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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 62
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - निर्ऋतिर्देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    असु॑न्वन्त॒मय॑जमानमिच्छ स्ते॒नस्ये॒त्यामन्वि॑हि॒ तस्क॑रस्य। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छ॒ सा त॑ऽइ॒त्या नमो॑ देवि निर्ऋते॒ तुभ्य॑मस्तु॥६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असु॑न्वन्तम्। अय॑जमानम्। इ॒च्छ॒। स्ते॒नस्य॑। इ॒त्याम्। अनु॑। इ॒हि॒। तस्क॑रस्य। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। इ॒च्छ॒। सा। ते॒। इ॒त्या। नमः॑। दे॒वि॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। तुभ्य॑म्। अ॒स्तु॒ ॥६२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुन्वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मदिच्छ सा तऽइत्या नमो देवि निरृते तुभ्यमस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असुन्वन्तम्। अयजमानम्। इच्छ। स्तेनस्य। इत्याम्। अनु। इहि। तस्करस्य। अन्यम्। अस्मत्। इच्छ। सा। ते। इत्या। नमः। देवि। निर्ऋत इति निःऽऋते। तुभ्यम्। अस्तु॥६२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 62
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    भावार्थ - हे स्त्रियांनो ! पुरुषार्थहीन चोर पुरुषांच्या नातेवाइकांना आपले पती बनवू नका. आप्त पुरुषाच्या नीतीनुसार नीतिमान पुरुषांचा स्वीकार करा. जशी पृथ्वी अनेक उत्तम फळांचे माणसांना दान करते तसे तुम्ही बना. अशा गुणवती स्त्रियांना आम्ही वंदन करतो. जसे आम्ही आळशी चोर लोकांशी संबंध ठेवत नाही, तसे तुम्ही आळशी चोर लोकांशी संबंध ठेवू नका.

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