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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    सं॒क्रन्द॑नः प्रव॒दो धृ॒ष्णुषे॑णः प्रवेद॒कृद्ब॑हु॒धा ग्रा॑मघो॒षी। श्रेयो॑ वन्व॒नो व॒युना॑नि वि॒द्वान्की॒र्तिं ब॒हुभ्यो॒ वि ह॑र द्विरा॒जे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽक्रन्द॑न: । प्र॒ऽव॒द: । धृ॒ष्णुऽसे॑न: । प्र॒वे॒द॒ऽकृत् । ब॒हु॒ऽधा । ग्रा॒म॒ऽघो॒षी । श्रेय॑: । व॒न्वा॒न: । व॒युना॑नि । वि॒द्वान् । की॒र्तिम् । ब॒हुऽभ्य॑: । वि । ह॒र॒ । द्वि॒ऽरा॒जे ॥२०.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संक्रन्दनः प्रवदो धृष्णुषेणः प्रवेदकृद्बहुधा ग्रामघोषी। श्रेयो वन्वनो वयुनानि विद्वान्कीर्तिं बहुभ्यो वि हर द्विराजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽक्रन्दन: । प्रऽवद: । धृष्णुऽसेन: । प्रवेदऽकृत् । बहुऽधा । ग्रामऽघोषी । श्रेय: । वन्वान: । वयुनानि । विद्वान् । कीर्तिम् । बहुऽभ्य: । वि । हर । द्विऽराजे ॥२०.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    (संक्रन्दनः) शब्द करनेवाला, (प्रवदः) गर्जनेवाला, (धृष्णुषेणः) निडर सेनावाला, (प्रवेदकृत्) चेतना करनेवाला, (बहुधा) अनेक प्रकार से (ग्रामघोषी) सेनादलों में शब्द करनेवाला, (श्रेयः) हमारे आनन्द का (वन्वानः) उद्योग करनेवाला, (वयुनानि) धर्मों को (विद्वान्) जाननेवाला तू (द्विराजे) दो राजाओं के युद्ध में (बहुभ्यः) बहुतों को (कीर्तिम्) कीर्ति (वि) विविध प्रकार से (हर) प्राप्त करा ॥९॥

    भावार्थ - शूर सेनादल सिंहध्वनि के साथ वैरियों को जीतकर कीर्ति पावें ॥९॥

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