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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 43
    ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    स बो॑धि सू॒रिर्म॒घवा॒ वसु॑पते॒ वसु॑दावन्। यु॒यो॒ध्यस्मद् द्वेषा॑सि वि॒श्वक॑र्मणे॒ स्वाहा॑॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। बो॒धि॒। सू॒रिः। म॒घवेति॑ म॒घऽवा॑। वसु॑पत॒ इति॒ वसु॑ऽपते। वसु॑दाव॒न्निति॒ वसु॑ऽदावन्। यु॒यो॒धि। अ॒स्मत्। द्वेषा॑सि। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणे। स्वाहा॑ ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स बोधि सूरिर्मघवा वसुपते वसुदावन् । युयोध्यस्मद्द्वेषाँसि । विश्वकर्मणे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। बोधि। सूरिः। मघवेति मघऽवा। वसुपत इति वसुऽपते। वसुदावन्निति वसुऽदावन्। युयोधि। अस्मत्। द्वेषासि। विश्वकर्मण इति विश्वऽकर्मणे। स्वाहा॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 43
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    भावार्थ - जी माणसे ब्रह्मचर्य पाळून जितेंद्रिय बनतात व द्वेष सोडून देतात व धर्मानुसार उपदेश करून ऐकून तसे वर्तन करण्याचा प्रयत्न करतात. ते धर्मात्मा व विद्वान बनून संपूर्ण सत्य व असत्य जाणून त्याचा उपदेश करतात. इतर हटवादी अभिमानी क्षुद्र पुरुष तसे नसतात.

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