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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    स्रु॒चा हस्ते॑न प्रा॒णे यूपे॑ स्रुक्का॒रेण॑ वषट्का॒रेण॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्रु॒चा । हस्ते॑न । प्रा॒णे । यूपे॑ । स्रु॒क्ऽका॒रेण॑ । व॒ष॒ट्ऽका॒रेण॑ ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्रुचा हस्तेन प्राणे यूपे स्रुक्कारेण वषट्कारेण ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्रुचा । हस्तेन । प्राणे । यूपे । स्रुक्ऽकारेण । वषट्ऽकारेण ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 2; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (अतिथिः) अतिथि [संन्यासी] (स्रुचा) स्रुचा [चमचा रूप] (हस्तेन) हाथ से (यूपे) जयस्तम्भरूप (प्राणे) प्राण पर (स्रुक्कारेण) स्रुचा की क्रिया से और (वषट्कारेण) आहुति की क्रिया से [जैसे हो वैसे] (आत्मन्) परमात्मा में (तेषाम्) उन (आसन्नानाम्) समीप रक्खी हुई [हवनद्रव्यों] की (जुहोति) [मानो] आहुतियाँ देता है ॥४, ५॥

    भावार्थ - संन्यासी उपदेश करता है कि जिस प्रकार हवन करके वायु आदि की शुद्धि से उपकार किया जाता है, वैसे ही मनुष्य परमात्मा की आज्ञा में आत्मदान से आत्मा की उन्नति करके अधिक-अधिक उपकार करें ॥४, ५॥ म० ४, ५ और ६ स्वामिदयानन्दकृत संस्कारविधि संन्यासाश्रमप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥

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