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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 13
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - त्रिपदार्ची पङ्क्तिः सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    योऽति॑थीनां॒ स आ॑हव॒नीयो॒ यो वेश्म॑नि॒ स गार्ह॑पत्यो॒ यस्मि॒न्पच॑न्ति॒ स द॑क्षिणा॒ग्निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अति॑थीनाम् । स: । आ॒ऽह॒व॒नीय॑: । य: । वेश्म॑नि । स: । गार्ह॑ऽपत्य: । यस्मि॑न् । पच॑न्ति । स: । द॒क्षि॒ण॒ऽअ॒ग्नि: ॥७.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योऽतिथीनां स आहवनीयो यो वेश्मनि स गार्हपत्यो यस्मिन्पचन्ति स दक्षिणाग्निः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अतिथीनाम् । स: । आऽहवनीय: । य: । वेश्मनि । स: । गार्हऽपत्य: । यस्मिन् । पचन्ति । स: । दक्षिणऽअग्नि: ॥७.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 2; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    (यः) जो (अतिथीनाम्) अतिथियों, [उत्तम संन्यासियों] का [सङ्ग है], (सः) वह [संन्यासियों के लिये] (आहवनीयः) आहवनीय [ग्राह्य अग्नि है, जिसमें ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी होम करते हैं], और (यः) जो (वेश्मनि) घर में [अर्थात् अपने आश्रम में निवास है], (सः) वह [उसके लिये] (गार्हपत्यः) गार्हपत्य [गृहसम्बन्धी अग्नि है] और (यस्मिन्) जिसमें [अर्थात् जिस जाठराग्नि में अन्न आदि] (पचन्ति) पचाते हैं, (सः) वह [संन्यासियों के लिये] (दक्षिणाग्निः) दक्षिणाग्नि [अनुकूल अग्नि वानप्रस्थ सम्बन्धी है] ॥१३॥

    भावार्थ - संन्यासी अपने आत्मा में सब अग्नियों का आरोपण करके सब आश्रमों का हित करता है ॥१३॥

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