेव यूथे सहसा विदानो गव्यन्नभि रुव संधनाजित्। शुचा विध्य हृदयं परेषां हित्वा ग्रामान्प्रच्युता यन्तु शत्रवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषाऽइव । यूथे । सहसा । विदान: । गव्यन् । अभि । रुव । संधनऽजित् । शुचा । विध्य । हृदयम् । परेषाम् । हित्वा । ग्रामान् । प्रऽच्युता: । यन्तु । शत्रव: ॥२०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (वृषा इव) बैल के समान (यूथे) अपने झुण्ड में (सहसा) बल से (विदानः) जाना गया, (गव्यन्) भूमि चाहता हुआ (संधनाजित्) यथावत् धन जीतनेवाला तू (अभि) चारों ओर (रुव) गरज। (परेषाम्) वैरियों का (हृदयम्) हृदय (शुचा) शोक से (विध्य) छेद डाल (प्रच्युताः) गिरे हुए (शत्रवः) वैरी (ग्रामान्) अपने गाँवों को (हित्वा) छोड़ कर (यन्तु) चले जावें ॥३॥

    भावार्थ - पराक्रमी योधा लोग संग्राम में वैरियों को जीत कर उनका धन और राज्य छीन लें ॥३॥

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